“एक-एक करके दर्जनों दुल्हनें बना डालीं ”
एक बार फिर डा. उत्तमा दीक्षित को उनकी अदभुत इच्छा शक्ति, लगन, और मेहनत के लिए एक जोरदार सैल्यूट मारते हुये पेश है उनकी कहानी उन्हीं की जुबानी ।
उम्मीद अभी बाकी है…
डा. उत्तमा दीक्षित, एसिसटेंट प्रोफेसर (फैकेल्टी आफ विजुअल्स आर्ट्स, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय)
चुनार सीमेंट फैक्टरी के परिसर में बहुत सामान्य सा घर था मेरा। चिकित्सक पिता और शिक्षिका मां की अकेली कन्या संतान हूं मैं। दो भाई हैं मेरे, दोनों छोटे। जन्म हुआ तो घर में बहुत खुशियां नहीं मनाई गईं बल्कि पापा तो दुखी ही हुए। पापा शायद बेटी की जिम्मेदारी से डर गए थे। मम्मी अनुशासन पसंद और सख्त नेचर की थीं, मुझे यह बुरा लगता। मम्मी-पापा दोनों महत्वाकांक्षी थे। वह आगे बढ़ते रहना चाहते थे। मम्मी खुद भी पढ़ रही थीं और पापा अपनी प्रैक्टिस इस्टैब्लिश करने में जुटे थे। दोनों जीवन के संघर्ष में ही व्यस्त थे, उन लोगों के पास मेरे लिए समय नहीं था। फैक्टरी के स्कूल में ही मेरा दाखिला करा दिया गया क्योंकि मम्मी वहीं टीचर थीं।
पढ़ने-लिखने में शुरू से ही मेधावी थी मैं। क्लास में मैं पतली-दुबली और छोटी लगती जबकि मेरी सहेलियां बड़ी और मोटी। जो पढ़ाया जाता, तुरंत याद कर लेती। घर लौटकर मम्मी पूछतीं तो एक-एक करके सभी पीरिएड्स की पढ़ाई सुना देती। पापा खुश होते। रोजाना कहते- अनामिका तुम बस, इसी तरह पढ़ना और डॉक्टर बनना।
कला तो मेरे मन में कहीं भी नहीं थी, लेकिन पांचवीं क्लास की एक घटना मुझे कला की ओर ले आई। मास्टर जी ने पूरी क्लास को पेपर पर दुल्हन पेंट करके लाने का होमवर्क दिया। मास्टर जी गणित के थे, लेकिन उन्हें जिम्मेदारी कला पढ़ाने की भी दे दी गई थी। वह खुद भी कला नहीं जानते थे, प्रयास में रहते कि जल्दी पीरिएड खत्म हो और बला टले। मेरी सहपाठी शीला की बनाई दुल्हन की मास्टर जी ने जमकर तारीफ की। मुझसे कहा कि तुमने भी अच्छी बनाई है लेकिन देखो, शीला की दुल्हन कितनी सुंदर है। रंगों का कितना अच्छा प्रयोग किया है उसने। रंग खिले-खिले हैं। टीचर की बेटी हो तुम्हें तो हर काम में आगे रहना चाहिये। मुझे याद है कि यहीं मेरे मन में पहली बार किसी के प्रति ईर्ष्या जागृत हुई। घर आई, खूब रोई और लगी बैठकर कागज पर दुल्हन बनाने। एक-एक करके दर्जनों दुल्हनें बना डालीं। मास्टर जी की शाबासी लेकर ही मानी मैं।
इसके बाद आर्ट भी मेरे पसंदीदा विषयों में शुमार हो गया। घर में हालांकि जोर विज्ञान के विषयों पर था। पापा चाहते थे कि कैसे भी करूं, मुझे डॉक्टर बनना ही है। भाइयों से बड़ा होने के कारण मेरी जिम्मेदारियां अधिक थीं। मम्मी स्कूल जातीं तो समय निकालकर भाइयों को संभालना भी पड़ता। स्वभाव से जिम्मेदार प्रवृत्ति की थी इसलिये यह काम भी खुशी-खुशी करती। कला के प्रति मेरे मन में दीवानगी पनपने लगी थी। रफ कापियों में पीछे के पेजों पर आर्ट ही आर्ट बनाती। जब मौका मिलता, कोई आकृति उकेर देती। कई बार तो इसीलिये पीटी भी गई। मम्मी-पापा को शिकायत रहती कि मेरा ध्यान बंट रहा है और मैं डॉक्टर नहीं बन पाऊंगी। माता-पिता की उम्मीदों का बोझ क्या होता है, यह अच्छे ढंग से पता है मुझे। इसी बोझ के तले मेरी पढ़ाई चलती रही। विज्ञान विषयों से मैंने हाईस्कूल में फर्स्ट डिवीजन पाई। उधर, उत्तर प्रदेश सीमेंट कारपोरेशन की चुर्क, चुनार और डाला तीनों फैक्टरियों में समस्याएं आने लगी थीं। कर्मचारियों और उनके परिवार मुश्किल में आ गए थे। मैं बायो ग्रुप के विषयों से इंटर में पढ़ रही थीं। लड़कियों के लिए तो सुरक्षा का भी मुद्दा था। लड़कियों-महिलाओं से घर में घुसकर अभद्रता का खतरा महसूस होता था, इसलिये एक्जाम खत्म होते ही मुझे चुनार से करीब 25 किमी दूर नानी के गांव भेज दिया गया। इंटरमीडिएट में भी मैं अव्वल रही।
इसके बाद तो पापा का दबाव और बढ़ गया। बीएचयू में मेडिकल एंट्रेंस एक्जाम के लिए न्यूनतम जितनी उम्र जरूरी थी, मैं उससे कुछ महीने कम की थी। मुझे एक साल तैयारी करके अगले साल यह एक्जाम देने का हुक्म हुआ। मम्मी ने कहा कि एक साल है, चाहे तो कोई और एंट्रेंस एक्जाम दे लो। मेरे मौसा जी उस समय बीएचयू में रिसर्च कर रहे थे। उन्होंने समझाया कि किसी प्रोफेशनल सब्जेक्ट से ग्रेजुएशन करो। कला में रुझान है तो क्यों बीएफए का एंट्रेंस एक्जाम नहीं दे देतीं? तब भी बड़ा कठिन होता था बीएफए का एंट्रेंस एक्जाम। मैंने दिया और पास हो गई। मुझे खुद आश्चर्य हुआ कि एक्जाम में तो वह स्टूडेंट भी बैठे थे, जिन्होंने इसके लिए पहले से तैयारियां की थीं। इतना आसान नहीं था बीएचयू में पढ़ना। घर दूर था, रोजाना आना-जाना मुश्किल था।
मैं बेहद संकोची और सरल-सीधी थी। हीन भावना का जल्द ही शिकार हो जाती। मां ही मेरी अकेली दोस्त थीं। संसाधन सीमित थे और बेटी की वजह से मेरे लिए तो और भी न्यूनतम। मुझे हास्टल मिल गया। उधर, चुनार में अब भी आतंक का माहौल था। लोग पलायन कर रहे थे, पापा की प्रैक्टिस भी कम हो गई थी। मम्मी की नौकरी खतरे में थी। मुझे अल्टीमेटम दे दिया गया कि खर्च घटाओ। मैं उपलब्ध कपड़े ही रिपीट करके पहनती। शनिवार को खाना नहीं खाती कि घर जाना है और सोमवार को पूरे दिन खाने की छुट्टी इसलिये रहती कि घर से खाकर आई हूं। हफ्ते में एक दिन दोनों टाइम मैस का खाना नहीं खाती और भूखी रहती। बाजार से आर्ट का काम लेकर आती और बनाती। हालांकि यहां धोखा भी खूब मिला। पेमेंट बहाना बनाकर या तो नहीं दिया जाता या मिलता भी तो बेहद कम। मुझे मेरी अकेली दोस्त मम्मी की बीएचयू में खूब याद आती। शनिवार को क्लास अटेंड करते ही चुनार के लिए निकल जाती। इसी तरह चलती रही बीएफए की पढ़ाई।
पढ़ाई चल रही थी, तभी पापा को सूझ गया कि अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पाएं। इधर-उधर दौड़-धूप शुरू हो गई। लेकिन लगता नहीं था कि यह कवायद मेरा बहुत अच्छा करने के लिए हो रही है, प्रतीत होता कि यह जिम्मेदारी से किसी भी तरह मुक्त हो जाने की मशक्कत है। मुक्ति मिल ही गई, पर मेरी अच्छी किस्मत ने यहां काम किया। पराए घर को अपना बनाने में आम भारतीय लड़की से ज्यादा मुश्किलें आईं, लेकिन उसमें मेरा अपना स्वभाव भी दोषी था। मैं ज्यादा भावुक और महत्वाकांक्षी थी। इसी बीच हम लोगों ने अच्छा मुकाम पाने की कोशिश करने के लिए घर छोड़कर पढ़ने का फैसला किया। मुश्किल फैसला था, यह कुछ ही दिन में पता चल गया। हम दोनों पढ़ रहे थे। साथ में मैं काम भी करती कि किसी तरह जिंदगी पटरी पर आ जाए। ईश्वर ने बहुत देर की सुनने में।
हर तरह के कष्ट से मेरा सामना हुआ लेकिन हर बार जीतती मैं, मेरा हौसला काम आता। पति मदद करते। एमएफए के बाद पीएचडी करने की ठानी। राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) एक ही प्रयास में पास कर ली। लेकिन इसी बीच किस्मत ने पलटा खाना शुरू कर दिया। उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा आयोग ने लेक्चरर पद के साक्षात्कार का बुलावा भेज दिया। मैं खुश थी, करीब महीनेभर के
बेसब्र इंतजार के बाद दौड़कर इलाहाबाद पहुंच गई और चुन भी ली गई। पर खुशियां इस बार भी तत्काल नहीं आईं। उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा निदेशालय से कानपुर के जुहारी देवी कन्या पीजी कॉलेज में प्लेसमेंट मिला। वहां पहुंची तो पोस्ट विवादित थी। प्रबंध तंत्र ने ज्वॉइन ही नहीं कराया। लंबी लड़ाई के बाद बमुश्किल आगरा कॉलेज में नियुक्ति के लिए पत्र मिल गया। थोड़ी मुश्किलों के बाद उत्तर भारत के इस बेहद प्रतिष्ठित पीजी कॉलेज में ज्वॉइनिंग हो गई। यह लंबी और हताशा भरी लड़ाई का सुखद अंत था।
कानपुर के बजाए आगरा में नौकरी मिलना मेरे लिए भाग्य खुलने जैसा था चूंकि आगरा दिल्ली के करीब है और दिल्ली में कलाकार के करने के लिए बहुत-कुछ है। नौकरी मिलने के सुकून का आनंद लेने के कुछ महीने बाद मैं सक्रिय हुई औऱ लगाने लगी दिल्ली की दौड़। तमाम गैलरीज़ से संपर्क स्थापित किया। इसका लाभ मिलने लगा। लेकिन स्वभाव के मुताबिक कुछ और महीने बाद असंतुष्ट रहने लगी। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की छात्रा रही थी इसलिये वहां नौकरी करने की इच्छा बलवती होने लगी। नजरें अखबार पर रहती, साथ ही बनारस में अपने पुराने मित्रों और शिक्षकों से संपर्क भी कायम रहता।
एक दिन पता चला कि बीएचयू के चित्रकला विभाग में लेक्चरर की पोस्ट विज्ञापित हुई है। पोस्ट एक ही, उम्मीदवार हजारों में। मैंने आवेदन करने में जरा भी देर नहीं की। बीएचयू में चयन बेहद मुश्किल था, लेकिन मैं पूरी तरह अर्ह थी। नेट के साथ पीएचडी संपन्न हो चुकी थी। इंटरव्यू के लिए स्क्रीनिंग हुई। कई बड़े नाम स्क्रीनिंग में ही निबट गए। मैं इंटरव्यू तक पहुंची और चुन ली गई। पांच साल तक आगरा कालेज में लगातार सेवाएं करने के बाद नवम्बर 2007 में मैंने यहां ज्वॉइन कर लिया। यह सपने के सच होने जैसा था। बीएचयू मेरे लिए सौभाग्य की बात है लेकिन देश की सांस्कृतिक राजधानी होने के बावजूद बनारस में कला के लिए वो बात नहीं है, जो मेट्रो शहरों में होती है। कलाकार के लिए हर कदम पर संघर्ष है यहां। ऐसे में लगातार कोशिश है कि शिक्षा के क्षेत्र में नाम कमाने के साथ कला में भी मेरा झंडा बुलंद हो। मैंने अब भी नहीं माना है कि लड़ाई खत्म हो गई। निरंतर प्रयास में रहती हूं। कोई काम छोटा मानकर नहीं छोड़ती। कोई साथ दे या न दे, मैं चलती रहती हूं।
अपनी फील्ड और काम के साथ अखबारों से लेकर इंटरनेट तक लगातार सक्रिय हूं। लक्ष्य और आगे बढ़ने का है, बढ़ते रहने का है। ईश्वर पर भरोसा है,
उम्मीदें हैं और उम्मीदों पर ही तो दुनिया कायम है।
हारने का अहसास होने पर भी रुकती नहीं हूं
दो दिन पहले की बात है, स्वभाव के अनुरूप अतीत में खो गई। हालांकि अपने एक शिक्षक की बात भी याद थी, जो कहते थे कि भूतकाल भूत की तरह होता है जितना पीछे भागोगी, उतना ही परेशान करेगा। लेकिन यदि भूतकाल भी भूल गए तो कैसे पता लगेगा कि कामयाबी कितनी मिली? कैसे चखेंगे उसका मजा? कैसे करेंगे मूल्यांकन कि कमी कहां रह गई? कमी पता नहीं चलेगी तो कैसे उसे दूर करके आगे का रास्ता तय होगा? मेरी कामयाबी का यही मंत्र है। मैं सफलता के पीछे भागती हूं। कभी लगता है कि हार जाऊंगी तो भी रुकती नहीं, कि चलो अनुभव तो मिलेगा जिससे आगे गलती न हो।
यहां देखिए मेरी पेंटिंग्सः-
http://picasaweb.google.com/uttama.dixit
यह मेरा ब्लॉग हैः-
http://kalajagat.blogspot.com/
संपर्क – cell-+919793331447
email– uttama.dixit@gmail.com
Aapko salaam uttama ji. Aapki kahani dil ko chhoo gayi.
Great..!The land of Gargi has always been fertile.We have always had examples like you, people like you, who have proved the soceity wrong by proving them right. I salute your fight, your painstaking journey, your life.
Let me wish loads of luck for your life ahead.
उत्तमा जी, आपको कामयाबी की बधाई। निश्चित रूप से आपका काम मुझे अन्य तमाम कलाकारों से बहुत बेहतर लगता है। आपकी प्रसिद्धि चरम की ओर बढ़ रही है। कृपया मेरी बधाई स्वीकार करें।
क्या बात है उत्तमा जी। सच्चे मायने में आप कामयाब हुई हैं। आपने चूंकि ईमानदारी से लड़ाई की इसलिये आगे भी जीतती रहेंगी। कला के जटिल जगत में इस तरह की सफलताएं स्वागत और दिल से असीम बधाइयों के योग्य हैं।
good, i also salute you uttama ji. keep it up.
uttama ji, Great!
uttama, great.
उत्तमा जी। आपने एक बार फिर साबित कर दिया है कि जो फल मेहनत से प्राप्त किया जाता है, वह ज्यादा मीठा होता है। मेरी बधाई आपको।
उत्तमाजी, कला से पेशेगत रुप से जुडाब नहीं होने के बावज़ूद कला में दिलचस्पी है……आपकी कूची का फलक प्रशंसनीय है । मेरी समझ में कलाकार का मन भावनात्मक रुप से संवेदनशील होता है ……फिर भी जरूरी समझ कर कुछ कहना चाहता हूँ ……आपके चित्रों में और भी विविधता हो तो अच्छा है ।
I too feel the same way. Its very natural and welcome for a woman to speak for women.Most of her paintings appear doing the job seriously.She is specialist in the areas like woman liberation. That seems to be her forte.
But Seeing the talent she has, She can try painting other subjects too.Lets hope she brings some variety too.
namaste mam main amit jisne apko phone kiya tha krapaya aap mujhe notes meri email id par bhej de
MADAM JI,
NAMASTE
YE PADH KAR MERA ROM ROM KANP UTHA
THANKS