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पढ़े-लिखों का अनपढ़ भारत

युवाओं का देश कहे जाने वाले भारत में हर साल 30 लाख युवा स्नातक व स्नातकोत्तर की पढाई पूरी करते है. इसके बावजूद देश में बेरोजगारी दिन दूनी-रात चौगनी बढ़ रही है. सालाना बढती शिक्षित बेरोजगारों की तादाद भारतीय शैक्षणिक पध्दति को सवालों के घेरे में खड़ा करती है, उस भारतीय शैक्षणिक पध्दति को जिसने भारतीयों को धर्म और आध्यात्म तो खूब सिखाया पर उसी भारत के युवाओं को उनकी काबलियत सिद्ध करने का हुनर न सिखा सकी.
हाल ही में उच्च शिक्षा के लिए विश्व के ख्यात विश्वविद्यालयों, पाठ्यक्रमों, छात्रों व रोजगार के अवसरों पर हुए सर्वे ने भारतीय उच्च शिक्षा की वास्तविकता उजागर की है. इस सर्वे से साफ होता है कि आज भारत “पढ़े लिखों का अनपढ़ देश” बन चुका है. हमारी ताम-झाम वाली उच्च शिक्षा हकीकत से कोसो दूर है, जबकि हम अपनी झूठी शान की तूती ही बजाते फिर रहे है. हम अमेरिका, इंग्लैण्ड, चीन व जापान जैसे देशों की तुलना में कहीं भी खड़े दिखाई नहीं देते, जबकि इन देशों में छात्रों को न तो हाथ पकड़ कर लिखना सिखाया जाता है और न ही वहाँ के पाठ्यक्रम भारत की तरह बेबुनियादी होते है. इन देशों में प्रोफेशनल कोर्सों को ज्यादा तवज्जों दी जाती है. बच्चों से लेकर युवाओं तक की बुनियादी पढाई कम्प्यूटरों पर होती है जिससे वे कम्प्यूटर की दुनिया में महारत पा लेते है और अंग्रेजी उनकी पैतृक सम्पदा होने के कारण इन्हें कोई कठिनाई नहीं होती। परन्तु इनकी तुलना में हमारा बुनियादी ढांचा बेहद कमजोर है. एक ओर जहाँ हम बच्चों को छठवीं – सातवीं से अंग्रेजी के ए,बी,सी,डी..पढ़ाते हैं तो वहीं स्नातक स्तरों पर छात्रों को कम्प्यूटर की शिक्षा दी जाती है. जिससे जाहिर है अमेरिका के बच्चे की अपेक्षा भारत का बच्चा पिछड़ा ही होगा।
उच्च शिक्षा के लिए सर्वे करने वाली संस्था एसोचैम ने भारतीय शिक्षा के साथ यहाँ के युवाओं को हर तरह से अयोग्य ठहराया है. संस्था का मानना है की भारत में 85 फीसदी ऐसे शिक्षित युवा है जो अच्छी खासी पढाई के बावजूद किसी भी परिस्थिति में अपनी योग्यता सिद्ध नहीं कर सकते। 47 फीसदी शिक्षित युवा रोजगार के लिए अयोग्य माने गये है, 65 फीसदी युवा क्लर्की का काम भी नहीं कर सकते और 97 फीसदी शिक्षित युवा अकाउन्टिंग का काम सही तरीके से नहीं कर सकते। देश में शिक्षा की गुणवत्ता का अंदाजा इसी आधार पर लगाया जा सकता है कि यहाँ इन्हीं शिक्षित युवाओं में से 90 फीसदी युवाओं से कामचलाऊ अंग्रेजी भी नहीं बनती। साथ ही एक दूसरी संस्था ने नौकरीपेशा करने वाले युवाओं का सर्वे कर उनकी मासिक व सालाना आय पर अपनी रिपोर्ट पेश की. इस रिपोर्ट में बताया गया कि देश का 58 फीसदी युवा बमुश्किल 65000 रूपये सालाना कमा पाता है जबकि अधिकांश स्नातक छात्र देश के रोजगार कार्यक्रम मनरेगा की दर पर ही 6250 रूपये मासिक कमा लेते है. ऐसे में भारतीय शिक्षा से अच्छी मजदूरी कही जा सकती है जो बिना लाखों खर्च किये पैसे तो देती है. भारत में एक ओर युवाओं को महाशक्ति माना गया लेकिन दूसरी ओर उसे बेरोजगारी व नाकामी की जंजीरों में भी जकड़ा गया है.
बहरहाल, युवाओं के लिए भारतीय उच्च शिक्षा पूरी तरह नाकाम साबित हुई है. इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी रहा की देश में शिक्षा सुधार के लिए कोई उपाये नहीं किये गये. देश में 650 शैक्षणिक संस्थान व 33000 से ज्यादा डिग्री देने वाले कॉलेज है लेकिन इनमे दशकों पुराने पाठ्यक्रमों का आज भी उपयोग किया जा रहा है. शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए न तो यूजीसी ही ध्यान दे पा रही है और न ही विश्व विद्यालयों का आला प्रशासन इस पर अपनी पकड़ बना पा रहा है. नतीजतन सारी की सारी घिसी-पिटी शिक्षा कालेजों के हवाले कर दी जाती है जिससे ये कालेज अपनी मनमानी कर पाठ्यक्रमों को निपटा देते है. यहाँ तक की कालेज व विश्व विद्यालय छात्रों से मोटी-मोटी रकम लेकर उनकी फर्जी अंकसूची तक तैयार कर देते है. जिससे जरुर कालेज व विश्व विद्यालयों का नाम रोशन होता है लेकिन छात्र को पर्याप्त ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता। दूसरी सबसे बड़ी कमजोरी यह रही की शैक्षणिक स्तर सुधारने आज तक कोई राष्ट्रीय समिति नहीं बनाई गई जो राष्ट्रीय स्तर पर बैठक कर कोई बेहतर हल निकाल सकें। यहाँ तक की हमारी राजनीती में भी शिक्षा सुधार नीतियाँ नहीं बनाई गई. शिक्षा के क्षेत्र में राजनीती का भी महत्वपूर्ण योगदान रहता है लेकिन भारत की असंवेदनशील राजनीति को आरोप-प्रत्यारोप के अलावा अन्य किसी विषय पर विचार करने का समय ही नहीं है.
देश में वैसे तो एक से बढ़कर एक संस्थान है पर कोई भी अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि नहीं बना सकें है और न ही छात्रों को उनकी क़ाबलियत सिद्ध करने का पूरा हौसला दें सकें है. देश का एक इतना बड़ा तबका शिक्षित होते हुए भी आज बेरोजगार है जो भारत की विकासशीलता में भी बाधा बना हुआ है. यहाँ बेरोजगारी की स्थिति किसी महामारी से कम नहीं है. देश के शीर्ष अर्थशास्तियों ने भी माना है की देश में बढती गरीबी, युवाओं में बढती बेरोजगारी का ही नतीजा है. यदि भारत को आर्थिक मजबूती देनी है तो हमारे शासन को कही से भी भारतीय युवाओं को रोजगार मुहैया कराना होगा। जिसके लिए सर्वप्रथम शिक्षा की गुणवत्ता बदलनी होगी। स्कूली स्तर से ही अंग्रेजी व कम्प्यूटर का ज्ञान छात्रों को देना होगा। पाठ्यक्रमों को बदलना होगा व रोजगार के अवसरों पर भी ध्यान देना होगा। राजनीती में पार्टियों द्वारा प्रस्तुत अभिलेखों व कार्यों में शिक्षा को दर्शाना होगा। कुल मिला कर सभी को शिक्षा के प्रति अपनी झूटी शान को हटाकर जमीनी स्तर पर कार्य करना होगा। तभी जाकर देश का इतना बड़ा तबका पूर्ण साक्षर होगा व उसे रोजगार के बेहतर अवसर भी प्राप्त होगे।

अक्षय नेमा मेख
स्वतंत्र पत्रकार

editor

सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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