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मध्य प्रदेश में 28 बच्चों को भूख निगल गई

शिरीष खरे, मुंबई

एएचआरसी यानी एशियन ह्यूमन राइटस् कमीशन के अनुसार मध्यप्रदेश में 28 बच्चों ने कुपोषण के चलते दम तोड़ दिया है। पीड़ित बच्चों के परिवार सरकारी योजनाओं के तहत भोजन और स्वास्थ्य के मद में दी जाने वाली सहायता से भी दूर हैं।

एएचआरसी ने अपनी सूचना का आधार मध्यप्रदेश की एक संस्था लोक संघर्षमंच और प्रदेश में चलाये जा रहे ‘भोजन के अधिकार अभियान’ की एक मौका मुआयना पर आधारित रिपोर्ट को बनाया है। इस रिपोर्ट के आधार पर एएचआरसी ने आशंका जतायी है कि आने वाले दिनों में मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों के कई और बच्चे भुखमरी के शिकार हो सकते हैं।

एएचआरसी ने भुखमरी की चपेट में आएं बच्चों की स्थिति को बयान करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश, संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा भोजन के अधिकार के संदर्भ में नियुक्त विशेष प्रतिनिधि और बाल अधिकारों की समिति को पत्र लिखा है और उनसे तुरंत हस्तक्षेप की मांग की है।

ज्यादातर मामलों के विवरणों से पता चला है कि बच्चे कुपोषण और चिकित्सीय देखरेख के अभाव में उन बीमारियों की चपेट में आएं हैं जिनका इलाज बहुत आसानी से हो सकता था। गौरतलब है कि प्रदेश में बीते दो महीने से कुपोषण से ज्यादातर आदिवासी बच्चों की मौतें हुई हैं। कुपोषण के शिकार ज्यादातर बच्चे आदिवासी बहुल जिले झाबुआ के मेघनगर प्रखंड से पाएं गए हैं।

प्रशासनिक असंवेदनशीलता की हद यह है कि पीड़ित बच्चों के परिवारों को बीपीएल कार्ड तक हासिल नहीं हो पाएं हैं। जबकि यह सारे परिवार सीमांत किसान हैं और उन्हें खेती के लिए सिंचाई की सुविधा या कोई अन्य राजकीय मदद भी नहीं मिल रही है। इस इलाके में जिस परिवार के पास थोड़ी सी भी जमीन है उसे बीपीएल से ऊपर दिखाया गया है, भले ही वह जमीन कितनी भी कम और बंजर ही क्यों न हो। जाहिर है ऐसा परिवार अब भी भोजन और स्वास्थ्य सुविधा के मामले में सरकारी मदद का हकदार नहीं बन सका है।

एएचआरसी के अनुसार पीड़ित बच्चों के परिवार वालों को काम के अभाव में गांव से पलायन करना पड़ा है और उन्हें मनरेगा के अधिकार से दूर रखा गया है। मनरेगा के तहत दिये जाने वाले जॉबकार्ड के हर धारक को गुजरे साल जहां बामुश्किल 15 दिनों का काम ही दिया गया है, वहीं ऐसे लोगों को अब भी उनकी मजदूरी नहीं मिली है। जबकि गांवों में सामाजिक अंकेक्षण की प्रकिया भी पूरी कर ली गई है। अजब है कि एक तरफ गांवों में बच्चों की कुपोषण से हो रही मौतें रुकती नहीं हैं और दूसरी तरफ मनरेगा के सामाजिक अंकेक्षण में एक भी कमी दिखाई नहीं देती है।

शिरीष खरे

माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्‍वविद्यालय, भोपाल से निकलने के बाद जनता से जुड़े मुद्दे उठाना पत्रकारीय शगल रहा है। शुरुआत के चार साल विभिन्न डाक्यूमेंट्री फिल्म आरगेनाइजेशन में शोध और लेखन के साथ-साथ मीडिया फेलोसिप। उसके बाद के दो साल "नर्मदा बचाओ आन्दोलन, बडवानी" से जुड़े रहे। सामाजिक मुद्दों को सीखने और जीने का सिलसिला जारी है। फिलहाल ''चाइल्ड राईट्स एंड यू, मुंबई'' के ''संचार विभाग'' से जुड़कर सामाजिक मुद्दों को जीने और समझने का सिलसिला जारी है।

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