लिटरेचर लव

शिकार (कहानी)

दफ्तर से निकल कर सिगरेट सुलगाने के बाद सड़क के किनारे कुछ कदम चलते ही मुझे बगल वाले बड़े से नाले में कोई चीज हरकत करती हुई प्रतीत हुई। पिछले 15 दिनों से दिल्ली में सूरज के नहीं निकलने और तीखी सर्द हवा चलने की वजह से हड्डी में कंपकंपी पैदा करने वाली ठंड पड़ रही थी। सड़क पर इक्के दुक्के लोग दिख रहे थे। ठंड की शिद्दत को कम करने के लिए सिगरेट के दो लंबे कश लेने के बाद मैं नाले के और करीब आया तो मुझे लगा है कि उसमें कोई इंसानी जिस्म पड़ा हुआ है और अपना हाथ उठाकर हवा में ही किसी ठोस सतह की तलाश कर रहा है। हालांकि उसका चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था। ऐसा लग रहा था कि उसका चेहरा नाले के पानी में गोते लगा रहा था।

“नीचे कौन है?”,जोर की आवाज देते हुए अपने सिर को आगे करके लैंप पोस्ट की रोशनी में अपनी आंखों को चौड़ी करते हुए मैंने उस शख्स का जायजा लेने की कोशिश की।

ज्योंही मेरी आवाज उसके कानों से टकराई वह थोड़ा कुलबुलाया और पानी में डूबे हुए अपने सिर को उठाकर मेरी ओर देखने की कोशिश करने लगा। कीचड़ में डूबने की वजह से उसका पूरा चेहरा काला हो चुका था। यदि उसकी लाल लाल आंखे नहीं चमक रही होती तो यह गुमान करना भी मुश्किल था कि नीचे नाले में कोई इंसान पड़ा है। बिना कुछ बोले हुए वह अपनी हाथ को मेरी तरफ बढ़ाने की कोशिश करने लगा। उसके हाथ भी कीचड़ में सने हुए थे।

मैं जहां था वहां से चाहकर भी उसके हाथ को नहीं पकड़ सकता था। उसे पकड़ने के लिए मुझे नाले के अंदर अपने शरीर को झुकाना पड़ता। अभी मेरी आधी से अधिक सिगरेट बची हुई थी। गोल्डेन कश के पहले मैं उसे भी फेंकना नहीं चाहता था। मेरी इच्छा हुई कि उसे उसी हालत में छोड़कर सिगरेट का कश का लगाते हुए आगे बढ़ चलूं। इस कड़ाके की ठंड में नाली में पड़े इंसान के लिए सिगरेट फेंककर हाथ आगे बढ़ाना मुझे कतई उचित नहीं लगा। दिल्ली जैसे शहर में राह चलते लोगों की मदद करना मुसीबत को आमंत्रित करने जैसा था। और नाले में पड़े हुए किसी इंसान की मदद करना तो अपने आप को खतरे में डालना था। यदि पुलिस वाले आ जाते तो पता नहीं वे क्या लोचा करते। वैसे भी मेरी तलब जल्द से जल्द घर पहुंच कर अपनी गरम गरम रजाई में दुबक जाने की हो रही थी। दिल्ली जैसे महानगर में इस तरह के लफड़ों में पड़ने का सीधा सा मतलब था आ बैल मुझे मार।

सिगरेट का एक और कश लगाते हुए जैसे ही मैं वहां से पलटा पीछे से एक घरघराती हुई आवाज मेरे कानों से टकराई,“मुझे बाहर निकालो, मुझे बचा लो।”

मेरे कदम जम गए। मुझे अहसास हुआ कि यदि मैंने इसे ऐसे ही छोड़ दिया तो वाकई में यह मर जाएगा। सुबह तक इसकी अकड़ी हुई लाश बरामद होगी और इसकी मौत की नैतिक जिम्मेदारी कहीं न कहीं मेरे सिर पर भी होगी।

खुद से थोड़ी कशमकश करने के बाद बुझे मन से सिगरेट को एक ओर फेंकते हुए मैं पलट कर नाले के पास आया। अपने जैकेट को खोलकर एक ओर रखा, अपने कमीज की आस्तीनें ऊपर की और थोड़ सा आगे झुककर अपना दायां हाथ आगे बढ़ाया। थोड़ी ही देर में उसका कीचड़ में सना हुआ कंपकंपाता हाथ मेरे नरम और मुलायम हाथ में था। मैंने उसे अपनी ओर खींचने की कोशिश की लेकिन नाकामयाब रहा। शायद उसका वजह बहुत ज्यादा था और अपनी ओर से सिवाये हाथ बढ़ाने के वह कुछ भी करने में असमर्थ जान पड़ रहा था। मुझे लगा शायद गड्डे नाले में गिरने की वजह से उसे चोट लगी हो और वह अपने आप को ऊपर उठा पाने में असमर्थ हो।

इतना तो तय था कि किसी और की मदद लिए बिना मैं उसे नाले के बाहर अकेले नहीं निकला सकता था। यदि और कोशिश करता तो हो सकता था कि उसके साथ मैं भी नाले में जा गिरूं।

किस्मत अच्छी थी। तभी न जाने कहां से एक रिक्शा सड़क के किनारे मेरे बगल में आकर खड़ा हो गयी।

“क्या कर रहे भैया जी,” रिक्शेवाले ने पूछा। सर्द हवाओं से बचने के लिए अपने पूरे शरीर पर उसने मोटे-मोटे चादर लपेट रखे थे और सिर पर एक काले रंग का मुरेठा बांध रखा था।

“कोई आदमी नाले में गिरा पड़ा है। उसे निकालने की कोशिश कर रहा हूं। यदि तुम थोड़ी मदद कर दोगे तो मैं उसे बाहर खींच लूंगा।”

“वो तो ठीक है बाबू जी। लेकिन मैं कमाई करने निकला हूं। नाले में हाथ डाला तो फिर मैं रिक्शा चलाने लायक नहीं रहूंगा, और इस तरह का कोई काम करना रिस्की है”, कुछ सोचते हुए उसने कहा।

“यदि इसे ऐसे ही छोड़ दिया तो ठंड में इसका मरना तय है। मैं तुम्हें कुछ पैसे दे दूंगा, मेरी मदद करो”, उसकी आंखों में झांकते हुए मैंने इल्तिजा की, लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ। उल्टा अपने व्यवहारिक ज्ञान का हवाला देते हुए मुझे समझाता रहा कि जितना जल्दी हो सके मैं यहां से निकल लूं। लेकिन मैं जिद पर अड़ा हुआ और उस पर मदद करने के लिए बार बार जोर देता रहा।

आखिरकार पांच सौ रुपये की मांग करते हुए वह तैयार गया।

अपने चादर और मुरेठा को हटाकर वह नाले में पड़े हुए आदमी को बाहर निकालने में मेरी मदद करने लगा। नाले में झुकते हुए हमदोनों ने एक साथ अपने अपने हाथ अंदर की ओर डाले और उस शख्स के हवा में तैरती हुई हाथ को पकड़ कर अपने पूरी ताकत से बाहर खिंचने लगे। वह ऊपर उठता चला गया।

जमीन पर पैर पड़ते ही नाले में पड़ा हुआ शख्स अपनी लाल लाल आंखों से हम दोनों को घूर रहा था। उसका पूरा शरीर काला हो चुका था, कपड़ों से बदबूदार कीचड़ और पानी बह कर उसके पांवों के पास जमा हो रहा था, मुंह से शराब की तीखी दुर्गन्ध आ रही थी।

“ई तो टूल्ल है”, रिक्शे वाले मेरी तरफ देखते हुए कहा। “मेरा काम खत्म, पांच सौ रुपये दीजिए, मैं चला।”

नाले के बाहर निकलते ही ठंडी हवा के झोंकों से उस शराबी का शरीर और अधिक कंपकपाने लगा। पांव थरथऱा रहे थे और दांते किटकिटा रही थी।

“इसे ऐसी हालत में नहीं छोड़ सकते, किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचाना होगा। इसकी जेब की तलाशी लो, शायद इसका कोई एड्रेस या फिर फोन नंबर मिल जाये”,शराबी की जेब की देखते हुए मैंने रिक्शेवाला से कहा।

“भैया, हम ई काम नहीं करेंगे। हमको मुसीबत में नहीं पड़ना है।”

“रुको मैं देखता हूं”, इतना कह कर मैंने उसके जेब में हाथ डाले। अगले ही पल उसका पर्स मेरे हाथ में था। पर्स में  दस दस के भिगे हुए कुछ नोट पड़े हुए थे।

“तुम्हारा पता क्या है, कहां रहते हो?”,पर्स को खोलते हुए मैंने शराबी से पूछा। मेरे हाथ से अपना पर्स लेते हुए उसने एक विजिटिंग कार्ड निकाला और मेरी ओर बढ़ा दिया। विजिटिंग कार्ड भी बुरी तरह से भिगा हुआ था। उस पर चंदेश्वर प्रसाद के नाम साथ नोएडा का पता अंकित था। जहां हम खड़े थे वहां से उसका घर मुश्किल से एक किलोमीटर के दायरे में था। थोड़ी सी आनाकानी के बाद रिक्शावाला उसे घर तक छोड़ने के लिए तैयार हो गया।

कुछ देर बाद मैं उस शराबी को रिक्शे की पिछली सीट पर अपने बगल में बैठाकर उसके घर की तरफ जा रहा था। उसका शरीर अभी भी झूम रहा था। यदि मैं उसे नहीं पकड़े होता तो निश्चिततौर पर वह लुढ़ककर सड़क पर गिर पड़ता। रिक्शेवाले को उस इलाके अच्छी तरह से जानकारी थी। वह सीधे उस रोड में पहुंच गया जहां का पता था। उस रोड में दोनों तरफ दो मंजिले छोटे छोटे मकान मकान बने हुए थे। सारे मकान एक जैसे ही थे।

ठंड में सड़क पर खेल रहे कुछ बच्चे दौड़ते हुए रिक्शा के पास आये और उस शराबी को देखकर जोर जोर से चिल्लाने लगे,“चंदूआ टल्ली होकर आ गया, चंदूआ टल्ली होकर आ गया।”

उनमें से एक बच्चा दौड़ता हुआ एक मकान की तरफ भागा और कुछ देर के बाद उसके साथ एक लंबी लगड़ी महिला और कुछ बच्चे तेजी से दौड़ते हुए वापस आये। मेरे दिल में यह भावना भी जोर से हिलोरे मार रही थी कि मैंने आज एक भलाई का काम किया है और इस शराबी को मरने से बचाया है। इसके घरवाले मेरे प्रति कृतज्ञता का इजहार निश्चततौर पर करेंगे।

वह महिला लगातार गालियां देते हुए रोये जा रही थी। करीब आते ही उसने सबसे पहले उस शराबी के पॉकेट में हाथ डाले और उसके पर्स को बाहर निकाला, फिर उलट पलट कर से चेक करने लगी।

“रुपये कहां है?”, मेरी ओर देखते हुए वह जोर से चिल्लाई।

“कैसे रुपये?”, मैंने पूछा।

“सुबह इसी पर्स में रखकर ले गए थे, 20 हजार । निकालो पैसे। सभी इनको ले जाते हैं, इनके पैसों से शराब पीते हैं इन्हें भी पिलाते हैं और पैसे भी हड़प लेते हैं,”  उसने चीखते हुए कहा।

“मैं इसे जानता भी नहीं, कड़ाके की ठंड में यह नाले में पड़ा हुआ था। मैं तरस इसे यहां ले आया और तुम कह रही हो कि…”

“इसकी घड़ी भी गायब है। इसकी घड़ी भी निकालो और पैसे भी।”

“तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया…”

“पैसे निकालो नहीं तो मैं तुम्हारी जुलूस निकाल दूंगी। जूते भी पड़ेंगें और मुकदमा भी दर्ज होगा,” मेरा कॉलर उसकी मजबूत हाथों की गिरफ्त में था। दो तीन बच्चे मेरे शरीर से लिपटकर मेरे कपड़ों को फाड़ने की कोशिश करने लगे। इस बीच रिक्शावाला धीरे से सरकते हुए मेरे करीब आया और मेरी कानों में दबे स्वर में बोला,“ कुछ पैसे देकर यहां से निकल लो नहीं तो तुम्हारी मुसीबत और बढ़ जाएगी।”

“लेकिन मैंने तो इनकी मदद की है। इसके आदमी को बचाया हूं।”

“अब अपनी मुसीबत बढ़ाना चाहते हो तो मैं क्या कर सकता हूं। तुम्हारी भलाई के लिए ही कह रहा हूं, कुछ पैसे देकर निकल लो।”

उसकी बात मेरी समझ में आने लगी थी। इसके पहले कि मैं उस महिला को पैसे ऑफर करता वह मेरा भी पर्स जबरन निकाल चुकी थी। उसमें पड़े हुए ढाई हजार रुपये उसने अपने कब्जे में किए और फिर मेरी कलाई में पड़ी हुई कीमती घड़ी में नजर डाली।

कुछ देर बाद कड़ाके की ठंड में जब मैं रिक्शे पर बैठक उसी रिक्शेवाले से ली हुई बीड़ी का कश लगाता हुए वापस लौट रहा था तो अपनी बीवी के साथ घर के अंदर दाखिल होने से पहले उस शराबी का मुस्कराता हुआ चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम रहा था। साथ में एक बच्चे की व्यंगभरी आवाज भी कानों से टकरा रही थी, “आज का बकरा यही था”

समाप्त

 

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