लिटरेचर लव

देवताओं की साजिश (कहानी)

मेरा बचपन किताबों से खेलता रहा, किताबों में सोता रहा, किताबों में जागता रहा। मेरे पिता ब्रजभाषा के विद्वान् थे, और घर, घर से ज्यादा कुताब्खाना था, जाने कितने प्राचीन ग्रन्थ उसमें भरे हुए थे। पिता रात में लिखते, और दिन में सो जाते। और पंजाबी में जो अनुवाद वह तैयार करते, काली और लाल स्याही में, मेरी आँखें उसमें डूब जाती।

बहुत कुछ तो याद नही है, लेकिन इतना याद है कि उनमें बहुत से ऋषियों की गाथाये थी, और कहीं — कहीं उन अप्सराओं की, जिनके आने से ऋषियों की समाधि टूट जाती थी। अहसा होने लगा कि इन गाथाओं का धागा कहीं से मेरी माँ से जुडा हुआ है …………..
जानती थी कि जब मेरे पिता जवानी की दहलीज पर खड़े थे, मौत का साया उनके चारो ओर लिपट गया था। जब उनके माँ — बाप नहीं रहे, और कोई भी बड़ा देखने वाला नहीं रहा, तो मेरे पिता के दोनों भाई घर छोड़कर चले गये — एक साधू होकर, और एक शराबी होकर। उनकी एक बहन थी — जिससे उनके प्यार का धागा जुडा हुआ था, और जब वह भी नहीं रही, तो मेरे पिता ने गेरुआ वस्त्र पहन कर, घर छोड़ दिया था।
और फिर उन्हीं वर्षो में, उनके साधना काल में उनकी मुलाक़ात एक ऐसी सुन्दरी से हुई — जिसके लिए उन्होंने गेरुआ वस्त्र त्याग दिए।
वह मेरी माँ थी। इस लिए उन ऋषियों की और अप्सराओं की गाथाये पढ़ते हुए — मुझे वह धागा दिखाई देने लगता था — अपने पिता के मन का धागा, जो मेरी माँ से जुडा था …….
कुछ बड़ी हुई, तो इस धागे की नई कोण सामने आई, जब मैं शरदचंद्र की किताबो में उतर गयी, और साथ ही सूफी शायरों के कलाम में।
आज भी अगर कोई सुलतान बाहू का कलाम गाता हो, या शाह हुसैन का — तो मुझ पर दीवानगी का एक आलम तारी हो जाता है …….
वारिस शाह के कलाम में दर्द और अहसा की वह इन्तहा देखी कि बहुत सालो के बाद जब मैं अपनी जिन्दगी के हालात एक नज्म में उतारे , तो लिखा ———-

इस पत्थरों की नगरी में
आग — जो वारिस ने जलाई थी
यह मेरी आग भी — उसी की जानशीन है

फिर कालिदास का मेघदूत पढ़ा, तो उसे अंग्रेजी से पंजाबी में अनुवाद करने लगी। वह सब कुछ हिन्दुस्तान की तकसीम के वक्त खो गया, लेकिन उसका अहसा बाकी है। मैं उन दिनों उन बादलो में लिपटी रही थी, जो किसी का पैगाम ले जाते है …….
एक बहुत बड़ी हसरत है, जो जिन्दगी — भर बनी रही कि मुझे संस्कृत और फ़ारसी का इल्म होना चाहिए था। हाफिज शिराजी को तर्जुमे की सूरत में जब देखा तो वह बहुत अपना लगा। एक चेतना की क्रान्ति जो उसमे थी, उसके बीज मैंने अपने अन्तर में पनपते हुए देखा। हाफिज कहते हैं — ” अगर तेरा पीर कहे कि मुसल्ला शारब में रंगीन कर ले, तो कर ले, मुर्शिद बेखबर नहीं है। ” हाफिज से प्यार हो आया,  हैरत के उस मुकाम से प्यार हो आया, बेखुदी के आलम से यहाँ यकताई को पा लेता है, तो हर मजहब की राहो — रस्म छूट जाती है ….
इसी तरह ऋग्वेद के अनुवाद से गुजरते हुए सूर्य सावित्री के कुछ ऐसे सूक्त सामने आये, लगा जैसे किसी काल में मैंने वह लिखे हो। कहती है ” सुबह की लाली जब सूरज से मिले, तो उसकी आन्खेओ में इल्म का काजल हो, अपने महबूब को सौगात देने के लिए हाथो में वेद मन्त्र हो, दुनिया की आलम उनके पुरोहित हो और वे स्वतंत्रता की सेज पर सोए, जहां संकल्प का तकिया लगा हो …..
इस आलम को तो आज भी दुनिया का कोई कानून नही पा सका। यह दुनिया तो आर्थिक, जेहनी और नफ्सी गुलामी में तह दर तह लिपटती चली गयी …….

कुछ किताबे असल में आईना बन जाती हैं, जिस आईने में हम खुद को पहचानते हैं ……
आइन रैंड और काजान्जाकिस को पढ़ते हुए, यह अपनी पहचान थी, जो गहरी हो पाई ….

आइन रैंड का एक किरदार जब किसी से कहता है —– ” आई थैंक यू, फार वाट यू आर …….’ तो लगा — यह मेरे अल्फाज थे, जो उसके होठो पर आ गये। मैंने वह मुकाम देखा है, कि एक शुक्रिया इसीलिए जुबान पर उतर आता है —- कि कोई ऐसा है। उसने होने का शुक्रिया। और काजान जाकिस में अहसास की वह शिद्दत देखी — जिसका एक किरदार, एक नाटक खेलते हुए, क्राइस्ट का किरदार पेश करता है, तो खुद क्राइस्ट हो जाता है। उसके लिए फिर पहले सी जिन्दगी में लौटने का रास्ता रहता ……..

रजनीश अपने बहुत पहले दिनों का एक वाकया कहते हैं कि एक बार पुरानी किताबों की दुकान पर उन्होंने एक किताब देखी, कुछ वर्क पलटे तो सोचने लगे — यह किसने लिखी होगी थक? यह तो देवताओं की कोई साजिश मालूम होती है।——

वह किताब मीर दाद की थी — और मैं मानती हूँ कि दुनिया में कुछ किताबें और कुछेक लोग ऐसे होते हैं, जिनसे मुलाक़ात हो जाए, तो लगता है — यह जरुर देवताओं की कोई साजिश होगी ……
फिर रजनीश को पढ़ते हुए —- मुझे पूरा अहसा हुआ कि इस युग में देवताओं की जो सबसे बड़ी साजिश है, उसका नाम रजनीश है। उनके चिंतन में बुद्ध का मौन, मीरा की पेल में उतरता है। इस संग्रह के अक्षर उन्हीं के प्यार में से छलक कर सामने आए हैं, इसलिए उन्हीं के नाम अर्पित करती हूँ !

प्रस्तुति: सुनील दत्ता ……..कहानी … अमृता प्रीतम

editor

सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button