कसौटी (कहानी)

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अखौरी प्रभात कुमार सिन्हा.

आज रमेश बाबू के यहाँ बड़े बेटे के रिशेप्सन का धूम धड़ाका है। पंडाल में बिजली की सजी हुई बत्तियां इस प्रकार विद्युति चकाचौंध बिखेर रही हैं मानो पूरा सौर्य मण्डल एक छतरी के नीचे सिमट कर केन्द्रित हो गया हो। पधारे हुए अतिथियों के मुख मण्डल की आभा यूं टपक रही है मानो सूर्य की प्रखर किरणें असंख्य चन्द्रमाओं से सीधे टकरा कर विक्षेपित हो रही हैं। ऐसे में मेजबान रमेश बाबू गर्व से फूले नहीं समा रहे हैं। गर्व भी क्यों न होप्रोमोशन से बने क्लास-2 सरकारी ऑफिसर की इस बड़े शहर में हैसियत ही क्या है कि वो शहर के लब्ध प्रतिष्ठत बुद्दिजीवियों, साहित्यकारों, समाज सेवियों, सरकारी अफसरों एवं यहां तक कि चन्द राजनेताओं की भी मेजबानी करे। अपने मध्यमवर्गीय रिश्तेदारों एवं पड़ोसियों को अपनी एलिमिनेटेड सोशल स्टैन्डर्ड को प्रदर्शित करने का इतना अच्छा अवसर शायद रमेश बाबू को बड़ी मुश्किल से नसीब हुआ था। वरना पड़ोसियों ने उन्हें घर में धोये हुए मलीन कपड़ों में कभी सायकिल तो कभी पुराने मॉडेल की खड़खड़िया स्कूटर पर ही दफ्तर जाते हुए देखा था तो कभी झोले में सब्जी तो कभी गेहूं पिसा कर आटा लाते हुए वर्षों से देखा था। बेचारे करते भी क्या- बचपन में पिता से विरासत में मिली हुई नैतिकता एवं सिम्पलीसिटी उनके सहज गुण जो बन गये थे। सन्तोषी स्वभाव होने के कारण अवसर होते हुए भी नाजायज पैसे कमाने के चक्कर में कभी नहीं रहे। दफ्तर में अड़ियल स्वभाव वालों को ये सब कहां नसीब होता है। इनके पिताजी की आधी जिन्दगी तो स्वतंत्रता संग्राम में गुजर गई एवं आधी जिन्दगी आजाद भारत की सामाजिक एवं राजनैतिक आन्दोलनों के अन्तर्द्वन्द में बीत गई। पीड़ित पत्नी बच्चों के लिये शेष रह गई गरीबी एवं लाचारी। यह विडंबना है कि हमारे समाज में देवी-देवता की मूर्ति स्थापना अथवा मंदिर निर्माण में कुकर्मी भी सन्मार्गी होने का ढोंग रचते हैं परन्तु देशभक्ति एवं राष्ट्र निर्माण में लीन त्यागियों के लिये परिजनों का भी सहारा नहीं मिलता। वे इसे उनका जुनून समझ कर उन्हें अपने हाल पर छोड़ देते हैं।

राष्ट्रहित की दृष्टि रखने वाला क्रान्तिकारी अपने परिवार को भी समाज की एक आम ईकाइ समझने के सिवाय और दे ही क्या सकता है। ये अलग बात है कि बच्चों के चरित्र निर्माण में क्रांतिकारी पिता के द्वारा गांधी के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक दर्शन, नेहरू की लोकप्रियता, सुभाष का साहस, आचार्य कृपलानी की शिक्षा, मालवीय का अनुशासन, शास्त्री की सरलता तथा भारतेन्दु की भारत दुर्दशा पर सृजित साहित्य एवं अनगिनत अंग्रेजी साहित्यकारों की उक्तियों की चर्चा का पूरा प्रभाव रहा। शायद यही कारण था कि गरीबी झेलने के बावजूद रमेश बाबू एवं उनके अन्य भाई-बहनों ने नैतिकता को अभावग्रस्त जीवन से संघर्ष करने का हथियार बनाया जिसके मिश्रित परिणाम हुए।

साधनों के अभाव में बहुत सी इच्छाएं कुंठित हुईं। आज के युग में सरकारी, गैरसरकारी या औद्योगिक इकाइयों के द्वारा सामाजिक सुरक्षा के लिये जो योजनाएं चलाई जा रही हैं वे क्रान्तिकारियों के आश्रितों को कहां नसीब थी। उल्टे घर का आटा गीला होता रहा। स्वतंत्रता सेनानियों के त्याग एवं परिणामस्वरूप उपेक्षित परवारों की दुर्दशा के मूल्यांकन की कसौटी क्या हो सकती थी। नतीजतन महात्वाकांक्षा के लिये रिस्क न लेकर साधारण स्तर की नौकरियों तथा जीविकोपार्जन को ही उन्हों ने प्राथमिकता दे कर व्यवहारिक रूप से अपनाया आज उन्हीं बच्चों में से रमेश बाबू भी एक हैं।

अस्सी के दशक का पैदा हुआ रमेश बाबू का छोटा लड़का सुभाष को ऐसी कड़वी अनुभूतियों से क्या वास्ता वह तो एक सिस्टमेटिक अर्थ व्यवस्था में पैदा हो कर नौजवान हुआ है एवं कोने में आर्केस्ट्रा पर पाश्चात्य गीतों एवं नृत्यों की ऐंकरिंग करते हुए जिन्दगी का आनंद उठा रहा है। हरेक कुण्ठा से दूर हर्षोल्लसित रहना तो इस युवा पीढ़ी का जन्म सिद्ध अधिकार भी है।

उत्तमता से सींचे गये उद्यानों के कुसुम असमय नहीं कुम्हलाते एवं उनकी सुगंध भी दीर्घकालिक होती है। शायद पचास के दशक में पैदा हुए लोगों से आज की युवा पीढ़ी अधिक भाग्यशाली भी है। पंडाल में विभिन्न स्टालों पर सजाए हुए लजीज व्यंजनों की महक ने रमेश बाबू को एक बार फिर से अन्दर की ओर झकझोर दिया एवं बचपन के अतीत में चले गये। कभी एक ही वक्त का भोजन, कभी चहारदीवारी एवं छप्पर से तोड़े हुए तरोई की एक मात्र सब्जी का रात का खाना याद आने लगा तो कभी याद आती थी भादो की काली रातें जब पिताजी की देर रात मीटिंग से लौटने की बाट जोहते घनघोर बारिश में बिजली की कड़क की आवाज से सहमा हुआ बच्चा मां की गोद में आंसुओं की धार पी कर पिताजी की प्रतीक्षा करते करते सो जाया करता था। अभाव के उपवास एवं व्रत के उपवास में बड़ा अन्तर होता है। व्रत के उपवास में आराधना एवं भक्ति जागृत होती है परन्तु अभाव के उपवास में ठीक इसके विपरीत।

बचपन की जिन्दगी की कड़वी सच्चाइयों से लड़ते लड़ते युवावस्था में विवेकानन्द के आध्यात्मिक दर्शन से जागे हुए स्वाभिमान को आत्मसात कर लेना रमेश बाबू के व्यक्तित्व की आखिरी परीणति साबित हुई। धार्मिक दृष्टि से उदारवादी परन्तु स्वभाव से हठ की कमो-बेस मात्रा कहीं न कहीं विद्यमान थी जिसे अन्ततोगत्वा लोगों ने मिश्रित रूपसे इगो की संज्ञा दे डाली। शायद ये सारे गुण आनुवांशिक भी थे।

प्रकाश रमेश बाबू का बड़ा लड़का है जो दिल्ली से उच्च शिक्षा प्राप्त कर मुंबई में एक वर्ष से अच्छी नौकरी कर रहा है। आज जिस नई नवेली दुल्हन के साथ समारोह में आकर्षण का केन्द्र विन्दु बना हुआ है वह उसकी दो वर्ष पहले की दोस्त रही है। कोई नहीं जानता कि इस फैसले के पहले दोनों एक दूसरे को किस हद तक समझे थे एवं यह भी नहीं पता कि वे एक दूसरे के परिवार वालों को ठीक ढंग से जांचे परखे थे कि नहीं। यद्यपि आज की युवा पीढ़ी परिवारों की संस्कृति को जानने समझने की जरूरत नहीं समझते हैं। परन्तु मध्यमवर्गीय परिवारों में शादियां मात्र लड़के-लड़की का ही मेल नहीं कराती है वरन दो परिवारों का भी मेल कराती है एवं संकट की घड़ी में परिवार वाले ही युगल जोड़ी को सहारा देते हैं एवं रिश्तों में दरार पड़ने लगती है तो परिवार वाले ही उन्हें अटूट बन्धनों में बांधे रहते हैं। भारतीय जीवन संस्कृति में पारिवारिक संतुलन एक सरल मार्ग प्रशस्त करता है जिन पर हम जन्म से मृत्यु तक सहजता से सफर तय करते हैं। परन्तु बड़े शहरों की ओपेन सोसाइटी में रहने वाले युवा पीढ़ी को इन पचड़ों में पड़ने की फुर्सत नहीं है।

इन्हीं बातों को लेकर रमेश बाबू उनकी पत्नी कमला, बड़ा पुत्र प्रकाश, छोटा पुत्र सुभाष तथा पुत्री निशा से गहन विचार विमर्श हुआ था। उन दिनों प्रकाश तीन दिन की छुट्टी में घर आया था। शादी के लिए कई रिश्ते आये थे जिन्हें रमेश बाबू इसी विमर्श के लिये लंबित रखे हए थे। रमेश बाबू स्वयं भी दकियानूस विचार धारा के नहीं रहे हैं। उनके विचारों में उदारवाद, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, स्वच्छन्दता, तिलक दहेज के प्रति विरोध आदि प्रचूर मात्रा में विद्यमान है। परन्तु प्राचीन कालीन सामाजिक परम्पराओं के प्रति न कोई रुढ़ीवादी विचारधारा रखते हैं न ही अंधी आधुनिकता बल्कि विकासवाद के सिद्दांत, गुण एवं दोष तथा प्रासंगिकता के आधार पर परम्पराओं का विश्लेषण करने में विश्वास रखते हैं। Self restraint, self preservation and self detention उनके चरित्र निर्माण के सोपान रहे हैं जिसका शतप्रतिशत पालन करने हेतु अभ्यास युवावस्था से ही किया और गृहस्थ जीवन में भी पत्नी के सहयोग से समाज में अच्छी प्रतिष्ठा स्थापित की है। सीमित साधनों में तेती पांव पसारिए जेती लंबी सौर वाली कहावत अपनाते हुए बिल्कुल अपनी प्रकृति के अनुसार ओरिजिनल लाइफ स्टाइल रखे। पहनावा ओढ़ावा एवं रहन सहन के मामले मे यदा कदा पड़ोसियों एवं रिश्तेदारों की कटु आलोचनाओं की तरफ मुड़ कर भी नहीं देखा।

परन्तु इस खुद्दारी एवं स्वाभिमान का प्रभाव वैश्वीकरण के इस आधुनिक युग में पलते- बढ़ते बच्चों पर अवश्य पड़ा होगा। तभी कहीं न कहीं दोनों पीढ़ियों के दृष्टिकोण में मतान्तर की झलक परिलक्षित हो रही है। बच्चे अपने मम्मी-पापा से Eat, drink, and be merry की बात कहते हैं एवं बाजारवाद, आर्थिक उदारीकरण, उपभोक्तावादी संस्कृति की तरफ इशारा करते हुए माता-पिता की आंखें खोलने की कोशिश कर रहे हैं। Open society एवं Free sex आदि को Law of nature के अनरूप justify करते हैं। समाज की रूढ़ीवादी मान्यताओं को Natural Simplicity of Man की अवधारणा का विरोधी बताते हैं।

इन्हीं विचारों के मद्देनजर प्रकाश ने अपने दोस्त सीमा के साथ विवाह करने का प्रस्ताव घर में रखा था। सीमा एक पढ़ी लिखी कैरियरिस्ट लड़की है जो व्यवहार में मुखर है। परन्तु न जाने क्यों आम तौर पर प्राय: लोग इन्ट्रोभर्ट लड़की को ही पसन्द करते हैं। पुरुष प्रधान समाज की आड़ में खुद पुरुषों के अन्दर दबी हुई अवस्था में आत्मविश्वास की कमी ही शायद इस विकृत मानसिकता की जड़ है। उनके अन्त:करण में सम्भवत: एक डर व्याप्त रहता है कि कहीं कोई नारी उनके पुरुषार्थ को चुनौती न दे दे। कहने की बात नहीं है कि एक्स्ट्रोभर्ट एवं चपल लड़कियां भी शिष्ट एवं शालीन होती हैं जिनमें चुनौतियों से लड़ने की प्रबल क्षमता होती है। चपल होने का कतई यह अर्थ नहीं है कि वह सदाचारी नहीं है। सीमा ने भी प्रकाश के बारे में अपने माता-पिता को बता दिया था। परन्तु सीमा के माता-पिता न तो कभी रमेश बाबू से मिलने आये और न ही टेलिफोन पर इस संबंध में कभी बात की। रमेश बाबू मन ही मन इस संबंध के लिए उत्साहित नहीं थे बल्कि उनके मन में एक अदृष्य एवं काल्पनिक भय था कि पता नहीं यह लड़की उनके परिवार वालों को अपना समझेगी या नहीं, पारिवारिक मर्यादा का ख्याल रखेगी या नहीं, सास- ससुर का आदर करेगी या नहीं। यह सच्चाई है क आर्थिक मजबूरियों एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता की प्रबल भावना ने भले ही Small family unit या Nuclear family के रूप में जीवन बसर करने के लिये बाध्य किया हो परन्तु मौका-ब–मौका समय समय पर परिवार के सभी इकाइयों से मिलने-जुलने एवं शादी-विवाह, मरनी-जीनी आदि समारोह में संयुक्त परिवार की तरह संगठित प्रयास से कार्य करने के वे प्रबल पक्षधर थे एवं ऐसा करते भी थे। इसी लिए बहु से भी अपेक्षा रखते थे कि वह परिवार की सभी इकाइयों के लिये भी सर्वमान्य हो। उन्हें इस बात का भी डर था कि यह दोस्ती कहीं दोनों के युवावस्था का सामान्य आकर्षण तो नहीं है, कहीं दोनों ने अपरिपक्व निर्णय तो नहीं ले रखा है। यद्यपि रमेश बाबू प्रकाश के विवेक पर कभी शंका नहीं किये। वे जानते थे कि वह न ही मर्यादाविहीन है, न ही साखर्च है और न ही चरित्रहीन है। फिर भ ये संदेह क्यों? शायद उनकी निगाहें सिर्फ बेटे के अन्दर वात्सल्य ही देख रही थी एवं उसके नवयौवन को अपरिपक्व एवं दुनियादारी से अनभिज्ञ समझ रही थी। परन्तु आदतन बहुत ही संयमित एवं विचारवान थे एवं किसी भी Revolting situation को avoid करने के लिए कृत संकल्प थे। पत्नी से भी बदलते हुए सामाजिक परिवेश में नई दृष्टि डालने के लिए विमर्श करते रहते थे।

प्रकाश ने भी पिता के आदर्शों एवं सामाजिक मानदण्डों का आदर किया था एवं उन्हीं की दहेज विरोधी विचारधारा एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अनुरूप अपने आचरण को जस्टिफाइ करते हुए ऐसा गंभीर प्रस्ताव दिया था। रमेश बाबू को तो बेटे की शादी कहीं न कहीं करनी ही थी एवं बगैर दहेज याचना की ही करनी थी अत: मोटे तौर पर तैयार ही थे। परन्तु मध्यमवर्गीय भारतीय समाज में किसी भी पिता के लिये यह मामला इतना आसान नहीं होता है कि बगैर पत्नी एवं अन्य सदस्यों से विमर्श किये ही ऐसा साहसी कदम उठा लें। लड़के की माँ भी तमन्ना रखती है कि उसके बेटे की शादी खूब धुम-धाम से हो एवं समाज में स्टेटस सिम्बल पर कहीं आंच न आये। परन्तु शादी को बाजारवादी परम्परा के अनुरूप अगर सम्पन्न कराना हो तो उसमें पैसे तो लगेंगे ही। इस परिवार का सामाजिक सम्पर्क इतना व्यापक था कि जैसे-तैसे प्रयोजन करना जगहंसाई को न्यौता देना था। रमेश बाबू थ्री डाइमेन्सनल समस्या से ग्रसित थे। पहला यह कि लड़की के माता-पिता की चुप्पी के कारण रमेश बाबू अगर बात करने की पहल करते तो वह उनके इगो के विरुद्ध था, दूसरा यह कि अगर बेटे की बात टालते तो शायद बेटा विरासत में क्रान्तिकारी आनुवांशिक गुणों के कारण कोई क्रांतिकारी कदम उठा सकता था अथवा अगर पिता की आज्ञा का पालन करता तो वह अन्दर ही अन्दर घुट कर प्रतिकूलता से समझौता करता और तीसरा यह कि अगर पत्नी की बात न मानी जाती तो घर में वातावरण तनावग्रस्त होता एवं जीवनसंगिनी ही आइसोलेटेड एवं डिप्रेस्ड हो जाती और यह रमेश बाबू को कतई मान्य नहीं था। समाज में, रिश्तेदारों में और पड़ोसियों में रमेश बाबू की लोकप्रियता का सारा श्रेय उनकी पत्नी कमला को ही जाता है। एक स्वाभीमानी एवं इगोइस्ट पति का जीवनपर्यन्त साथ निभाते हुए मायका एवं ससुराल दोनों में अच्छा समन्वय स्थापित करना सभी स्त्रियों के बूते की बात नहीं होती। पर कमला ने ऐसा किया। उनके बिना रमेश बाबू शायद अपने गृहाश्रम में कभी सुकून नहीं पा सकते थे। आज रमेश बाबू का गृहाश्रम एक संतुलित, सुनियोजित सुखी संस्था के रूप में देखा जाता है जिसका मुख्य श्रेय कमला जी को ही जाता है। हालांकि यह भी सही है कि लोकतांत्रिक एवं उदारवादी धारा का प्रवाह तथा विचारों की घुलनशीलता ने इस परिवार में अमृत का काम किया है। शायद आधुनिकयुगीन समाज इसी अमृत के लिये तृषित है।

अन्तत: प्रकाश के मम्मी-पापा ने विचार व्यक्त किया कि अच्छा होता कि सीमा अपने माता-पिता से कहती कि वो हमलोगों से आ कर मिलें एवं शादी के हर पहलुओं पर विस्तार से विचार विमर्श कर लें क्योंकि पितृप्रधान देश की प्राचीनतम परम्परा रही है कि लड़की वाले ही लड़के वाले से आकर बातचीत करते हैं। परन्तु आज के परिवेश में कामकाजी लड़की-लड़के अगर प्रेम विवाह करना चाहते हैं तो इस परम्परा का निर्वाह करना कहाँ तक प्रासंगिक होगा वह एक अनसुलझा प्रश्न है। प्रकाश ने इसका समाधान रमेश बाबू पर छोड़ दिया क्योंकि परम्परा के इस विचलन का सीधा प्रभाव रमेश बाबू के स्वाभिमान एवं उनके इगो पर पड़ रहा था। प्रकाश ने माता-पिता के इस परामर्श का अनुपालन शायद इसलिये नहीं किया क्योंकि अगर वह सीमा को ऐसा प्रस्ताव देता तो शायद उल्टे यही प्रस्ताव सीमा भी प्रकाश को दे देती तब क्या होता। निश्चय ही रमेश बाबू के लिये प्रोभोकिंग होता। प्रकाश ने इस मामले में चुप रहने का बहुत ही मैच्योर्ड डिसीजन लिया था।

अगले दिन रमेश बाबू दफ्तर चले गये एवं प्रकाश अपने पुराने मित्रों के साथ सिनेमा देखने चला गया। घर में बच गये कमला, सुभाष और निशा। सुभाष एवं निशा कॉलेज के विद्यार्थी थे परन्तु एक सुलझे हुए परिवार के कनीय सदस्य होने के कारण बहुत ही प्रिय थे। मम्मी की तबीयत जब कभी खराब होती तो निशा ही पढ़ाई के साथ साथ घर का सारा काम बखूबी सिमटा देती थी। इतना ही नहीं जब कोई विवादास्पद मुद्दा घर में उठता था तो वही निर्णायक भूमिका अदा करती थी। यहाँ तक कि मम्मी और पापा की कभी-कभी विरोधी विचारधारा के बीच ब्रिज का काम करती थी। रमेश बाबू उसे भारतीय समाज की रूढ़ियों से अभिशप्त परम्पराओं के विपरीत कभी सेकेन्ड क्लास ट्रिटमेन्ट नहीं दिया करते थे। अब कमला, सुभाष एवं निशा के सामने मुख्य समस्या थी कि रमेश बाबू एवं प्रकाश की भावनाओं को अक्षुण रखते हुए समाधान का मार्ग कैसे ढूढ़ा जाय। निशा भी जानती थी कि एक दिन उसकी शादी के लिये भी ऐसी समस्याएँ संभावित हो सकती हैं। अत: निशा ने ही रमेश बाबू से बात करने का निर्णय लिया।

शाम को पुन सभी लोग घर में इकट्ठा होते हैं। इस बीच रमेश बाबू की दो भतीजियाँ एवं उनके साले परिवार सहित आ जाते हैं। रमेश बाबू के घर के लिये ऐसी गेट-टू-गेदर गैदरिंग कोई नई बात नहीं थी। सभी के लिये खाना बनता है एवं इकट्ठे खाने की तैयारी होती है। खाने के साथ गप शप भी हो रहा है। समय देखकर निशा ने रमेश बाबू के समक्ष प्रश्न खड़ा कर दिया कि अगर सीमा की जगह मैं होती या भविष्य में ऐसी परिस्थिति आती है तो आप क्या करेंगे। कमरे में स्तब्धता छा गई मानो सूई पटक सन्नाटा पसरा हो। निशा के प्रश्न ने रमेश बाबू को किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया एवं वे असमंजस में पड़ गये कि इतने सारे लोगों के बीच क्या जवाब दें। लोगों के समक्ष प्रौढ़ लड़की को फटकार लगाते तो आत्म प्रवंचना होती। परन्तु पारिवारिक संगठन में प्रगाढ़ विश्वास रखने वाले पिता की दुविधा वह ताड़ गई एवं उनकी मुश्किलें आसान करती हुई पुन बोल उठी कि शादी की बातचीत करने के लिये कौन पहल करे यह बिल्कुल न इगो का विषय है और न ही विवाद का विषय है। यह इम्मेटेरियल है। कोई भी पहल कर सकता है। बल्कि कहा जाय तो पहल करने वाले का ही बड़प्पन माना जायेगा। महत्व तो इस बात का है कि दोनों परिवार मिल कर प्रेमी युगल को जिन्दगी की चुनौतियों से मिलकर लड़ने का आशीर्वाद दे एवं रिश्तों की जंजीर में एक कड़ी और जोडी जाये। रमेश बाबू ने बिना कुछ उत्तर दिये घर में आये अतिथियों की तरफ प्रश्न भरी दृष्टि से देखा मानो वे अपने उपर थोपे गये प्रश्नों को उन पर फेक रहे हों। चूंकि रमेश बाबू हठी स्वभाव के भी थे अत: संतुलित भाषा का ही प्रयोग करते थे। इसलिये ही स्थिति की नजाकत समझ कर चुप रह गये। परन्तु अतिथियों ने निशा की बातों का सहज रूप से समर्थन कर स्थिति को आसान कर दिया एवं लौट गये।

रात में शयन कक्ष में पत्नी कमला के साथ देर रात तक बातें करते हुए रमेश बाबू सो गये। अगले दिन दोपहर में प्रकाश को पुन नौकरी पर मुंबई वापस जाना था। प्रकाश मन में सैकड़ों प्रश्न लिये मुंबई के लिये प्रस्थान कर गया। परन्तु उसने बिना किसी के उपर दबाव दिये हुए आशावादी पथिक की तरह घर छोड़ा था। घर छोड़ते समय उसके मस्तक पर बिल्कुल सहज भाव था, चिन्ता अथवा तनाव की लकीरों के सूक्ष्मतम चिह्न तक प्रदर्शित नहीं थे। भावों की अभिव्यक्ति का अद्भुत रूप देखकर रमेश बाबू की पारखी निगाहों ने वह सब कुछ महसूस किया जो साधारणतया किसी को नहीं दिखाई दे सकता था। और करना क्या था। समाधान तो रमेश बाबू को ही निकालना था। उत्तरदायित्व से पलायन करना उनकी आदत नहीं थी। शाम को उन्होंने पत्नी के साथ सीमा के घर जाने का फैसला किया।

सीमा के घर दस्तक देते समय रमेश बाबू की नशें तनाव के कारण पीपल के सूखे पत्तों की नाड़ियों की तरह तनी हुई थीं। वे अपनी ही नजरों में पानी से पतला हो रहे थे। परन्तु दरवाजा खुलते ही एक चुलबुली लड़की के आशचर्य भरे शब्द –- अरे अंकल अंकल-आंटी आप? कानों में पड़ते ही सारा तनाव दूर हो गया मानों फफोले से एकाएक पानी बह गया हो। लड़की ने रमेश बाबू एवं कमला के पैर छूए एवं झट बैठने के लिये सोफा ऑफर किया। रमेश बाबू ने पूछा कि तुम मुझे पहचानती हो? तुम कौन हो? लड़की ने उत्तर दिया कि आप की तस्वीर मुझे प्रकाश ने कई बार दिखाया है। क्या उसने आपको मेरे बारे में नहीं बताया है? रमेश बाबू को सीमा के परिचय की अब कोई आवश्यकता नहीं थी। इतने में उसके माता-पिता तैयार होकर ड्राइंग रूम में प्रवेश करते हुए आगन्तुक का परिचय पूछे।

इसके पहले कि रमेश बाबू कुछ कहते सीमा ने उनका परिचय स्वयं दे दिया। सीमा के पिता ने कहा कि हम तो आप ही के यहां शादी की बात करने आ रहे थे। सीमा के पिता की बात सुनते ही रमेश बाबू की बची खुची इगो पूर्णत डायलूट हो गई। सीमा के पिताजी ने आगे कहा कि हम जानते हैं कि आप उच्च आदर्शों वाले व्यक्ति हैं एवं आपके लड़के के धैर्य एवं आचरण में आप ही का प्रतिबिम्ब है। हम तो एक वर्ष पहले ही उसके संस्कारों से समझ गये कि नि:सन्देह यह उसकी विरासती धरोहर है। परन्तु इन दोनों बच्चों के धैर्य की परीक्षा लेने एवं कोई पक्की धारणा बनाने में मुझे इतनी देर लग गई। मैं यह भी जानता हूँ कि आप उदारवादी एवं तिलक दहेज प्रथा के विरोधी हैं परन्तु अगर कोई अपनी मर्जी एवं शौक से धूम-धाम से बेटी की शादी करना चाहे एवं उपहार स्वरूप कुछ वर-वधु को देना चाहे तो उसमें कोई आपत्ति आपको नहीं होनी चाहिये क्योंकि इसे आपके सिद्धान्त से समझौता की श्रेणी में नहीं माना जा सकता और न ही आपका सर नीचा होगा। कमला जानती थी कि रमेश बाबू दूसरे की भावनाओं की भी पूरी इज्जत करते थे परन्तु जहाँ उनका अपना अहं टकराता था वहाँ वे हिमालय की तरह अटल हो जाते थे। पति को इस परिस्थितियों से बचाने के लिये उन्होंने सीमा के माता पिता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। रमेश बाबू मौनम् स्वीकारम् लक्षणम् का भाव छुपाए हुए विदा लेते हुए कमरे से बाहर चले गये। सीमा के पिता ने भी शिष्टाचार निभाते हुए उनका साथ हो लिया। थोड़ी देर में कमला भी सीमा एवं उसकी माँ से विदा ले कर बाहर आ गई। रिशेप्शन पार्टी का अवसान हो चुका था एवं सारे अतिथि जा चुके थे। रमेश बाबू अतीत की आराधना करते करते भविष्य निरुपित करने, अविज्ञात प्रारब्ध लेख के अगले अध्याय के लिये चिन्ताकुल खाली बर्तनों, जूठे प्लेटों एवं बिखरे प्लास्टिक के ग्लासों में आत्मदर्शी कसौटियों की जिज्ञासा में खो गये।

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