मोदी बनाम धर्मनिरपेक्षता की राजनीति
(धरमबीर कुमार)
अमेरिकी कांग्रेसनल रिसर्च सर्विस (सी आर एस ) की भारत से सम्बंधित रिपोर्ट जो अभी समाचारों में सुर्खियाँ बटोर रही हैं , कि व्याख्या राजनीतिज्ञों एवं राजनीतिक विश्लेषकों के द्वारा कई प्रकार से की जा रही है। नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा से खुश जहाँ उनकी पार्टी के भीतर एवं बाहर उनके समर्थक उनकी अनावश्यक स्तुति गान करने में लग गए हैं तो वहीं कांग्रेस एवं अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ इस रिपोर्ट को महत्वहीन करार देने में लगी हुई हैं।
उपर्युक्त सन्दर्भों से इतर इस रिपोर्ट को एक अलग दृष्टिकोण से भी देखने की जरूरत है। इस रिपोर्ट को महत्वपूर्ण इसलिए भी माना जाना चाहिए क्योंकि यह हमारे देश के लकीर के फकीर एवं तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिज्ञों, राजनीतिक दलों, बुद्धिजीवियों के लिए एक उदाहरण की तरह है, सीख की तरह है कि हमें संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर किसी के भी बारे में राय निरपेक्ष तरीके से बनाना चाहिए। अलग-अलग मुद्दों को अलग -अलग ही देखा जाना चाहिए, किसी मुद्दे को उसकी मौलिकता से भटकाने के अनावश्यक प्रयास से बचा जाना चाहिए। किसी व्यक्ति द्वारा किसी एक क्षेत्र में की गई गलती या कोताही के कारण दूसरे क्षेत्रों में किये गए उसके अच्छे कार्यों को नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि यह नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा बाली रिपोर्ट उसी अमेरिका की है जिसने आज तक नरेन्द्र मोदी को अमेरिका आने के लिए वीजा तक नहीं दिया है। वीजा नहीं देने का उनके द्वारा बताया गया उनका कारण सर्वविदित है। अमेरिका नरेन्द्र मोदी को 2002 के गुजरात दंगों को भड़काने में उनकी भूमिका के लिए दोषी ठहराता है। अर्थात् जहाँ अमेरिका उन्हें उनके सांप्रदायिक छवि के कारण वीजा देने से इनकार करता है वहीं उनकी प्रशासनिक क्षमता के कारण गुजरात में हुए विकाश का पूरा क्रेडिट उन्हें देने में कोई कोताही नहीं बरतता है। मतलब साफ कि सिर्फ इस आधार पर कि गुजरात दंगो में उन्होंने ‘राजधर्म ‘ का पालन नहीं किया उनके अन्य अच्छे कार्यों को नजरंदाज हरगिज नहीं किया जाना चाहिए। यह प्रसंग हमें उन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों एवं बुद्धिजीवियों से यह सवाल पूछने के लिए मजबूर करता है कि क्या पंडित नेहरु को उनकी कश्मीर मामलें में हुई कूटनीतिक गलती के कारण देश को दिए उनके अन्य महान योगदानों का क्रेडिट नहीं दिया जाना चाहिए ? यहाँ पंडित नेहरु से नरेन्द्र मोदी की तुलना करने का कोई मकसद नहीं है और यह उचित भी नहीं है।
लेकिन कहने का तात्पर्य यह कि ‘इतिहास’ विषय में अनुतीर्ण किसी विद्यार्थी के ‘विज्ञानं’ विषय में उसके अच्छे प्रदर्शन को क्यों नाकारा जाय ।
भारत में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जो राजनीति होती है वह अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। किसी भी मुद्दे को धर्मनिरपेक्षता से जोड़कर अन्य मुद्दों को गौण करने की कोशिश सिर्फ वोट बैंक के लिए तथा अपने को धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी दिखलाने के लिए किया जाता है। निश्चित रूप से धर्मनिरपेक्षता बहुत ही बड़ी चीज है। यह न सिर्फ राष्ट्रीय एकता-अखंडता को अक्षुण्ण रखने में सहायक है बल्कि नैतिकता तथा मानवता के लिहाज से भी यह जरुरी है। लेकिन इसके नाम पर राजनीति की रोटी सेंकना न तो उचित है और न ही व्यवहारिक ।
जहाँ तक नरेन्द्र मोदी की बात है, दंगे में उनकी भूमिका निश्चित रूप से आलोचना के काबिल है और हाल में आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला उनको कोई क्लीन चिट देने वाला न होकर यह एक प्रक्रिया सम्बन्धी फैसला है। अतः इस फैसले को नरेन्द्र मोदी को गुजरात दंगे मामले में निर्दोष ठहराने बाले फैसले के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए ।लेकिन गुजरात में विकास से समबन्धित उनकी उपलब्धियों की चर्चा करना कोई गलत बात नहीं है। उनकी प्रशासनिक क्षमता की तारीफ़ करना साम्प्रदायिकता का समर्थन करने जैसा कतई नहीं समझा जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश अपने यहाँ यही हो रहा है। सी.पी. एम. के केरला से पूर्व सांसद अब्दुल्ला कुट्टी, देवबन्द के मौलाना वस्तान्वी यहाँ तक कि समाज सेवी अन्ना हजारे तक को नरेन्द्र मोदी के प्रशासनिक दक्षता की तारीफ़ करना कितना महंगा पड़ा सभी जानतें हैं। लगता है कि यहाँ आलोचना करने से ज्यादा प्रशंसा करने के लिए हिम्मत की दरकार पड़ती है।
भारतीय राजनीतिक दलों में अमूनन जिन्हें धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ माना जाता है उनके भी कई कदम उनकी सच्ची धर्मनिरपेक्ष राजनीती पर अंगुली उठाने पर मजबूर करती है। ख़ालिश ‘धर्मनिरपेक्षता’ के रस्ते पर चलते रहने का, वोट बैंक के लोभ से प्रेरित होकर कुछ राजनीतिक दल तो साहस ही नहीं करते और कुछ तो जान बूझकर ही छद्म धर्मनिरपेक्षता की राजनीती करतें है। आखिर पैगम्बर मोहम्मद साहेब का कार्टून बनाये जाने तथा मकबूल फिदा हुसैन द्वारा ‘सरस्वती’ का नग्न चित्र बनाने की घटना को एक ही चश्मे से क्यों नहीं देखा जाता है। हुसैन कि उक्त पेंटिंग जहाँ कुछ विशेष समूह या संगठन की भावनाओं को आहत करने वाला ‘ लगता है तो वहीं ‘पैगमबर मोहम्मद का कार्टून’ , ‘ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ‘ वहीं दूसरी और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों एवं बुद्धिजीवियों को हुसैन की पेंटिंग ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ लगती है ,लेकिन पैगम्बर मोहम्मद का कार्टून बनाना सम्प्रदाय विशेष के भावनाओं को आहत करने वाला लगता है। आखिर सभी राजनीतिक दल , बुद्धिजीवी आदि आम जनमानस को यह बतलाने का साहस क्यों नहीं करते कि खुदा या भगवान जो कि सर्वशक्तिशाली एवं सर्वव्याप्त है तथा जिसके डर से आम आदमी कुछ भी गलत करने से इसलिए डरता है कि खुदा या भगवान् उसे देख रहें हैं तथा उसके द्वारा गलत किये गए कार्यों के कारण खुदा या भगवान् की नाराजगी उसे झेलनी पड़ सकती है तो वही बात हुसैन तथा उस कार्टूनिस्ट पर भी लागू होता है, जिसने मोहम्मद साहेब का कार्टून बनाया। खुदा या भगवान् खुद ही सर्वशक्तिशाली और सर्वज्ञानी होतें है। उन पर हम अपनी रक्षा के लिए निर्भर रहते हैं तो क्या वे अपनी प्रतिष्ठा/इज्जत की रक्षा के लिए हमारे मोहताज हैं? अगर खुदा या भगवान की दृष्टि में यह दंडनीय है तो वो खुद इसका दंड देने में सक्षम हैं किन्तु अगर वे इन दोनों को निर्दोष समझतें हैं या उन्हें माफ़ करते हैं तो फिर हम दंड देने वाले कौन होतें हैं?
उसी प्रकार कुछ दल किसी भी आतंकवादी घटना होने के बाद बिना किसी जांच के मुस्लिम आतंकवाद का ही हाथ देखतें हैं तो कुछ लोग धर्मनिरपेक्ष बनने के चक्कर में ओसामा बिन लादेन जैसे आतंकवादी को ‘ओसामाजी’ कहते नजर आ जातें है। भले ही मुस्लिम समाज भी उसे एक आतंकवादी के रूप में देखते हुए इन महाशय की टिप्पणी को ‘हास्यास्पद वक्तब्य ‘ ही क्यों न समझे।
कहने का आशय यह कि प्रत्येक मुद्दे को उसकी मौलिकता से अलग कर धर्मं के साथ जोड़ना कतई उचित नहीं है। ऐसा करना भारतीय धर्मनिरपेक्षता की सामूहिक भावना के साथ खिलवाड़ करना है। इस प्रकार का वर्ताव भले ही सिर्फ असली मुद्दे पर से ध्यान भटकाने के लिए किया जाता हो लेकिन ऐसा प्रत्येक वर्ताव देश के सांप्रदायिक सदभाव की सामूहिक भावना , एकता-अखंडता ,सामाजिक समरसता पर एक करारा प्रहार साबित होता है जिससे निश्चित रूप से बचा जाना चाहिए।
Dharambir Kumar,( Barauni)
bahut achha