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“लोग भूल गये ,हिन्दी चित्रपट में चित्रगुप्त का संगीत “

–रविराज पटेल,

तड़पाओगे तड़पा लो हम तड़प तड़प कर भी तुम्हारे गीत गायेंगे… (बरखा- १९५९ ) ऐसे गीतों को मर्म संगीत से चित्रगुप्त ही सजा सकते थे। चित्रगुप्त को गुजरे बहुत दिन नहीं हुए। एक वक्त मुम्बई सिने जगत में उनकी अनिवार्य उपस्थिति थी।  उनका संगीत जहां हर रंग में अनुपम आविर्भाव से लोगों को मंत्रमुग्ध करता रहा, वहीं कीर्तन, बाउल शैली में दिये उनके संगीत देवोपम सौंदर्य से लोगों को सम्मोहित करती रही है, वहीं वात्सल्य रस में मां की लोरी भी शिशुओं को मीठी नींद में सोने पर मजबूर कर देता रहा। किन्तु आज वे विस्मृति के अंधेरी गलियों में गुम हो गये। उनका नामलेवा भी नहीं रहा।

मान्यता है कि विश्व पटल पर भारतीय सिनेमा की विशेषता गीत-संगीत से रहा है.। इस विधा के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक चित्रगुप्त का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता हैं , जिनका माधुर्य विभोर कर देने वाला संगीत हमें आज भी आनंदचित करता है. हालाँकि उस दौरान सिने संगीत जगत में पूर्व से स्थापित मदन मोहन, सी.रामचंद्रन, रोशन तथा एस. डी. बर्मन जैसे संगीतकारों के डंका से चित्रगुप्त आम जिक्र से थोडा दूर रह जाते हैं।  40 के दशक में बिहार से बम्बई गए चित्रगुप्त संघर्ष के दिनों में बी.एवं सी. ग्रेड के फिल्मों में संगीत दिया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं की चित्रगुप्त गुणी संगीतज्ञ नही थे. चित्रगुप्त यह मानते भी थे, कि भले ही सिनेमा का स्तर कुछ भी हो मुझे तो बेहतर संगीत देने से मतलब है। चित्रगुप्त की गहरी संगीत समझ का तत्कालीन संगीतकारों ने भी लोहा माना। उस समय के एक भी सुरीले गायक-गायिका उनके सांगीतिक अभिव्यक्ति से बच नहीं पाये। लता मंगेशकर, उमा देवी, शांति शर्मा, गीता दत्त, मो.रफी, शमशाद बेगम, किशोर कुमार, मुकेश, मन्ना डे, हेमंत कुमार, महेंद्र कपूर, सुमन कल्याणपुर, तलत, लक्ष्मी शंकर, प्रदीप, आशा भोसले, उषा मंगेशकर, सुलक्षणा पंडित से लेकर सुरेश वाडेकर तक हर कोई उनके अप्रतिम सौदर्य संगीत को स्वर दे कर संगीत जगत में सशक्त प्रतिष्ठा पायी. खास तौर से लता मंगेशकर उनके संगीत में इतनी सहज होती थीं, मानो सुरों में शहद ही शहद घोला हो. चित्रगुप्त का व्यक्तित्व यथार्थवादी एवं अति सरल था. शायद यही वजह रहा होगा की उनके संगीत में ग्रामीण सहज प्रेम, श्रृंगार ,धार्मिक ,मध्यम परिवेश की गत ,चाल और खास संगीतात्मक ध्वनियों में मीठी सी कोमलता, थिरकता झंकार, अभीभूत करता दर्द, मदहोश करती रूमानियत, वात्सल्य रस में पारंपरिक भाव हो या फिर शास्त्रीय प्रधान स्वर लहरियां उनके हर स्वराकार में भंगिमाओं, भावनाओं और चेष्टाओं की बहुतायत नजर आती है।

चित्रगुप्त का पूरा नाम चित्रगुप्त श्रीवास्तव था। उनका जन्म 16 नवम्बर सन 1917 को बिहार के गोपालगंज जिले के कमरैनी गाँव के शिक्षित संभ्रांत कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी प्रारंभिक एवं माध्यमिक शिक्षा-दीक्षा भी यहीं हुई, बाद में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए उन्होंने पटना विश्वविद्यालय, पटना में दाखिला लिया और अर्थशास्त्र में स्नाकोत्तर की डिग्री हासिल की। अपने बड़े भाई जगमोहन आजाद, जो पेशे से पत्रकार थे और संगीत के बेहद शौकीन। चित्रगुप्त इन्हीं से ही उत्प्रेरित होकर पं. शिव प्रसाद त्रिपाठी से विधिवत शास्त्रीय संगीत की शिक्षा प्राप्त की, उतना ही नही भारतखंडे महाविद्यालय, लखनऊ से नोट्स मंगवा कर संगीत का नियमित अभ्यास किया करते थे। उन दिनों वह पटना विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में अध्यापन भी कर रहे थे, लेकिन इस संगीत साधक का मन यहाँ कहाँ लगने वाला था, फलस्वरूप व्याख्याता का पद त्याग कर सन 1945 ई. में वे बम्बई चले गए। चित्रगुप्त उस समय के सभी फिल्मी संगीतकरों में सबसे अधिक पढ़े लिखे संगीतकार थे।

प्रारंभ में स्वभाभिक रूप से जान-पहचान एवं काम का आभाव रहा परन्तु बिहार का ही उनका एक मित्र मदन सिन्हा, जो पहले से ही बम्बई में रहता था और फिल्मी हस्तियों के बीच थोडा बहुत जान पहचान रखता था, कि मदद से ही वह संगीतकार एच.पी. दास के संपर्क में आये और उनके संगीत निर्देशन में बतौर कोरस गायक एक गाना में कोरस गाया। पुनः एक दिन बादामी नाम के मित्र से मित्रता होती है और उसके माध्यम से संगीतकार एस.एन. त्रिपाठी से मिलने जाते हैं जहां उनकी कला कौशल से ओत-प्रोत हो कर त्रिपाठी जी उन्हें अपना सहायक बनने का आमंत्रण दे डालते हैं। चित्रगुप्त इसे सहर्ष स्वीकार कर उनके साथ धुनों की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। तब के संगीतकारों में नौटंकी, कीर्तन, पारंपरिक रीति रिवाज जैसे-शादी विवाह, पर्व-त्योहार एवं लोक संस्कृति में रचा बसा शैलियों में घुलनशील संगीत देने की क्षमता चित्रगुप्त के अलावा शायद ही किसी में रहा होगा। उनका संगीत जितना दया, भाव एवं करुणा से हृदय को छूता है उतना ही चहलकदमी भरी चंचलता भी प्रदान करता करता है।

स्वतंत्र रूप से उन्हें पहली बार संगीत देना का मौका फिल्म ‘लेडी रोबिनहुड’ (१९४६) में मिला, जिसमें उन्होंने राजकुमारी के साथ दो सुमधुर गीत भी गाये. यहीं से चित्रगुप्त का फिल्मी सफर गति लेना शुरू कर दिया और चित्रगुप्त निम्नलिखित फिल्मों में बेजोड़ संगीत देने में मशगूल हो गए। सुपरहिट हीरो (१९४६), तूफान क्वीन (१९४६), जादुई रतन (१९४७) ,शेक हैंड्स (१९४७), स्टेट क्वीन (१९४७), इलेवन ओ क्लोक (१९४८), माला द माइटी (१९४८), टाईग्रेस (१९४८), जय हिन्द (१९४८), दिल्ली एक्सप्रेस (१९४९) ,जोकर (१९४९), शौकीन (१९४९), भक्त पुंडलिक (१९४९), सर्कसवाले (१९५०),वीर बब्रुवाहन (१९५०), हमारा घर (१९५०), जोड़ीदार (१९५०), हमारी शान (१९५१), भक्त पूरन (१९५२), सिकंदबाद द सेलर (१९५२), मनचला (१९५३), शिवभक्त (१९५५), इंसाफ (१९५६), जय श्री (१९५६), जिन्दगी के मेले (१९५६), नीलमणि (१९५७), भाभी (१९५७), साक्षी गोपाल (१९५७), बालयोगी उपमन्यु (१९५८), चालबाज (१९५८), तीसरी गली (१९५८), सन ऑफ सिकंदराबाद ९१९५८), बरखा (१९५९), कंगन (१९५९), नया संसार (१९५९), गेस्ट हॉउस (१९५९), काली टोपी लाल रुमाल (१९५९), मैडम एक्स वे जेड (१९५९), गैम्बलर (१९६०), पतंग (१९६०), पुलिस डिटेक्टिव ९१९६०), अपलम चपलम (१९६१), आंख मिचैली (१९६१), बड़ा आदमी (१९६१), ओपेरा हाउस (१९६१), जबक (१९६१), मतवाले नौजवान (१९६१), सुहाग सिंदूर (१९६१), हम मतवाले (१९६१), तेल मालिश बूट पोलिश (१९६१), मैं शादी के लिए चला (१९६२), किंगकोंग (१९६२), बर्मा रोड (१९६२), मैं चुप रहूंगी (१९६२), रोकेट गर्ल (१९६२), मम्मी डैडी (१९६३), काबुली खान (१९६३), घर बसा कर देखो (१९६३), एक राज (१९६३), सैमसन (१९६४), बैंड मास्टर ( (१९६४),मैं भी लड़की हूं (१९६४), महाभारत (१९६४), बागी (१९६४), गंगा की लहरें (१९६४), मेरा कसूर क्या है (१९६४), बैंक रोबरी (१९६४), ऊंचे लोग (१९६५), आकाशदीप (१९६५), आधी रात के बाद (१९६५), अफसाना (१९६६), बिरादरी (१९६६), तूफान में प्यार कहां (१९६६), वासना (१९६८), औलाद १९६८), प्यार का सपना (१९६९), गंगा की लहरें (१९६९), परदेसी (१९७०), कभी धूप कभी छांव (१९७१), प्रेम की गंगा (१९७१), साज और सनम (१९७१), संसार (१९७१) शिकवा (१९७४), बालक और जानवर (१९७५), अंगारे (१९७५), सिक्का (१९७६), तूफान और बिजली (१९७६), जागृति महिमा (१९७७), दो शिकारी (१९७८), अलाउद्दीन एंड द वंडरफुल लैम्प (१९७८), शिव शक्ति (१९८०), ज्वाला दहेज की (१९८१), इंसाफ की मंजिल (१९८८), शिव गंगा (१९८९ ) वहीं भोजपुरी फिल्मों में गंगा मैया तोहे पियरी चढैबो (१९६२), गंगा (१९६५), भौजी (१९६५), बलम परदेसिया (१९७९), धरती मैया (१९८१), हमार भौजी (१९८३), गंगा किनारे मोरा गांव (१९८४), सैयां मगन पहलवानी में (१९८५), घर द्वार (१९८५), पिया के गाँव (१९८५), घर गृहस्ती (१९८६) इसके अलावा चित्रगुप्त संगीतकार एस.एन. त्रिपाठी के सहयोगी के रूप में भी गजब का संगीत दिया जैसे नवरात्र (१९५०), नागपंचमी (१९५३), अली बाबा और चालीस चोर (१९५४), मिस माला (१९५४), तुलसी दास (१९५४), शिवरात्रि (१९५४), राजकन्या (१९५५), सावित्री (१९५५), किस्मत (१९५६), लक्ष्मी पूजा (१९५७). इन तमाम फिल्मों में चित्रगुप्त का चित्रगुप्ताना अंदाज लोगों के मन मस्तिष्क पर छाया रहा.

चित्रगुप्त का संगीत हर रंग में अनुपम अभिर्भाव से मंत्रमुग्ध करता है ,जहां कीर्तन, बाउल शैली में देवोपम सौंदर्य सम्मोहित करती है वहीं वात्सल्य रस में मां की लोरी भी शिशुओं को मीठी नींद में सोने पर मजबूर के देता है, प्रेमाग्रह करते प्रेमी अपनी प्रेमिका के साथ खूब रोमांचकारी लगता है, तो वहीं वेदना, विरह को श्रवण करते ही हृदय को झकझोर देता है. उनके खूबियों की फेहरिस्त तो बहुत लम्बी है, परन्तु उनके कुछ गीतों को याद करें तो आपको उनकी नैसर्गिक प्रतिभा का अंदाजा सहज ही लग जायेगा. जैसे कि धार्मिक गीतों में ‘माता-पिता की सेवा करके’ (भक्त पुंडलिक), ‘कैलाशा नाथ प्रभु अविनाशी, नटराजन मेरे मनवासी’ (शिवभक्त) तो छेड़छाड़ में ‘नजर नजर से उलझ गई अभी मोहब्बत नई नई’ (इंसाफ), लोक शैली में ‘जिया लहराए’ (जय श्री), ‘जा रे जादूगर देखि तेरी जादूगरी’ (भाभी). १९६२ में बनी पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढैबो’ में चित्रगुप्त का संगीत एवं शैलेन्द्र का गीत बिहार और पूर्वोत्तर के हर उम्र के तबकों पर छाया रहा, तत्कालीन उत्सवों में खास तौर से शादी-विवाह के मौके पर जहां बाराती पक्ष के युवकों ‘अब तो लागत मोरा सोलहवां साल’ (सुमन कल्याणपुर) पर खिलखिलाते तो वहीं साराती पक्ष की युवतियां ‘कहे बासुरिया बजबलू’ (लता) पर मनोरंजन करतीं, ठीक वहीं जब विदाई का बेला पर ‘सोनवा के पिंजरा में बंद भइल हाय राम’ (रफी) की बारी आती है तो किसके आंखों से आंसू नही छलक पड़ते. लेकिन जब ‘हंस हंस के देखा तू एक बेरिया’ तथा ‘गोरकी पतरकी रे मरे गूलेलबा जियरा उडी उडी जाय’ (बलम परदेसिया) जैसे ही कानो में घुलता है की मन तरंग आज भी मचल मचल सा जाता है .‘जल्दी जल्दी चल रे काहारा, सुरुज डूबे रे नदिया’ (धरती मैया) जैसे लोकशैली में रचित संगीत चित्रगुप्त को बिहार की मिट्टी की वास्तविक सपूत प्रमाणित करता है ।

जब चित्रगुप्त १९८८ में फिल्म ‘शिवगंगा’ के लिए संगीत बना रहे थे, जो उनके जीवन काल का अंतिम फिल्म रहा, तभी ‘कयामत से कयामत तक’ में उनके संगीतकार पुत्रों की जोड़ी ‘आनंद-मिलिंद’ का संगीत भी युवाओं पर अमिट छाप छोड़ कर उन्हें गौरवान्वित कर रहा था। उसी फिल्म का एक गाना ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा, बेटा हमारा ऐसा काम करेगा’ मानो चित्रगुप्त के साथ किया गया वादा आनंद-मिलिंद दोनों भाइयों ने निभा दिया हो।

चित्रगुप्त ‘रोबिनहुड’ (१९४६) से लेकर ‘शिवगंगा’ (१९८८) तक लता के साथ रूमानियत तो रफी की शरारत, गीता की शराफत तो किशोर का चुलबुलाहट, मन्ना डे का शास्त्रीय सरगम हो तो महेंद्र का सुर तरंग, मुकेश का दर्द तो आशा, उषा, सुमन की मखमली स्वर स्पर्शों से अपनी प्राकृतिक, सामाजिक सांस्कृतिक, सौंदर्यबोध एवं शोधपरक धुनों की यात्रा करते करते ७२ वर्ष की आयु में १४ जनवरी १९९१ (मकर संक्रांति) को अमरत्व प्राप्त कर गए। चित्रगुप्त अपने अंतिम दिनों तक मुंबई स्थित बंगला ‘प्रभात’, खार में रहे और अपने इलाज के दौरान मुम्बई हास्पिटल में गुजर गये।  गुणी संगीतज्ञों में उनकी कमी की चर्चा आज भी खूब होती है. हम बिहारवासी उनके बिहारी होने पर गर्व करते हैं।

editor

सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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One Comment

  1. So Nice…, It’s said that past tells us how to work or act in present & what would be our future . Really, Biharvanshi Chitragupt was a real musician & singer. He was an institution in himself. At present many Bihari contribute in film & music too. Hope, It will last long….

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