जर्नलिज्म वर्ल्ड
‘प्लांटवादी पत्रकारिता’ के मक्कार
राजदीप और आशुतोष प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से प्रेरणा लेकर चुपी साधे हुये हैं क्या..?
जब पत्रकार अपनी जमीन छोड़कर आसामान में पतंग बनकर उड़ेंगे तो भुकाटा कभी हो सकता है….पत्रकारिता बड़ी पूंजी की खेल में फंसी हुई है, बड़े-बड़े प्लांट में काम करने वाले लोग सिर्फ तकनीकी स्तर पर खबरों की कांट-छांट करते हैं…खबरों की कांट छांट करते हुये उनके प्रतिरोध की क्षमता कब खत्म हो जाती है उन्हें भी पता नहीं चलता…मुल्क में पत्रकारिता की प्लांटवादी व्यवस्था उदारवादी इकोनोमिक की देन है…प्लांटरूपी दानव खुद को बचाने के लिए कभी भी कभी भी इसमें काम करने वाले लोगों को निगल सकता है…वैसे भी इन प्लांटों में काम करने के दौरान लोगों की हड्डियों का चूरमा निकल जाता है…वे जेहनीतौर पर महज जमीन पर रेंगने वाले कीड़े बनकर रह जाते हैं…दानव के लिए इन्हें निगलना और भी आसान हो जाता है…
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प्लांटवादी पत्रकारिता की एक खासियत है कि इससे जुड़ा हर व्यक्ति तन्हा है। जुबान को तो छोड़ दिजीये यहां दिमाग को भी सीलबंद कर दिया जाता है। व्यापक समझ न होने की वजह से व्यक्ति सामूहिक लड़ाई से भी मुंह चुराने लगाता है….प्लांटवादी पत्रकारिता अपने साथ पत्रकारिता की दुनिया में कुछ छद्म नायकों की भी गढ़ती है और यही छद्मवादी नायक पत्रकारों के नायक होने का भ्रम पैदा करते हुये प्लांटवाद फलसफे को गढ़ते हैं और उन्हें स्थापित करते हैं…जरूरत है इनके चेहरे से बेरहमी के साथ नकाब नोचने की।
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प्रेस पर हमला के नाम पर काला दिवस मनाने वाले लोग कहां गायब हैं???
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जो लोग पत्रकारिता से सिर्फ मोहब्बत करते हैं वे सिर्फ पत्रकार बन कर रह जाते हैं, और जो लोग पत्रकारिता से मोहब्बत करते इसके साथ बेवफाई करते हैं वे लोग मीडिया का प्लांट मालिक बन जाते हैं या फिर ऊंचे ओहदों पर बैठकर प्रवचनकर्ता….तो बदलते हालात में सबक नंबर एक…अव्वल तो पत्रकारिता से मोहब्बत मत करना और यदि करना तो इसके साथ वफा मत करना…हालांकि मोहब्बत में खुद को फना कर देने वाले पत्रकारों की हाड़ मांस के खाद के वजह से ही पत्रकारिता का कॉरपोरेटी प्लांट लहलहा रहे हैं…खेतों-खलिहानों, चौक-चौराहों और गली कूंचों में बिखरे पड़े हैं पत्रकार…जरूरत है सबको जोड़ने वाली सूत्र की तलाश करने की…
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प्लांटवादी पत्रकारिता पत्रकारों को कई स्तर में विभाजित करता है…निम्न, मध्यम और उच्च। उच्च स्तर पर पहुंच चुके पत्रकारों को सामंतवाद का अनुभव कराता है..उनके हाथ में चाबुक थमाता है…मध्यम वर्ग खबरों की कटाई छटाई में जोतता है और निम्न वर्ग को पुचकारते फटकारते हुये सपने दिखाता है…कि एक दिन तुम्हारा भी दिन आएगा जब तुम मध्यम से आगे निकल कर सामंत बनोगे…बस लगे रहे…..यह व्यवस्था प्लांटवादी पत्रकारिता की सबसे बड़ी शक्ति है….
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टीवी 18 ग्रुप में छटनी की तलवार चलने के बाद के राजदीप और आशुतोष की थू थू हो रही है…अब तक पत्रकारिता में इन लोगों ने जो कुछ कमाया था गवां चुके हैं….प्लांटवादी पत्रकारिता के क्रूर चेहरा का प्रतीक बन चुके हैं….मुल्क में पत्रकारिता के जिस मॉडल का ये प्रतिनिधि बने हुये हैं उसके खिलाफ अब आवाज बुलंद होने लगी है..लेकिन अब इस मसले को सिर्फ पत्रकारों के रोजी रोटी तक सीमित करने की जरूरत नहीं है….छटनी तो प्लांटवादी पत्रकारिता की महज एक छोटा सा हिस्सा है….इस प्यार व्यापक बहस छेड़ने की जरूरत है। प्लाांटवादी पत्रकारिता पर हमला अंदर से होना चाहिये…इसके पूरे मैकेनिज्म को खंगालने का वक्त आ चुका है.. दिल्ली से बाहर होने की वजह से आईबीएन 7 के दफ्तर के बाहर तो मेरी मौजूदगी नहीं होगी…लेकिन इस मुहिम मैं जेहनी तौर पर उन लोगों के साथ हूं जो प्लांटवादी पत्रकारिता के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं….
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राजदीप और आशुतोष पूंजी के गुलाम हो चुके हैं….इनके नसों में पूंजीवाद के जहरीले किटाणु रेंग रहे हैं…आशुतोष डंके की चोट पर इस मसले पर व्यापक विमर्श क्यों नहीं छेड़ रहे हैं….उनकी खामोशी यही कहती है कि पूंजी के प्रभाव से वह भी रीढ़विहिन हो गये हैं….राजदीप तो बहुत पहसे से ही भीष्मपितामह की भूमिका में आ चुके थे….नव उदारवादी आर्थिक नीति में पत्रकारों के बदलते हुये चरित्र को इन दोनों के माध्यम से बेहतर तरीके से समझा जा सकता है….जिस ट्रेंड को ये लोग स्थापित करने में अपनी उम्र भर की विश्वसनीयता झोंक रहे हैं, उसके खिलाफ विरोध के स्वर तो उठने ही थे…पत्रकारिता के नाम पर मुनाफखोरी में दोनों बराबर के साझेदार हैं…
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प्लांटवादी पत्रकारिता पत्रकारों का इस्तेमाल मशीन के कलपूर्जों की तरह करती है…जब तक कलपूर्जों के रूप में पत्रकार की उपयोगिता प्लांट में है तब तक रखते हैं, जरा सा खर्रखुर करने पर निकला फेंकते हैं और उनके स्थान पर दूसरे पत्रकारों को फिट कर देते हैं…इस तरह से प्लांट चलता रहता है..खबरों की कांट छांट और नक्काशी करने वालों को इस सिस्टम में तरजीह देता है…लेकिन बौद्धिक स्तर पर उन्हें कुछ भी सोचने की इजाजत नहीं होती है….पत्रकार पूरी तरह से मैकेनिकल हो जाते हैं…और इसे ही पत्रकारिता की हकीकत मान लेते हैं..पत्रकारिता की तमाम बातें कंप्यूटर की खटपट में गुम हो जाती है, जैसे कंप्यूटर और कैमरा के आने के पहले पत्रकारिता थी ही नहीं….प्लांटवादी पत्रकारिता में पत्रकारिता पर मशीन हावी हो गया है…जो मशीन को सही तरीके से हांक सकते हैं वे भी काबिल पत्रकार के रूप में शुमार होते हैं….प्लांटवादी पत्रकारिता में बेहतर पत्रकार बनने की पहली शर्त है बेहतर मशीन बनना और मशीन की गति के साथ खुद को चला पाना…प्लांटवादी पत्रकारिता सही मायने में प्रखर पत्रकारों को हतोत्साहित कर रही है….पूंजी इनवेस्टमेंट और प्रॉफिट इसका मूलमंत्र है….प्रॉफिट की हवश दिन प्रति बढ़ती ही जा रही है….दुनिया भर के तमाम प्रोडक्ट्स प्लांटवादी पत्रकारिता के पोषक हैं…विज्ञापनों के रूप में ये प्लांटवादी पत्रकारिता को खाद्य और पानी मुहैया कराती है…और जो पत्रकार इनकी राह में बाधा बनते हैं या फिर इनसे इतर सुर बघारते हैं उन्हें पत्रकारिता के बाजार से आउट कर देती है….क्रिकेट, क्राइम और सिनेमा प्लांटवादी पत्रकारिता के मुख्य विषय है…जनसरोकारों वाली खबरों की तरफ तब तक देखना तक गंवारा नहीं समझते जब तक लोग सड़कों पर उतर हंगमा नहीं काटने लगते…इन्हें फिल्मी तर्ज पर एक् शन चाहिए, अंदर खाते प्लांटवादी मानसिकता वाले पत्रकार सियासतदानों के हरम में लौंडा नाच भी खूब करते हैं….
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सीएनएन आईबीएन 7 के सामने प्रदर्शन इस बात का संकेत है प्लांटवादी मशीनी पत्रकारिता के खिलाफ दशकों चला आ रहा खामोशी का दौर टूट चुका है…पत्रकार अब ह्यइस्तीफे की चाबुकह्ण का जवाब देने की अदा सीख रहे हैं….मिस्टर आशुतोष और राजदीप आपकी नफासत भरी मक्कारिता का जबाव पूरी नजाकत से दिया जा रहा है और आगे भी दिया जाएगा…इस बात का अहसास आपको भी हो जाना चाहिए…खुद को ब्रांड के रूप में खड़ा करके जो भीमाकार रुप आपने अख्तियार कर रखा है, उसकी हवा तो निकल ही गई है….यकीन नहीं आता तो कांच के कमरे से बाहर निकलने की जहमत उठाइये…फिजां बारुदी हो चुका है…आपका छल और आपकी मक्कारी की चर्चे कम से कम पूरे मुल्क में हर गली चौराहों की चाय की दुकानों में पत्रकारो की बैठकों में खूब हो रही है….यकीन मानिये आज पत्रकारिता की दुनिया में आपकी मकबूलियत खत्म हो चुकी है….अब आप महज कॉरपोरटे मैनेजर हैं, आपके शब्दों की धमक खत्म हो चुकी है…अब आपको कूड़ेदान में फेंकने की तैयारी है….डस्टबीन में….वही आपके लिए मुफीद जगह है….यह निर्णय इतिहास का है…बस अब आप इंतजार किजीये….तमाशा अभी बाकी है…..आफ्टर ब्रेक….वक्त का पहिया चलता रहेगा…
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प्लांट में लगने वाली लागतों की एवज में अधिक से अधिक मुनाफा हासिल करने के लिए प्लांटवादी मीडिया ‘प्रखर वैचारिकता’ को बुरी तरह से कुचलने की नीति अख्तियार करता है…और यह काम वह उन संपादकों की मदद से करता है जिन्होंने लंबे समय तक पत्रकारिता में रह कर बड़ी मेहनत से अपनी साख बनाई है…ऐसे संपादक पत्रकारिता के क्षेत्र में उन विचारों को गढ़ने का काम करते हैं जो प्लांटवादी मीडिया के मुनाफे के लिए मुफीद होती है…इस ट्रेंड की शुरुआत मनमोहन सिंह की नई उदारवादी नीतियों के लागू होने के साथ ही हो गई थी..अब यह अपनी गहरी पैठ बना चुकी है…और इसका भयानक चेहरा सामने आ रहा है…प्लांटवादी मीडिया ने संपादकों की एक नई फसल पैदा की है, जो खबरों खबरों के चयन से लेकर उनके प्रकाशन -प्रसारण में इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि बाजार में प्लांट अपनी हितों को साधता रहे…राजदीप और आशुतोष प्लांटवादी मीडिया की लेबोरेटरी में लिटमस पत्र के रूप में ले सकते हैं…इन लोगों ने अपने समय की बेहतरीन पत्रकारिता की है, इसमें कोई दो राय नहीं है…जिस स्थान पर ये लोग आज पहुंचे हैं इसकी लिए कड़ी मेहनत की है…प्लांटवादी मीडिया ने इनके सामने न सिर्फ सुविधाओं का अंबार लगा दिया बल्कि धीरे-धीरे इन्हें भी मुनाफा में शरीक होने के लिए तैयार कर लिया…कब और किस मोड़ पर इनका सुर बदला इन्हें भी पता नहीं….अब ये पूरी तरह से प्लांटवादी मीडिया के प्रखर नुमाइंदे बन चुके हैं….इनकी चुप्पी बता रही है कि प्लांटवाद के जिस विचारधारा को ये लोग धीमी जहर की तरह पत्रकारिता जगत में फैला रहे थे उसका भेद अब खुल चुका है..दौलत के अंबार पर बैठकर पत्रकारिता के अलग जगाने की चमक खुद ब खुद फीकी हो चली है….पत्रकारिता की जिस जमीन पर ये खड़ा है वह इनके लिए कब्रगाह बनता जा रहा है…और अब इस गुमान में न रहे कि पत्रकारिता आने वाली नस्ले इन्हें ‘रोल मॉडल’ के रूप में याद करेगी…समय चक्र तस्दीक कर रहा है पत्रकारिता की प्लांटवादी विचारधारा और मैकेनिज्म के साथ आप कब्र की राह पकड़िये…आपके लिजलिजे विचारों के लिए वही मुफीद जगह है….और हां तमाम छल प्रपंच मक्कारी से आपको फुसर्त मिले और आपको ईश्वरीय न्याय में यकीन हो तो एक सवाल खुद से जरूर किया किजीएगा कि कयामत के दिन आप अल्लाह को क्या जवाब देंगे….वैसे मैं तो यही कहूंगा कि ईश्वर आपको लंबी उम्र बख्शे ताकि आप यह देख सके कि कैसे आपकी प्लांटवादी विचारधारा की होली जलती है…एक बात और भले ही आप अपने आप को बहुत सयाना समझे लेकिन आपका इस्तेमाल प्लांटवादी पत्रकारिता के मॉडल को इजाद करने वाले तथाकथित पूंजी तबका बखूबी कर रहा है…आपकी लोकप्रियता तो चूल्हें में चली ही गई है, नोएडा में होने वाली शक्तिशाली प्रदर्शन की शुरुआत से अब तक इस बात का यकीन तो आपको हो ही गया…यदि अभी भी मुगालते हैं तो थोड़ा और इंतजार कर लिजीये…आपकी प्लांटवादी विचारधारा और मैकेनिज्म को कब्र में पहुंचा कर कील ठोकने का काम जारी है….प्लांटवादी पत्रकारिता के पोषक बनकर भले ही अपने दौलत हासिल कर ली हो, लेकिन अब आपकी स्थिति चूसे हुये पके आम की तरह हो गई है…आपके व्यकित्व से पत्रकारिता की मिठास गुम हो गई है….