कभी बक्सर तक शासन था हमारा
आजमगढ़ — वैभवशाली इतिहास बेबसी भरा वर्तमान भारत वर्ष अपनी विविधताओं के साथ अपना गौरव शाली इतिहास को समेटे रखे हुए है जब भी आप इसके किसी भी पन्ने को खोलेंगे तो —-
दरकते हुए पांडूलिपियों के पन्ने अपने आप फड़फड़ा कर अपने इतिहासों के हर पन्ने को आपके सामने खोलता चला जाएगा। ऐसा ही है हमारे आजमगढ़ के इतिहासों में यहाँ बहुत कुछ हुआ है जहां एक ओर हमारे इतिहास का उज्जवल पन्ना है वही पे कुछ ऐसे भी पन्ने शामिल है जिनका वर्णन करना उचित न होगा। आजमगढ़ अपने उन इतिहास के पन्नो पर अपनी वीरता कर्मठता देश भक्ति और राजसी आनबान शानो शौकत को भोगा है वहीं आज अपनी त्रासदी को चुपचाप मौन देख रहा है। आजमगढ़ के ऐतिहासिक और पौराणिकता में इसे स्थापित किया। वहीं हमारा इतिहास बताता है कि कभी बक्सर तक फैली थी मेहनगर राज्य की सीमा मेहनगर और इसके सटे तहसील लालगंज की जमीन अपने में ऐतिहासिकता और वीरता पूर्ण कहानियों को जन्म देती आई है। मुख्यालय से 30 किलोमीटर पर स्थित मेहनगर आजमगढ़ का नाभि — नाल से जुडा हुआ है 16 वी शदाब्दी के उत्तरार्ध दिल्ली पर मुग़ल बादशाह जहागीर का शासन था 1594 ई में युसूफ खा जौनपुर के सूबेदार नियुक्त हुआ। तब यह इलाका जौनपुर सूबे में ही आता था। फतेहपुर के समीप के राजपूत चन्द्रसेन सिंह के पुत्र अभिमान सिंह उर्फ़ अभिमन्यु सिंह जहागीर की सेना में सिपहसालार थे। उन दिनों जौनपुर सूबे के पूर्वी हिस्से में काफी असंतोष फैला हुआ था। जहागीर ने यह जिम्मेदारी अभिमन्यु सिंह को सौपा वहां की देख रेख करने को अभिमन्यु सिंह ने एक बार नहीं तीन बार वहा के विद्रोह को समाप्त कर दिया। इस कार्य से प्रसन्न होकर जहागीर ने 1500 घुड़सवार और 92.5000 रुपयों के साथ ही जौनपुर राज्य के पूर्वी इलाको के बाईस परगनों को अभिमन्यु सिंह को सौप दिया। इस जागीर को पाकर अभिमन्यु सिंह ने अपना स्वतंत्र जागीर स्थापित किया और मेहनगर को अपना राजधानी बनाया। बाद में अभिमन्यु सिंह ने परिस्थिति वश इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया और उनका नाम दौलत इब्राहिम खा पडा। नि: संतान होने के कारण उन्होंने अपने भतीजे हरिवंश सिंह को अपना राज्याधिकारी बनाया हरिवंश सिंह ने ही मेहनगर का किला बनवाया तथा 20 वर्षो तक राज किया हरिवंश सिंह ने ही हरी बाँध पोखरा , लखराव पोखरा तथा रानी सागर पोखरा बनवाया था | राजा हरिवंश सिंह ने ही अपने चाचा दौलत इब्राहिम खा की याद में 36 दरवाजो वाला मकबरा बनवाया | जो आज भी मेहनगर कस्बे में अपने इतिहास को पुख्ता करते हुए अपने अस्तित्व को बया करती है | यह मकबरा अपने तत्कालीन वास्तु एवं स्थापत्य कला की बेमिशाल कलाकारी का नमूना है। उन दिनों मेहनगर राज्य की सीमा पूरब में बक्सर, पश्चिम में माहुल, दक्षिण में देवगांव, उत्तर में सरजू नदी फैली हुई थी। बाद में हरिबंश सिंह ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। उनके इस्लाम धर्म को स्वीकारने के कारण इनकी पत्नी रानी ज्योति कुवर सिंह अपने छोटे बेटे धरणीधर सिंह को लेकर चली गयी। जिस स्थान पर वे रहने आई। उसी स्थान को आज रानी की सराय के रूप में हम सब जानते है। बाद के दिनों में रानी के बेटे धरणीधर सिंह ने भी मुस्लिम लड़की से विवाह कर के इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया। उन्हीं के दो पुत्रों आजम खां और अजमत खां ने राज्य की बागडोर संभाली। बार बार विशें राजपूतो के विद्रोह को दबाने के लिए आजम खा ने 1665 ई में आजमगढ़ शहर की स्थापना की और यहीं पर अपना किला बनवाया |इसके साथ ही उनके भाई अजमत खा ने अजमतगढ़ को बसाया। उक्त शाही वंश के द्वारा बनवाये गये मकबरे, पोखरे, मंदिर और किला का अस्तित्व खतरे में है। मेहनगर के किले का नामो निशाँन कुछ ही दिनों में मिट जाएगा क्योंकि उस किले की जमीन पर अधिकतर लोगों ने कब्जा करके मकान और जमीन को अपना बना लिया है और ऐतिहासिक पोखरा लखराव आज वो अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रहा है। लगभग बावन बीखे में स्थित लखराव पोखरा मेहनगर ही नहीं वर्ण पूर्वांचल का एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है जो अपने आप में सदियों की परम्परा, संस्कृति, संस्कार का इतिहास छिपाए बैठा है लखराव पोखरा अपने आप में अदभुत है। आज से करीब चालीस वर्ष पहले तक इसके पानी से मेहनगर में रहने वाले लोगों के घरो में इसके पानी से भोजन बनता था वहीं पर वह के मिठाई के दुकानदार उस पानी से छेना फाड़ते थे और मिठाई बनाते रहे है। भयंकर सुखा पड़ने के बाद भी यह पोखरा आज तक कभी सुखा नहीं है। लोगों का कहना है कि इस पोखरे में पानी पाताल पुरी से आता है अगर इस पोखरे में पानी की अधिकता हो जाती है तो यह पोखरा वीरभानपुर, तिसडा, ह्ठौता आदि गाँव से होता हुआ मगई नदी में समा कर गंगा में विलीन हो जाता है। लोगों का कहना है कि जब तक मेहनगर की टाउन एरिया नहीं बनी थी तब तक यह ऐतिहासिक पोखरा अपने अस्तित्व के साथ सारे मेहनगर के वासियों को अमृत प्रदान करता था। टाउन एरिया बनने के बाद से ही यहाँ का एक वर्ग द्वारा दबंगई से उन भीतों पर कब्जा करता चला आ रहा है और तों एरिया मूक दर्शक बनकर देखता रहा है। वहां का सारा प्रदूषित पानी इस पोखरे में आकर मिल जाता है, जिससे इस पोखरे का पानी प्रदूषित हो गया है। कभी इस पोखरे के आमने सामने से मंदिर के घंटियों के आवाज और अजान एक साथ हुआ करते थे पर आज वो आवाजें कहीं गुम हो गयी हैं। अब इस पोखरे के पानी से वजू नहीं होता है पोखरे में अब स्नान करने के लिए भीड़ नही आती है। नब्बे वर्षीय सुरसती देवी अपने अतीत को याद करते हुए कहती है मैं इस पोखरे में आज सत्तर साल से बिना रोक टोक के बारहों मास स्नान करने आती हूँ। पहले कभी यहाँ हर पूर्णमासी को मेला लगता था पर अब सिर्फ विजया दशमी को ही मेला का आयोजन किया जाता है। मनोज कुमार कहते हैं कि अगर प्रदेश सरकार द्वारा डा राम मनोहर लोहिया योजना के अंतर्गत इस लखराव पोखरे का सुन्दरीकरण करा दिया जाए तो इस ऐतिहासिक स्थल को अभी भी बचाया जा सकता है उसकी परम्परा और संस्कृति को कायम रखा जा सकता है। इस पोखरे के भीट पर कई प्रकार के जड़ी बतिया पायी जाती है जो गंम्भीर बीमारियों में औषधि के रूप में प्रयोग की जाती है। आज जरूरत है अपने इस गौरवशाली परम्परा और संस्कृति को बचाने की मेहनगर के सामजिक कार्यकर्ता श्री महेन्द्र मौर्या उर्फ़ बबलू मौर्या कहते है आज हमारे मेहनगर में रहने वाले हर सम्प्रदाय के लोगों का नैतिक कर्तव्य बनता है कि हम अपने ऐतिहासिक लखराव पोखरे को बचाने के लिए संघर्ष करे ताकि हम अपनी ऐतिहासिक धरोहर को बचा सके।
–सुनील दता स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक