बिहार में जीत पीएम मोदी की हुई है
बिहार में जीत सही मायने में पीएम नरेंद्र मोदी की हुई है। धुर-विरोधी नीतीश कुमार को अपने पाले में कर लिया। पीएम मोदी को महज बीजेपी का अगुआ बनाये जाने की वजह से उन्होंने अपना रास्ता अलग चुन लिया था। यहां तक कि लालू यादव के साथ आकर मिल गये। मोदी संग उनकी राजनीतिक/वैचारिक दुश्मनी इतनी तीखी थी कि उन्होंने आरएसएस मुक्त भारत की बात करनी शुरु कर दी थी और राष्ट्रीय स्तर पर मोदी मुखालिफ संभावित मोर्चे के कद्दावार नेता के तौर पर उन्हें देखा जाने लगे थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में संभावित मोदी विरोधी धड़े का एक बड़ा चेहरा बनने की पूरी काबिलियत उनमें थी। अपने सबसे बड़े हरीफ को मोदी ने जीत लिया और इसके साथ ही बिहार में एक बार फिर बीजेपी इकतरार का हिस्सेदार बन गई।
वैसे गौर से देखा जाये तो नीतीश कुमार बीजेपी को लेकर कभी भी हार्ड नहीं थे। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी शामिल हुये थे और संघ प्रमुख मोहन भागवत से भी इनके करीबी रिश्ते ओपेने सेक्रेट है। इन्हें परेशानी सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी से थी। संघीय व्यवस्था में गहरी आस्था की वजह से उन्हें नरेंद्र मोदी के दामन पर खून के छिंटे दिखाई देते थे। इसलिए पहली बार गुजरात से निकल कर बीजेपी की कमान मोदी के हाथ में आने की बात हुई थी तब नीतीश कुमार ने हार्ड तरीके से रियेक्ट किया था। इसके पहले बिहार के बाढ़ पीड़ितों के लिए गुजरात से आने वाले फंड को लेने से नीतीश कुमार ने साफतौर पर इन्कार करके जता दिया था कि पीएम मोदी के साथ वह कभी भी कदमताल नहीं कर सकते हैं। बिहार चुनाव में तो दोनों एक दूसरे का डीएनएन तक की पड़ताल करने में लगे हुये थे।
बिहार चुनाव में महागठबंधन फतहयाब हुई और नरेंद्र मोदी ने जनमत के आगे अपना सिर नवां लिया। बिहार की जनता ने नीतीश के नेतृत्व में महागठबंधन का इस्तकबाल किया था। किसी को दूर-दूर तक यकीन नहीं था कि नीतीश और लालू की सियासी दोस्ती टूट जाएगा। मजबूरी का ही सही लेकिन इस महागठबंधन को पुख्ता गठजोड़ के तौर पर देखा जा रहा था। सिर्फ पीएम मोदी को इस बात का यकीन था कि नीतीश कुमार देर सवेर उनके साथ खड़े होंगे क्योंकि नीतीश कुमार के बिना उदय भारत की कल्पना शायद वह नहीं कर पा रहे थे। बिहार में नीतीश कुमार की शराबबंदी का समर्थन करके उन्होंने चारा फेंक दिया था। वह इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि यदि दुश्मन को दोस्त बनाना है तो उसकी तारीफ करो। इसका असर नोटबंदी के समय देखने को मिली जब नीतीश कुमार ने विपक्षी खेमे में जोरदार विरोध के बावजूद नोटबंदी का समर्थन किया। आतंकियों के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक पर नीतीश कुमार मोदी के साथ खड़े थे। इस तरह से धीरे-धीरे दोनों के बीच में एक केमेस्ट्री डेवलप होती चली गई।
करप्शन को लेकर तेज प्रताप और तेजस्वी यादव के खिलाफ सुशील कुमार मोदी का व्यवस्थित तरीके से मोर्चा खोलना बिहार में सत्ता परर्वतन अभियान का एक अहम हिस्सा बना। देखते देखते इस अभियान में अन्य कई सरकारी एजेंसियां भी सक्रिय हो गई है। तेज प्रताप, तेजस्वी और मीसा भारती की नामी-बेनामी अकूत संपत्तियों पर जितना निशाना साधा गया उससे ज्यादा उसका प्रचार किया गया। नीतीश और लालू के मन में खटास पैदा करने के लिए पत्रकार लॉबियों का भी भरपूर इस्तेमाल किया गया। पीएम मोदी और उससे ज्यादा अमित शाह को यह यकीन था कि फौलादी से फौलादी गठबंधन में भी टूट के जर्म्स होते हैं। इस बीच नीतीश कुमार को भी लालू कूनबा की वजह से लगातार अपनी लोकप्रियता में गिरावट का फीडबैक मिल रहा था जिसकी वजह से केंद्र में मोदी विरोधी खेमे की कमान संभालने की संभावना भी धुंधली होती जा रही थी। बस, उन्होंने बिहार के हक में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करते हुये पीएम मोदी का दामन थाम लिया। इसे पूरे ऑपरेशन को अंजाम देने में अमित शाह ने हनुमान की भूमिका अदा की है।