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भारत और इंडिया के मिलन का प्रस्थान बिंदु हो सकते हैं अन्ना

संजय मिश्र

देश आज ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ से कई रास्ते फूटते हैं। कई लोग मानते हैं कि कुछ समय बाद देश पुराने ढर्रे पर लौट आएगा। ऐसा हुआ , तो भी , यकीन मानिये उसकी चाल बदली हुई होगी। सड़कों पर उतरा जन सैलाब कांग्रेस ही नहीं, बल्कि तमाम राजनीतिक दलों के मौजूदा तौर-तरीकों को खारिज करने पर उतारू है। राजनेता जब कहते हैं कि संसद को चुनौती मिल रही है तब वे खतरे की इसी घंटी को कबूल कर रहे होते हैं। ” सब चलता है ” –की सोच के आदी ये राजनेता जान रहे हैं कि रवैया बदलना होगा और इसे अलग वेव लेंथ पर ले जाना होगा।

ऐसा मानने वाले भी कम नहीं कि अन्ना का आन्दोलन खतरनाक दिशा में जा सकता है। तुषार गांधी को आशंका है कि इस जन उबाल को ” वेस्टेड इंटरेस्ट ” हाईजेक भी कर सकते हैं। वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता मानने लगे हैं कि आन्दोलन का विस्तृत फलक इस दुराग्रह को बेमानी बना चुका है कि ये आरएसएस प्रायोजित है। अब कहा जा रहा है कि राष्ट्रवादी ताकतों के बंधन से ये आन्दोलन १६ अगस्त को ही निकल गया। क्या वाम, क्या दक्षिण और क्या मध्यमार्गी …….किसिम किसिम के विचार वाले तत्त्व इस आन्दोलन में घुस गए हैं। यहाँ तक कि माओवादी भी समर्थन कर रहे हैं…जी हाँ वही माओवादी जिनके लिए अन्ना की अहिंसा नीति चुनौती के समान है।

एक रास्ता कल को उज्जवल बनाने की दिशा का भी है। गाँव से लेकर शहर तक अन्ना को समर्थन कर रहे लोग सुखद भविष्य की कामना पूरा करने वाले राह को खोज रहे हैं। ये कैसी तलाश है ? जो महिलाएं बच्चे को गोद में लेकर पहुँची हैं जरा उनके मिजाज को पढ़िए। गैस सिलेंडर के दाम की याद दिला कर वे कमरतोड़ महंगाई की तरफ इशारा कर रही हैं। सरकार महंगाई की वजह ग्लोबल इकोनोमी में ढूंढ रही है। इस इकोनोमी के बेचैनी बढाने वाले नतीजे दुनिया भर में दिखते हैं। चिंता के बीच वैश्वीकरण की यात्रा के पहले पड़ाव तक के सफ़र की समीक्षा हो रही है। इसके दुष्प्रभावों से ” भारत ” ही नहीं बल्कि जिसे हम ” इंडिया ” कहते हैं वो भी अछूता नहीं। अन्ना इस अर्थव्यवस्था की उपज को बढे हुए भ्रष्टाचार में देखना चाह रहे हैं।

पिछले दो दशक में उदारीकरण की नीति से फायदा पाने वाले अमेरिका-मुखी नेट सेवी नौजवानों की भी थोड़ी बात कर लें। किसी भी कीमत पर सफलता और समृधि की चाहत को इन्होने जीवन का मकसद मान रखा है……..चाहे इसके लिए नैतिकता की बलि क्यों न चढ़ानी पड़े ? इस तबके का बड़ा हिस्सा आज आन्दोलन के साथ है…….अन्ना के नैतिक बल की आभा से वशीभूत। क्या इस वर्ग को मालूम है कि अन्ना ने भारत की आत्मा से उसका दर्शन कराया है ? क्या अन्ना को अहसास है कि भारत और इंडिया के मिलन का ये प्रस्थान बिंदु हो सकता है ? क्या वे सचेत हैं कि ये आन्दोलन इस मुतल्लिक एक अवसर लेकर खड़ा है ? क्या अन्ना के मन में इस सन्दर्भ में कोई योजना आकर ले पाई है ?

फिलहाल, दुनिया का सबसे युवा देश धोती-कुर्ता वाले एक शख्स की धमक सुन रहा है। अन्ना के एजेंडे में भ्रष्टाचार, चुनाव-सुधार और ग्राम-संसद जैसे मुद्दे हैं जिसके जरिये राज-सत्ता को लोक-सत्ता में बदलने, राजनेताओं को जिम्मेदारी का अहसास कराने और संविधान की कमियों को पाट कर उसे ज्यादा जीवंत बनाने की लालसा है। साधारण भाषा में कहें तो शायद हर दिन २० रूपये में जिन्दगी बसर करने वाली ८० फीसदी आबादी और समृधि में जी रहे २० फीसदी आबादी के बीच संवाद बनाने की ” जिद ” है ये। क्या देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इसे समझ रही है ?

संजय मिश्रा

लगभग दो दशक से प्रिंट और टीवी मीडिया में सक्रिय...देश के विभिन्न राज्यों में पत्रकारिता को नजदीक से देखने का मौका ...जनहितैषी पत्रकारिता की ललक...फिलहाल दिल्ली में एक आर्थिक पत्रिका से संबंध।

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