ममता के विद्रोह में तेल देखिये और तेल की धार देखिये
डीजल की कीमतों में वृद्धि, रसोई गैस में कमी और रिटेल में एफडीआई की मंजूरी को लेकर ममता की नाराजगी को दूर करने के लिए दिल्ली में बैठकों का सिलसिला चल रहा है। तृणमूल के सभी छह मंत्री शुक्रवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस्तीफा देंगे, यह फैसला ममता का है। ममता को मनाने के लिए तोलमोल का नाटक शुरु हो चुका है, और ममता मान जाएंगी यह यकीन राजनीति के सभी लाल बुझ्झकड़ों को है, क्योंकि उन्हें पता है कि मनमोहन सरकार की बलि कम से कम इन मुद्दों पर नहीं दी जाएगी। ममता इस सरकार को बचाने के लिए महज अपनी भूमिका निभा रही हैं, आखिर उनके रगों में भी तो कांग्रेस का ही लहू दौड़ रहा है, और कांग्रेसी तिकड़मों की वह एक अच्छी खिलाड़ी हैं और अपने राज्य पश्चिम बंगाल में कमोबेश वे पूरी व्यवस्था को कांग्रेस के तर्ज पर ही हांक रही हैं, जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कूचलने के मामले में। फिलहाल ममता के स्टैंड से यह भ्रम जरूर फैल गया है कि वह एक आयरन लेडी हैं, और लोगों के हित के लिए केंद्र सरकार से टकराने से भी बाज नहीं आएंगी। लेकिन हकीकत में केंद्र सरकार से वापसी की घोषणा करके (ध्यान रहे, अभी ऐसा कुछ हुआ नहीं है) वह मनमोहन सिंह सरकार को राहत ही पहुंचा रही हैं। ममता में पिछले कई दिनों से राष्ट्रीय पटल पर छाये ओटालों- घाटालों का पूरा मुद्दा ही साफ कर दिया है। बेशक यह कांग्रेस की दूरगामी रणनीति का ही परिणाम है कि आज तमाम राजनीतिक संगठन और मीडिया केंद्र सरकार की भविष्य को लेकर अटकलें लगा रहे हैं।
राजनीति में किसी भी समस्या को महत्वहीन करने का सबसे आसान तरीका है उससे बड़ी समस्या खड़ी कर दो। कांग्रेस इस कला में माहिर है। कांग्रेस यह अच्छी तरह से जान रही थी कि डीजल की कीमतों में वृद्धि और रसोई गैस में कमी करके (रिटेल में एपडीआई के इसमें शामिल नहीं करते हैं, उसे कुछ दूसरे नजिरये से देखने की जरूरत है) वह एक अलोकप्रिय कदम उठाने जा रही है। इससे सीधे लोगों के चूल्हें पर चोट होगा। और जेहन से घपले और घाटलों की बातें फुर्र हो जाएंगी, क्योंकि उनका पूरा ध्यान अपने बिगड़े हुये बजट को दुरुस्त करने की ओर लगेगा। विपक्ष धर्म से प्रेरित होकर विपक्ष तो इस मामले पर हो हल्ला मचाएगा ही, इस बात को जानने के लिए विशेष ज्ञान की जरूरत नहीं है। सलीके ने कांग्रेस ने विपक्ष को अपने पुरानों मुद्दों से हाथ धाने पर मजबूर कर दिया। कोलगेट और कोयला जैसे मसले नेपथ्य में चले गये। जनसरोकार से जुड़े हुये मसलों को कांग्रेस ने न सिर्फ आगे ढकेल दिया है, बल्कि देश में इससे उपजी आंधी पर नियंत्रण रखने के लिए ममता बनर्जी को भी एक लड़ाकू नेतृत्व के तौर पर और भी मजबूती से उभारा है। सरकार से नाता तोड़ने की बात कह कर ममता क्रूसेडर के तौर पर आम आदमी की आवाज बन गई हैं। यानि कांग्रेस खुद के खिलाफ जारी आंदोलन का नेतृत्व विपक्ष के नेताओं के हाथों में भी नहीं आने दे रही है। आभासी प्रतिरोध के रूप में ममता भाजपाई व अन्य दलों के नेताओं से ज्यादा शक्तिशाली नजर आ रही हैं। यानि मामला साफ है- पक्ष भी कांग्रेस का और विपक्ष भी कांग्रेस का।
ममता के तीन शर्त हैं-डीजल के दाम में पांच रुपये की वृद्धि को तीन से चार रुपये तक किया जाये, सब्सिडी पर 12 गैस सिलेंडर मिले और रिटेल में एफडीआई का निर्रण वापस हो। खबरें आ रही हैं कि कांग्रेस प्रमुख सोनिया अब इन मुद्दों पर खुद ममता से बार्गेनिंग करेंगे। बार्गेनिंग के इस नाटक के बाद हो सकता है कि तृणमूल के मंत्री केंद्र सरकार में बने रहें या फिर यह भी हो सकता है कि ममता की जेहादी नेता की अवधि में इजाफा हो जाये। दोनों सूरतों में खिलाड़ी कांग्रेसी ही रहेगी, क्योंकि जेहादी ममता विपक्षी नेताओं पर भारी पड़ेगी, और सुलह के बाद भी वाह वाह उसी को होगी। कुल मिलाकर गेंद कांग्रेस के पाले में ही रहेगी।
जहां तक देश में रिटेल में एफडीआई के आगमन का सवाल है तो इसका व्यापक असर उनलोगों पर पड़ने वाला है जो पारंपरिक रूप से भाजपाई हैं या फिर भाजपा के समर्थक के समर्थक हैं। रिटेल क्षेत्र में क्रमबद्ध एफडीआई के आगमन से बहुत बड़ी संख्या में भाजपा कार्यकर्ता और भाजपा समर्थक रोड पर आ जाएंगे। उनके सामने रोजी रोटी की समस्या खड़ी हो जाएगी, जैसे अभी देश के आम नागरिकों के सामने है, तो वे राजनीति क्या खाक करेंगे। मनमोहन सिंह देश में सुधारवादी आंदोलन के प्रणेता बन चुके हैं। नरसिंह राव सरकार के समय, जो खुद घूस पर टिकी हुई थी, वित्तमंत्री के तौर पर उन्होंने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को भारत में लागू किया और अब प्रधानमंत्री के तौर पर पिछले दो दशक से इन सुधारों को गांव-गांव तक ले जाने की कवायद कर रहे हैं। डीजल की कीमतों में वृद्धि, रसोई गैस में कमी और रिटेल में एफडीआई की मंजूरी इसी कवायद का एक हिस्सा है। तमाम तरह के अंतरराष्ट्रीय संधियों से घिरे होने की वजह से मनमोहन से अब इससे पलट नहीं सकते हैं, देश के आर्थिक सुधारों पर चलायमान करने के अलावा अब उनके पास और कोई विकल्प नहीं है। कल को गये यदि कोई गैर कांग्रेसी सरकार भी केंद्र में काबिज होती है तो मनमोहन सिंह द्वारा बिछाये गये आर्थिक सुधारों पर चलना उसकी मजबूरी होगी। फिलहाल हकीकत को छुपाये रखने और आम आदमी को बहलाने के लिए इस तरह के नाटक खूब होंगे। बेहतर होगा आम आदमी ऐसे नाटकों का जल्दी अभ्यस्त हो जाये, और अपनी जेब को मजबूत करने की कवायद में जुट जाये। किसी भी चुनाव में उनका वोट सिर्फ बदलाव का भ्रम देगा, उदारवादी आर्थिक नीति भारत सरकार की मजबूरी है। ममता विद्रोही अंदाज में बस तेल देखिये और तेल की धार देखिये, होगा वही जो अंतरराष्ट्रीय संधियां कहेंगी।