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रसूल की छवि में दफन हो गई अन्ना-आंदोलन की आत्मा

तो आधी जीत हो चुकी है, प्रधानमंत्री, सांसद, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी, जज लोकपाल के दायरे से बाहर रहेंगे। एनजीओ पर तो पहले से ही कोई चर्चा नहीं थी। सिर्फ निम्न स्तर के कर्मचारियों की बाहें मरोड़ी जाएगी। यह आजादी की दूसरी लड़ाई थी, जैसा कि तमाम प्रचार माध्यमों ने इसे प्रचारित किया। आजादी की इस दूसरी लड़ाई का मकसद था, संसद से एक मजबूत जन लोकपाल बिल को पास कराना। संसद में इसे लेकर बहस भी हुई, संसद की गरिमा बनी रही।

अब अन्ना समर्थक जश्न के माहौल में डूबे हुये हैं, यह संदेश दिया जा रहा है कि देश की जनता के दबाव में आकर संसद को आखिरकार लोकपाल बिल पर निर्णय लेना पड़ा। जिस तरह से पिछले कुछ सालों में एक के बाद भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामले आ रहे थे उससे देश की जनता काफी आक्रोशित थी। अन्ना हजारे के आंदोलन ने इस आक्रोश को वाष्प बनाकर काफूर कर दिया। अब लोग ढोलक की थाप पर झूम रहे हैं, नाच रहे हैं, गा रहे हैं, और अन्ना अन्ना चिल्ला रहे हैं। उम्मीद है कि यह माहौल आगे भी कायम रहेगा।

अन्ना के आंदोलन से सबसे अधिका फायदा कांग्रेस को हुआ है, कांग्रेस के कई नेता जिस तरह से भ्रष्टाचार में लिप्त थे, उसे लेकर आमलोगों के बीच में जोरदार आक्रोश था। मीडिया में भी सुनियोजित तरीके से यह दिखाया जाता रहा कि यह लड़ाई
अन्ना और कांग्रेस के दरमियान है, क्रांग्रेस बिल के खिलाफ है जबकि अन्ना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से अंकुश लगाने के लिए जनलोकपाल बिल का पास होना जरूरी है। तमाम समाचार पत्रों में भी खबरों और नामचीन स्तंभकारों का तेवर कुछ इसी अंदाज में था। लोगों के गुस्सा को कांग्रेस पर केंद्रित कर दिया गया, और फिर सलीके से संसद में बहस करा कर कांग्रेस ने इस गुस्से को एक बार में ही साफ कर दिया। अप्रत्यक्ष रूप से अब यह संदेश दिया जा रहा है कि कांग्रेस भी भ्रष्टाचार के खिलाफ है और देश से इसे पूरी तरह से साफ करने के लिए संजीदा है।

यहां तक कि राहुल गांधी ने भी लोकपाल को एक संवैधानिक ढांचे में लाने की बात कही है। यानि कि उन्होंने भी यह संदेश देने की कोशिश है कि भारत के एक युवा नेता होने के नाते वह भी भारत को भ्रष्टाचार से मुक्त देखना चाहते हैं।

फिलहाल अन्ना की छवि देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक रसूल के रूप में उभरी है, या फिर उभारी गई है। 13 दिन के उनके अनशन को भारतीय इतिहास में मील का पत्थर के रूप में स्थापित किया जा रहा है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अन्ना के आंदोलन में जन भागीदारी नहीं थी। आंदोलन जैसे जैसे बढ़ता गया लोग एक्टिवेट होते हैं, या यूं कहा जाये कि लोगों को एक्टिवेट करने के लिए अन्ना टीम ने अपना पूरा संसाधन झोंक दिया। देश में भ्रष्टाचार से त्रस्त लोगों को यह अहसास दिलाया गया कि अन्ना एक मसीहा के रूप में उनके बीच आये हैं, वैसे भी भारत में मसीहाओं को पूजने का पुराना रिवाज है।

जंग में जो आधी जीत की बात करते हैं उनका व्यवहार जंग के कायदे के खिलाफ होता है। अब इस आधी जीत का क्या मतलब है? इस जंग के सूत्रधारों ने सलीके से देश की जनता के गुस्से को निकाल दिया है। इस आंदोलन की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि यह पूरी तरह से शांतिपूर्ण रहा, और शायद यही वजह थी कि लोग इतनी बड़ी संख्या में इसमें शिरकत करने के लिए सामने आये। यानि की इस आंदोलन से जुड़े लोगों को इस बात का यकीन दिलाने में इस आंदोलन के तमाम सूत्रधार कामयाब रहे कि कि चाहे कुछ भी हो जाये इस आंदोलन में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होगा, इस आंदोलन का सबसे सकारात्मक पक्ष यही रहा, जिसकी वजह से शहरी आबादी बड़ी संख्या में अपने अपने घरों से निकल पड़ी। बहरहाल इस आबादी को अब जश्न मनाने का पूरा अधिकार है, और अपने इस अधिकार का वह इस्तेमाल भी कर रही है। लेकिन जिस तरीके से लोकपाल के दायरे को सिकुड़ा दिया गया है उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि भविष्य में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में यह कारगर होगा इसमें शक है। अभी भी भारत में बड़ी मछलियों को बेखौफ तैरते हुये शिकार करने का पूरा मौका हासिल है, और अन्ना हजारे का यह आंदोलन उन मछलियों को गिरफ्त में लाने में पूरी तरह से नाकामयब साबित हुआ है। फिलहाल अन्ना के आंदोलन से जुड़े लोगों और इस आंदोलन के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करने वालों को एक झुनझुना जरूर मिल गया है, जिसकी शोर में इस आंदोलन की आत्मा की आवाज लंबे अरसे के लिए दफन हो जाएगी। इस आंदोलन से इतना तो साफ दिख गया है कि आने वाले समय में एनजीओ और कारपोरेट जगत को नये पंख मिल जाएंगे। इस आंदोलन से अन्ना हजारे ने रसूल की छवि तो हासिल कर ली, लेकिन परिणति वही ढाक के तीन पात ही नजर आ रही है। हां इतना तो तय है कि इस आंदोलन ने कांग्रेस पर लगे कलंक को धोने का काम निश्चित रूप से किया है।

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