दुराचार का समाधान कैब कंपनी पर बैन नहीं हो सकता
(इष्टदेव सांस्कृतायन के फेसबुक वाल से)
यह सही है कि लड़कियों के साथ आए दिन हो रही दुराचार की घटनाओं का स्थायी समाधान कैब कंपनी पर बैन नहीं हो सकता. लेकिन, जिस कैब कंपनी में 4000 ड्राइवर काम कर रहे हों और इनमें से एक का भी सत्यापन न कराया गया हो, जिसमें और भी पचासों तरह के फर्जीवाड़े हो रहे हों, उस पर अगर बैन न लगाया जाए तो क्या किया जाए? कंपनियाँ ऐसा इसलिए नहीं करतीं कि आपको सस्ती सुविधा दी जा सके. ऐसा वे केवल इसलिए करती हैं ताकि उन्हें बेहद सस्ते दाम पर यानी लगभग मुफ्त का श्रम मिल सके. इन चार हज़ार में से कितने ड्राइवर होंगे जिनको उबर 15 हज़ार से अधिक मूल वेतन देती हो? कितने हैं, जिनका वह पीएफ काटती है? उबर के कितने ड्राइवरों को ईएसआइ या दुर्घटना बीमा की सुविधा मिली हुई है? क्या इन सवालों के जवाब वे ढूंढने का वे लोग कभी जुटा सकेंगे, जिनके राजकाज में ऐसी कई कंपनियाँ फली-फूली हैं? क्या पिछले 20 वर्षों में भारत को विदेशी कंपनियों के लिए मुफ्त श्रम का हब भर नहीं बनाया गया है? क्यों?
बिना सत्यापन कराए जिस ड्राइवर को रख लिया गया, अगर वह ड्राइवर किसी ट्रांस्पोर्ट कंपनी में काम कर रहा होता और किसी ग्राहक का एक करोड़ का माल लेकर कहीं भाग गया होता तो इसका हर्जाना कौन भरता? उपभोक्ता क़ानून क्या कहते हैं? अगर वहाँ ऐसे ही कई ट्रक चल रहे होते तो सरकार क्या करती? तब क्या उस पर बैन नहीं लगाया जाता? इस बैन से कम से कम इतना तो होगा कि टैक्सी कंपनियाँ अपने ग्राहकों के जान-माल और सम्मान की सुरक्षा को गंभीरता से लेंगी.
मित्रों, इसलिए यह समय उबर पर बैन के विरोध का नहीं. यह काम आप गडकरी जैसे पूंजीवाद के पैरोकारों के लिए छोड़ दीजिए. हमारी-आपकी चिंता तो केवल अपनी, यानी स्त्री-पुरुष-बुज़ुर्ग और बच्चे सभी, के जान-माल और सम्मान की सुरक्षा की होनी चाहिए. सरकार इसके लिए सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम बनाए. चाहे वह कैसे भी बने. हाँ, शीला जी की तरह यह न कहे कि आप रात में चलना छोड़ दें और खापों-धार्मिक संगठनों की तरह यह भी नहीं कि यह-वह पहनना छोड़ दें. हमें फिर से 15वीं सदी में नहीं जाना.