स्वर्ण युग (कविता)

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आंखों को चौड़ी करने के बावजूद……….

कुछ भी तो दिखाई नहीं देता अंधकार में

….फिर भला कोशिश करने से क्या फायदा ?

कोशिश किये बिना इन्सान रह भी तो नहीं सकता !

और फिर रहे भी क्यों?

अंधकार को नियती मान बैठना इन्सान की फितरत नहीं!

प्रयत्नों का दौर तो चलता ही रहेगा,

हर युग में, हर समाज में

—भले की इसकी कीमत शूली पर चढ़कर

क्यों न चुकानी पड़े ?

——–ईशू की तरह।

भले ही इसके लिए जहर का प्याला क्यों ने पीना पड़े—-

———-सुकरात की तरह।

भले की इसके लिए आंखे क्यों न गवानी पड़े—

गैलिलियों की तरह।

भले ही इसके लिए जिन्दा क्यों न जलना पड़े….

——काल्विन की तरह।

अंधकार से मुक्ति तो चाहिये ही

चाहे कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।

बढ़ने दो अंधकार को

और !…… थोड़ी और….थोड़ी और!

कभी तो रोशनी की चिन्गारी बिखरेगी,

प्रयत्न, प्रयत्न, अनवरत प्रयत्न…..

उद्देश्य सिर्फ एक—-रोशनी की तलाश।

कीमत- कुछ भी।

उफ, यह क्या? …..शायद पत्थर का टूकड़ा।

……………….पत्थर का टूकड़ा।

एक और चाहिये, एक और….

——————–वाह !

ठक! ठक!! ठक !!!

चिंगारी—दो पत्थरों के टकराव से

——–प्रकाश की ओर पहला कदम।

——–क्रांति की शुरुआत

पूरी शक्ति के साथ।

उछालो इन पत्थरों को

—छिटकने दो चिंगारी

यकीन मानों- ये लपटों में तब्दील हो जाएंगी।

और फिर शुरु होगा विध्वंस पर

—-एक नये युग की शुरुआत

——–स्वर्ण युगा !

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