सही आकलन और जरूरी एहतियात के अभाव में हुआ ‘इलाहाबाद प्लैटफार्म हादसा’

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रेलवे अधिकारी और स्थानीय प्रशासन यदि थोड़ी सी सूझ-बूझ से काम लिए होते तो इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर हादसा पेश नहीं आता। मौनी अमवस्या पर करोड़ों श्रद्धालुओं के आने का अनुमान पहले से ही था, स्वाभाविक है कि इंतजामात भी इस हिसाब से होने चाहिए थे। श्रद्धालुओं को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए एक मास्टर प्लान की तो दरकार थी ही, साथ में अचानक पेश आने वाले हादसों को भी पहले से ही टटोल लेना चाहिए था। लेकिन जिस तरह से लोगों को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया उससे स्पष्ट होता है कि स्थानीय प्रशासन से लेकर रेलवे प्रशासन तक का तमाम अमला जेहनी और अमली तौर पर इस हादसे के लिए तैयार नहीं था। और अब जब यह हादसा पेश हो चुका है और प्रशासनिक बदइंतजामी का शिकार होकर करीब 36 लोग अपनी जान गंवा चुके है और सैकड़ों बुरी तरह से घायल हैंं सूबे और केंद्र की सरकारें अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ते हुये एक दूसरे पर दोषारोपण करने में लगी हुई हैं। मतबल साफ है कि इस हादसे से वे अभी भी कुछ सीखने के लिए तैयार नहीं हैं। बेशर्मी की इंतहा को पार करते हुये उनकी कोशिश तो बस यही है कि किसी तरह से इस हादसे की दाग उनके दामन पर न आये।
चूंकि यह घटना इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर घटी, इसलिए निसंदेह पहली जिम्मेदारी रेलवे की बनती है। अव्वल प्लेटफार्म पर बढ़ती अपार भीड़ को रेलवे स्टेशन परिसर में दाखिल होने से पहले ही रोका जाना चाहिए था। भीड़ की आमद को देखकर ही रेलवे अधिकारियों को सतर्क हो जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। भीड़ बढ़ती गई और अधिकारी हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहे। इतना ही नहीं अंतिम पहर में एक निर्धारित ट्रेन को दूसरे प्लैटर्फाम पर आने की सूचना देकर उन्होंने विधिवत इस हादसे को न्योता दिया। यह ट्रेन पहले जिस प्लैटफार्म पर आने वाली थी वहां पहले से ही हजारों की संख्या में लोग अपने सामान के साथ खड़े थे। अंतिम पहर में जब उन्हें सूचना मिली कि ट्रेन किसी और प्लैटफार्म पर आ रही है तो अचानक पूरा रेला फुटब्रिज की ओर लपका। और फिर देखते ही देखते फुटब्रिजी पर ठसम-ठस भीड़ हो गई। इस स्थिति से निपटने के लिए कारगर कदम उठाने के बजाय रेलवे पुलिस ने परंपरागत तौर पर अपनी लाठियों पर ही यकीन किया। लाठियों के प्रहार से भगदड़ मची और देखते-देखते चारों तरफ चीख पुकार मच उठी और लोग मौत के मुंह में समाने लगे और। खुद को बचाने के लिए लोग एक दूसरे को रौंदते हुये निकलने लगे। यदि रेलवे पुलिस इस भीड़ को लाठी से हांकने के बजाय कोई और तरीका अपनाती तो यह हादसा कम से कम इतने भयानक शक्ल में पेश नहीं आता। रेलवे पुलिस की भूमिका प्रश्न उठना लाजिमी है।
आमतौर पर किसी भी भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस के पास बस एक ही फार्मूला होता है, लाठी चलाना। जरूरत है भीड़ की शक्ल और मनोविज्ञान के मुताबिक देश के तमाम पुलिस बल को नये सिरे से प्रशिक्षण देने की। इलाहबाद के प्लैटफार्म पर जुटी भीड़ कोई हिंसक भीड़ नहीं थी, किसी ऐजेंडे को लेकर वे प्रदर्शन करने के लिए इलाहाबाद के प्लेटफार्म पर नहीं जुटे थे। उनका मकदस था मौनी अमावस्या के मौके पर संगम में डुबकी लगाकर पुण्य बटोरना। इस भीड़ महिलाओं और बच्चों की संख्या भी अधिक थी। ऐसे में पुलिस द्वारा लाठी चलाना किसी भी मायने मेंं उचित नहीं था। इस तरह की स्थिति का आकलन करके यदि खासतौर पर प्रशिक्षित पुलिस वालों को इलाहाबाद के प्लैटफार्म पर तैनात किया जाता तो देश को इस भयानक मंजर से रू-ब-रू नहीं होना पड़ता। भीड़ को नियंत्रित करने का पारंपरिक पुलिसिया अंदाज से परहेज करने की जरूरत थी। इसके लिए यह जरूरी था कि इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर रेलवे पुलिस का कमान किसी सुलझे हुये दूरदर्शी पुलिस अधिकारी के हाथ में होता, जो भीड़ की शक्ल और मनोविज्ञान के मुताबिक उन्हें हैंडल करता, न कि डंडों के सहारे।
स्थानीय स्तर पर कुंभ मेला के प्रभारी आजम खान भी श्रद्धालुओं को सही तरीके से संचालित करने में पूरी तरह से नाकाम रहें। मौनी अमावस्या के दौरान संगम के तट पर भी सूबे की पुलिस को श्रद्धालुओं को नियंत्रित करने के लिए कई बार लाठियां चलानी पड़ी थीं। आजम खान को उसी समय समझ जाना चाहिए था कि यदि इस भीड़ को पूरी कुशलता से यहां से निकला गया तो आगे कोई भी हादसा पेश हो सकता है। स्थानीय पुलिस का पूरा जोर इस बात रहा कि प्रयाग के तट से जल्द  से जल्द लोगों को हटाया जाये। आजम खान ने यह सोचा ही नहीं कि यह भीड़ आगे जाकर जब रेलवे स्टेशन पर जमा होगी तो क्या मंजर पेश आएगा। जरूरत थी रेलवे के अधिकारियों के साथ तालमेल स्थापित करके इस भीड़ को को टुकड़ों में विभाजित करके जहां तहां रोकने की ताकि रेलवे स्टेशन पर अचानक श्रद्धालुओं का दबाव नहीं बढ़े। आजम खान स्थिति का आकलन करने मे नाकाम रहे। अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार करते हुये उन्होंने कुंभ मेला के प्रभारी पद से इस्तीफा तो दे दिया है, लेकिन उनकी नाकामी की वजह से अखिलेश सरकार कठघरे में खड़ी हो गई है।
रेलमंत्री पवन बंसल भी इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि उन्हें इस बात का अनुमान नहीं था कि इतनी भीड़ होगी। अब सवाल उठता है कि क्या रेलमंत्री कुंभ की महत्ता से वाकिफ नहीं है? कुंभ में डुबकी लगाने के लिए न सिर्फ देश के कोने कोने से श्रदालु आते हैं, बल्कि बहुत बड़ी संख्या में विदेशी भी प्रयाग में डुबकी लगा कर अपने को धन्य करते हैं। ऐसे में यदि पवन बंसल श्रद्धालुओं की संख्या का सही अनुमान नहीं लगा पाये तो निसंदेह यह उनकी नाकामी है। ऐस मौको पर जरूरत थी भीड़ का सही अनुमान लगाकर ट्रेनों की संख्या में इजाफा करना, ताकि लोग ज्यादा देर तक प्लेटफार्म पर टिके न रहें। स्थानीय प्रशासन से लेकर लेकर रेलवे प्रशासन की बदइंतजामी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हादसे के बाद घायलों को अस्पताल पहुंचाने के लिए न तो एंबुलेंस था और न ही स्ट्रेचर। अपने स्तर से परिजन घायल पड़े चीखते चिल्लाते लोगों को कपड़ों में समेट कर उठा रहे थे। बहरहाल इस हादसे ने सूबे की अखिलेश सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार को कठघड़े में कर दिया है। यह सवाल उठना लाजिमी है कि आस्था से जुड़े इस तरह के आयोजन को लेकर तालमेल के साथ ब्लू प्रिंट पर मेहनत पर मेहनत क्यों नहीं की जाती है? ऐसे मौके पर मानवीय चूक से होने वाले हादसों को रोकना का एक मात्र तरीका है, सही आकलन और जरूरी एहतियात।

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  1. रेलवे ने मारकीन के थान मगा कर रखे हुये थे। वे जानते थे कि हादसा होगा और मौतें होंगी तब शवों हेतु यह मारकीन काम आएगा। ग्रह-योग जन संहार की ओर संकेत कर रहे थे। जब ‘ढोंग-पाखंड-आडंबर’को धर्म मान कर पूजा जाएगा तो ऐसे हादसे होना लाजिमी ही है।
    ‘मन चंगा तो कठौती मे गंगा’। ,’नदियों मे स्नान करना मूढ़ता है’। जब संत रेदास और महात्मा बुद्ध के अमर वाक्यों की उपेक्षा करेंगे तो हादसों को ही न्यौता देंगे।

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