बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मकड़जाल( भाग-2)

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प्रस्तुतकर्ता : चंदन कुमार मिश्र

इन विदेशी कम्पनियों ने देश में कम्पन पैदा कर दिया है। पूरे देश में लाखों-करोड़ों लोगों के अस्वस्थ बनाने, रोजगार छीन लेने, भारत को कमजोर बनाने, पूरे देश को जकड़ कर जोंक की तरह पकड़ कर रखने में इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने कोई प्रयास नहीं छोड़ रखा है। इसी विषय पर आइए एक शानदार किताब पढ़ते हैं जो कुछ कड़ियों में आपके सामने प्रस्तुत की जायेगी जिसका नाम है- ‘बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मकड़जाल’। इसके लेखक हैं राजीव दीक्षित। इस किताब में निम्न अध्यायों को पढ़ेंगे।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का असली चेहरा

युद्ध की राजनीति और हथियारों का व्यवसाय

युद्ध कभी भी राजनीतिक कारणों के लिये नहीं बल्कि आर्थिक कारणों के लिये ही लड़े जाते हैं। प्रथम विश्व युद्ध के बाद यह बात एकदम शीशे की तरह साफ नजर आती है कि इन विशालकाय कम्पनियों के आपसी हित जब टकराते हैं तो उसका परिणाम पूरी मानव जाति को झेलना पड़ता है। अमेरिका ने प्रथम विश्व युद्ध में दखल देने का निर्णय तभी लिया जब उसने देखा कि अमरीकी कम्पनियों के आर्थिक हित चौपट होते जा रहे हैं।

सन् 1914 तक अमरीकी कम्पनियों का यूरोपीय देशों के साथ कुल व्यापार 16.9 करोड़ डालर (वर्तमान समय में लगभग 3.42 अरब रूपये के बराबर) का, जो 1916 तक आते-आते मात्र 11.59 लाख डालर (वर्तमान समय में लगभग 2.08 करोड़ रूपये) रह गया था। यूरोपीय देशों के साथ व्यापार में आयी भारी गिरावट से अमरीकी कम्पनियों को बहुत अधिक घाटा हुआ। अब अमरीकी कम्पनियों ने इस घाटे को पूरा करने के लिये

अन्य मित्र देशें में सेंध लगाना शुरू किया और इसमें वे काफी सफल भी रहे। 1914 तक यूरोपीय देशों के बाहर दुनिया के अन्य देशों में अमरीकी कम्पनियों का प्रति वर्ष का कारोबार 82.4 करोड़ डालर था, जो 1916 में बढ़ कर 321.4 करोड़ डालर हो गया था। इस व्यापार में एक बड़ा हिस्सा हथियारों की बिक्री का शामिल था। क्योंकि युद्ध शुरू हो गया था और अमरीकी कम्पनियों ने अब हथियारों का उत्पादन शुरू कर दिया था। युद्ध के हालातों में अमरीकी कम्पनियों को हथियारों के व्यापार से अकूत फायदा हुआ। सन् 1916 के बाद हर बड़ी कम्पनी ने अपनी कुल पूँजी का एक बड़ा हिस्सा हथियारों के उत्पादन में लगा दिया था। इस घटना के बाद तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति विल्सन ने जर्मनी के खिलाफ यह कहकर कि ”अधिकार शान्ति से अधिक मूल्यवान है” युद्ध की घोषणा कर दी। पूरे युद्ध के दौरान 375 अरब डालर के हथियार कम्पनियों द्वारा विभिन्न देशों को बेचे गये। अब कम्पनियों के मुँह हथियारों का खून लग चुका था, अतः अब कम्पनियों द्वारा हथियार उत्पादन में सबसे अधिक पूँजी निवेश किया जाने लगा। कई कम्पनियों ने अपने पुराने उत्पादों को बनाना बन्द करके हथियारों का उत्पादन शुरू कर दिया। कई और कम्पनियों ने उपभोक्ता सामग्री के साथ-साथ हथियारों के उत्पादन के क्षेत्र में कदम रखा।

युद्ध के बाद कम्पनियों के कार्य करने के तरीके में एक और महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। कम्पनियों ने आर्थिक हितों को सुरक्षित रखने के लिये आपस में मिलकर ’कार्टेल’ (कई कम्पनियों को मिलाकर एक समूह) बनाना शुरू कर दिया। बाजारों में आपसी प्रतिद्वन्दता से बचने के लिये कम्पनियों ने यह कदम उठाया। प्रथम विश्व युद्ध से द्वितीय विश्व युद्ध के बीच का समय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के इतिहास में ’कार्टेलाईजेशन’ के नाम से मशहूर है। अर्थात् शक्तियों का और अधिक केन्द्रीकरण होता गया। पूँजी कुछ केन्द्रों में ही सिमटती गयी। तकनीकी पर कुछ चुनी हुयी कम्पनियों का ही अधिकार होता गया। इस दौर की कुछ प्रमुख कम्पनियाँ जो हथियार उत्पादन के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा रही थीं और जिन कम्पनियों ने कई अन्य कम्पनियों को अपने में मिलाकर कार्टेल बनाये थे निम्न थीं:- जनरल मोटर्स, फोर्ड, स्टैन्डर्ड आयल,  ड्यूपान्ट, आई.सी.आई., एलाइड केमिकल्स, रेमिंगटन, कैंटर पिलर ट्रैक्टर, क्राइसलर कार्पोरेशन फायर स्टोन, जनरल इलैक्ट्रीकल्स कार्पोरेशन, इन्टरनेशनल हार्वेस्टर, कोल्ट, कोका-कोला, आई. बी. एम. आदि।

द्वितीय विश्व युद्ध की पूरी रूपरेखा हेड्रिख मुल्लैर द्वारा बनायी गयी थी जिसके तहत पोलैण्ड के ऊपर सबसे पहला आक्रमण किया गया। हैड्रिख मुल्लैर, हिटलर के दाहिने हाथ के रूप में अत्यन्त ही महत्वपूर्ण पद पर जर्मन सेना के संचालन के लिये नियुक्त हुआ था।

इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हैड्रिल मुल्लैर द्वितीय विश्व युद्ध के समय कुख्यात बहुराष्ट्रीय कम्पनी आई.टी.टी. का प्रमुख था। यह बहुराष्ट्रीय कम्पनी युद्ध के समय में फासिस्ट गुट को वित्तीय सहायता प्रदान कर रही थी। इसके अलावा अपनी सहयोगी कम्पनी ’फोके बुल्फ एयर क्राफ्ट कार्पोरेशन’ के साथ मिलकर बमवर्षक विमानों की आपूर्ति फासिस्ट गुट को कर रही थी। सम्पूर्ण युद्ध के दौरान आई.टी.टी. की संचार सेवाओं ने नाजी युद्ध तन्त्र को सीधी सहायता की थी। पर युद्ध समाप्त होते ही यह कम्पनी अमरीकी सेना की भी प्रमुख ठेकेदार बन गयी और इसके अधिकारी मित्र राष्ट्रों के गुप्तचरों के साथ मिलकर घनिष्ठता से काम करने लगे। मजेदार बात यह थी कि आई.टी.टी दोनों ओर से युद्ध में लड़ रही थी। फासिज्म के खिलाफ यह कम्पनी अमरीका व सोवियत संघ को मदद कर रही थी तथा दूसरी ओर नाजी सेनाओं को मदद कर रही थी।

यह अत्यन्त ही विचित्र लगता है कि युद्ध समाप्ति के 30 वर्ष बाद आई.टी.टी. कम्पनी को अमेरिकी सरकार की ओर से 2 करोड़ 60 लाख डालर इस बात की क्षति पूर्ति के लिये प्राप्त हुये कि अमेरिकी विमानों ने जर्मनी में कम्पनी (आई.टी.टी.) के प्रतिष्ठान को भारी नुकसान पहुँचाया था। इस प्रकार आई.टी.टी. ने एक युद्ध के मैदान से तीन-तीन आर्थिक फसलें काटीं। दो बार अपने मुख्यालय के माध्यम से अमेरिका से और एक बार अपनी सहायक कम्पनी के माध्यम से जर्मनी से। यह गौर किया जाना चाहिए कि युद्ध के पूर्व भी इस कम्पनी के जर्मन सेना के गुप्तचर विभाग के प्रमुख गोयरिंग से अत्यन्त ही मधुर सम्बन्ध थे, जिसके कारण कम्पनी के हिटलर के साथ महत्वपूर्ण सम्बन्ध बने थे।

द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने के तुरंत बाद अमेरिका की 23 बड़ी कम्पनियों ने नाभिकीय हथियारों को बनाना शुरू किया। इन हथियारों के परीक्षण स्थल बने अफ्रीका व एशिया के गरीब व छोटे देश। हथियारों का उत्पादन करने वाली कम्पनियाँ दि दूनी रात चौगुनी तरक्की करने लगीं। अब यह हथियारों का व्यवसाय कम्पनियों के फलने-फूलने का आधार बना। जो आगे चलकर वियतनाम युद्ध, कोरिया युद्ध, ईरान-ईराक युद्ध व कई अन्य छोटे युद्धों में और अधिक तेजी से फैलता गया।

ईरान के शाह और प्रतिक्रियावादी अरब हुकूमतों ने हथियारों को खरीदने में सैकड़ों अरब डालर खर्च किये हैं। इजरायल, चीन और मिस्र की सरकारें भी हथियारों के बढ़ाव को कायम रखने में सक्रिय रही हैं। इजरायल-मिस्र समझौते के बाद मध्य-पूर्व में अमरीका के सैनिक औद्योगिक समुच्चय के लिये मुनाफे कमाने की नयी संभावनायें पैदा हो गयी। ईरान व अफगानिस्तान की घटनाओं से भी उन्हें ऐसे ही मौके मिले। जापान और चीन के बीच सम्पन्न तथाकथित शान्ति समझौते ने जिसमें माओवादियों ने, नायकत्ववाद के बारे में एक विरोधी लाबी तैयार की, मित्शूविशी, कावासाकी, हिताची, जोसेन और अन्य विशालकाय जापानी उद्योगों के मुनाफों में भारी वृद्ध कर दी। पीकिंग के दूत कर्जों और हथियारों की तलाश में पश्चिम में सारे देशों को छाने डाल रहे हैं। अभी हाल में अमरीकी यात्रा के दौरान ली पेंग ने लाकहीड, मेकडोनाल्ड-डगलस और बोइंग जैसे दर्शनीय स्थानों में रूचि दिखायी है। उनको श्लेसिंगर, नन और जैकसन जैसे बदनाम युद्धवादियों के द्वारा सैर करायी गयी। बोलीबिया, ब्राजील, चिली, यूनान और इंडोनेशिया में दक्षिणपंथी षड्यन्त्रकारियों को अमरीका सरकार की सलाहकार निगमों ने सहायता पहुँचायी और इसके बदले में इन देशों के सेनाध्यक्षों ने अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध करायी हैं। थल सेना और नौ सेना के लगभग 500 प्रमुख अड्डों और सैनिक हस्तक्षेप के दर्जन से उपर नियंत्रणकारी चौकियों पर दुनिया भर में जहाँ कही भी अमरीकी झंडा गाडा गया है, वहाँ अमरीकी कंपनियाँ घुस गयीं। विश्वव्यापी सैनिक साम्राज्य का निर्माण करना इनके लिये एक अच्छा धंधा रहा है। जबकि इन कंपनियों के समर्थकों का कहना है कि अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां मूलतः एक शान्तिपूर्वक समाज की स्थापना के लिये सुंदर-सुंदर चीजों का निर्माण करने में लगी हुई है। इन कंपनियों का बचाव करने के लिये कितने ही सुंदर शब्दों का इस्तेमाल क्यों न किया जाय, और यह प्रमाणित करने के लिये कितनी ही जी-तोड़ मेहनत क्यों न करें, कि दुनिया में स्थायित्व पैदा हो गया है और राष्ट्रों की हालत में सुधार हो गया है, सैनिक खर्चों में कटौती की गयी है, लेकिन तथ्य उल्टा ही प्रमाणित करते हैं। हाल ही में न्यूयार्क टाइम्स ने अपने एक संपादकीय में लिखा है कि हथियारों का उत्पादन करने और कानूनी तौर पर उनका निर्यात करने में अमरीका की एक हजार से ज्यादा कंपनियाँ लगी हुई हैं। उनमें वे प्रमुख

औद्योगिक प्रतिष्ठान भी शामिल हैं जो दैनिक उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन करने के लिये जाने जाते हैं। युद्ध सामग्री के निर्माण में एक्सोन (तेल), जनरल मोटस (मोटर), आई.बी.एम. (कम्प्यूटर), आर.सी.ए. (टी.वीसैट ), गुडईयर (टायर), डूयूपोंट (रसायन), सिंगर (सिलाई की मशीनें), वेस्टिंग हाउस (बिजली के सामान) और गल्फ आयल जैसी कंपनियाँ भी शामिल हैं। इन निगमों की कारगहुजारियों के कारण स्थायी शांति नहीं रह पाती। बल्कि सच तो यह है कि ये निगमें लगातार दुनिया को युद्ध के कगार पर खड़ा करने की कोशिश में लगी रहती है।

वियतनाम पर अमरीकी आक्रमण ने विशेष तौर प, उन भ्रांतियों को अधिक धक्का पहुँचाया जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा फैलायी गयी थीं। वियतनामी जनता के लिये इस युद्ध के भयंकर परिणाम सर्वविदित हैं। लेकिन बड़ी संख्या में अमरीकी लोगों को भी हिन्द-चीन के जंगलों में अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। फायदा हुआ केवल इन बहुराष्ट्रीय निगमों को।

1955 से लेकर वियतनाम युद्ध की समाप्ति तक इन निगमों को हथियारों के 75 प्रतिशत आर्डर प्राप्त हुये। उस काल में अमरीकी सेना की शस्त्रों की आपूर्ति करने वालों की सूची काफी कुछ कहती है- बोईंग-1800 करोड़ डालर, जनरल डायनामिक्स- 1400 करोड़ डालर, नार्थ अमेरिकन एवियेशन इन कार्पोरेशन- 1330 करोड़ डालर, यूनाईटेड एयर क्राफ्ट – 1160 करोड़ डालर, जनरल मोटर्स – 1050 करोड़ डालर, डगलस – 850 करोड़ डालर, आई.टी.टी. – 710 करोड़ डालर, मार्टिन मारिये – 660 करोड़ डालर, ह्यूग्स – 470 करोड़ डालर, मेक्डोनेल – 570 करोड़ डालर, स्पेरी रेंड – 560 करोड़ डालर, रिपब्लिक – 530 करोड़ डालर, गु्रमेन – 420 करोड़ डालर, बेनडिक्स – 410 करेाड डालर, वेस्टिंग हाउस – 390 करोड़ डालर, कर्टिस राइट – 380 करोड डालर, रेथियोन – 330 करोड डालर, आई.बी.एम. – 320 करोड़ डालर। इन निगमों को युद्ध सामग्री के आर्डरों का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस सदस्यों और सीनेटरों की मद से मिला था।

इजरायल भी इस बात को स्वीकारने लगा है कि ”मिसाइलों का व्यापार संतरों से अधिक लाभदायक है” – ये शब्द वहां के प्रधानमंत्री ने हाल में ही व्यक्त किये है। इजरायल हथियारों को बेचने में समर्थ है। वहाँ इन हथियारों का उत्पादन ’राकवेल’, ’लाकहीड’, ’वानिया’, ’जेनिथ’, ’वेस्टिंग हाउस’, ’मफीनबोल’, ’मेग्रावोक्स’, ’एयरोजोट’, ’जनरल न्यूक्लियोनिक्स’, ’लिंग-टेक्को-वोग्ट’ आदि निगम कर रहे है। इजरायल के शस्त्र उद्योग के संरक्षकों में ड्यूश बैंक, एत्रजीत्र शामिल हैं जो पश्चिम जर्मनी के सबसे बड़े बैंकों में से एक हैं। यह बैंक वहाँ के निगमों को वित्त मुहैया कराता है। पिछले 10-12 वर्षो में यहाँ के निगमों के निर्यात में 50 गुना वृद्धि हुई है। आज यह निर्यात 100 करोड़ मार्क को पार कर चुका है। ये निगम जेट (लड़ाकू बमवर्षक), आस्टंड – 1124 (समुद्र तटीय गश्ती विमान), फौगा – माजिस्टर (बमवर्षक), अरावा (सैनिक परिवहन विमान), जहाज से छोड़े

जाने वाले प्रक्षेपास्त्र, 155 एम.एम. तोपें, प्रक्षेपास्त्र ढाने वाले जहाज तक बेचते है। प्रिटोरिया की सरकार इनके मुख्य ग्राहकों में से एक हैं।

नाभिकीय हथियारों को बनाने की प्रौद्योगिकी को बेचना विशेष रूप से विनाशकारी है। दक्षिण अफ्रीका के गणराज्य में नाभिकीय हथियारों का विकास इन निगमों की सहायता से किया जा रहा है। ये जनता की माँग को अनदेखा करके उनके उत्पादन में जुटे हैं। ये निगमें उन मानदण्डों तक का उल्लंघन करती है जिनको सरकारें मानती हैं अभी हाल में अर्जेटीना को एक निगम द्वारा नाभिकीय संयंत्र और प्रोद्योगिकी बेचने का मामला प्रकाश में आया है। हालांकि अर्जेटीना की सरकार इस बात की समुचित गारंटी नहीं दें रही थी कि उक्त संयंत्र का उपयोग सैनिक उद्देश्यों के लिये नहीं किया जायेगा, पर फिर भी पश्चिम जर्मनी के निगम ने उस सरकार को प्रौद्योगिकी व रियेक्टर दोनों बेचे।

दूसरे विश्व युद्ध में हिटलर की हार के बाद पश्चिम जर्मनी में सामरिक राकेटों का विकास करने और इनका निर्माण करने पर रोक लगा दी गयी थी परन्तु ओ.टी.आर.ए.जी. कंपनी की पारराष्ट्रीयता का लाभ उठाते हुये इस निगम से कुछ नहीं कहा गया। फिर पश्चिम जर्मनी को यह विचार आया कि प्रक्षेपास्त्र व्यापार किसी अन्य देश की धरती से किया जा सकता है, अतः इस कंपनी ने जायरे में एक क्षेत्र की रियासत हासिल कर ली और प्रक्षेपास्त्र क्षेत्र का विकास कर लिया। जनता के सामने इस पूरे सौदों को व्यापारिक कह कर प्रस्तुत किया गया। अब जायरे के उस क्षेत्र का इस्तेमाल सारे अफ्रीका को धमकाने के लिये किया जा रहा है। हथियारों का उत्पादन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नीति का एक मूल अंग है। वे इसको मेहनतकश जनता की कीमत पर मुनाफों का एक स्थायी स्रोत मानती हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1946 से लेकर 1969 के बीच अमेरिकी कम्पनियों का विश्व व्यापारी पूँजी निवेश 72 अरब डालर से बढ़कर लगभग 708 अरब डालर हो गया। जिसके परिणाम स्वरूप विश्व भर के कुल पूँजी निवेश का 65 प्रतिशत हिस्सा अमेरिकी कम्पनियों के पास हो गया।

इसके अतिरिक्त सन् 1952 के बीच में अमेरिका में बनी मार्शल योजना के तहत यूरोपीय देशों को अपने बाजारों को विकसित करने हेतु 17 अरब डालर की अतिरिक्त अमेरिकी सहायता दी गयी। जिसके परिणाम स्वरूप यूरोप की प्रति व्यक्ति आय नाटकीय तरीके से बढ़ गयी। मार्शल योजना की यह सफलता थी, जिसके कारण यूरोपीय बाजार में अमरीका की वस्तुओं की मांग और अधिक बढ़ गयी। अमीर देशों द्वारा गरीब देशों को दी जाने वाली आर्थिक सहायता का वास्तविक रूप सन् 1952 में देखने को मिला। विकसित देशों द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता गरीब देशों में बाजार पैदा करने के काम आती है, न कि उन देशों का विकास करने में। यूरोपीय अर्थशास्त्री रेमन्ड वर्नोन ने योजना पर टिप्पणी करते हुये कहा था । “अमेरिका के लिये मार्शल योजना एक ऐसा राजनीतिक हथियार है, जिससे वह अपने देश की कम्पनियों को यूरोप में चल रहे आर्थिक युद्ध में सम्पूर्ण विजय की ओर ले जा रहा है और दुनिया में अमेरिकी आर्थिक-आधिपत्य की जड़ों को मजबूत कर रहा है। इस मार्शल योजना के दूरगामी परिणाम होंगे। दुनिया के अन्य गरीब देश भी अमेरिकी मदद पाने के लिये एक दूसरे से होड़ करेंगे जिसकी वजह से उनका सही विकास अवरुद्ध होगा और वे एक ऐसे विकास के रास्ते पर धकेल दिये जायेंगे जहां से वापस लौटना उन गरीब देशों के लिये फिर असम्भव होगा।”

सन् 1960 के आते-आते रेमन्ड बर्नोन द्वारा की गयी भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य सिद्ध हुयी। एशिया व अफ्रीका के देशों में विदेशी मदद के बहाने अमेरिकी व अन्य यूरोपीय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की घुसपैठ बढ़ने लगी। अब गरीब देशों को आर्थिक मदद देना अमेरिका की रणनीति बन गयी। आने वाली अमेरिकी सरकारों ने इस परम्परा को लगातार आगे बढ़ाया।

यूरोपियन आर्थिक समुदाय का गठन इसी दशक में हुआ। जिसका मुख्य उद्देश्य अमेरिकी कम्पनियों के यूरोप में बढ़ते प्रभाव को कम करने तथा यूरोपीय कम्पनियों को आगे बढ़ाने के लिये था। इसमें यूरोपीय देश आंशिक रूप से सफल रहे। क्योंकि अधिकतर यूरोपीय देशों के पास विदेशी मुद्रा (डालर) का अभाव था। लेकिन यूरोपियन आर्थिक समुदाय के गठन के बाद यूरोपीय बाजार आर्थिक उतार-चढ़ाव के दौर के बाद स्थिर होने लगा इसी दौर में यूरोपियन कम्पनियों का उदय हुआ। हालांकि कुछ

यूरोपियन कम्पनियाँ तो इस शताब्दी के शुरूआती दौर में ही अस्तित्त्व में आ चुकी थी। लेकिन सन् 1960 और उसके बाद यूरोपीय कम्पनियाँ भी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार पर छाने लगीं। सन् 1970 व इसके बाद का दौर जापानी कम्पनियों के उदय का था।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आपसी विलय

पश्चिम की बाजार संस्कृति का एक प्रमुख सिद्धान्त है- प्रतियोगिता। अर्थात् कम्पनियों में यदि आपसी प्रतियोगिता होगी तो माल की गुणवत्ता उच्चस्तरीय होगी, दाम कम होगा और अन्ततः उससे उपभोक्ता को ही फायदा होगा। बाजार में एकाधिकार को रोकने के लिये जरूरी है कि कम्पनियों में आपसी प्रतिद्वन्दिता हो जिससे कि कोई कम्पनी बाजार में अपना एकाधिकार स्थापित न करे। इसके लिये आवश्यक है कि एक से अधिक कम्पनियाँ बाजार में हों जो एक सी वस्तुओं का उत्पादन करती हों, जिससे उपभोक्ता को वस्तुओं के चयन, मूल्य व गुणवत्ता आदि का समुचित अधिकार मिल सके। वह अपनी पसन्द से चीजों के खरीद सके। कम्पनियों की स्वस्थ प्रतियोगिता से बाजार के भी आर्थिक हितों में वृद्धि हो।

आधुनिक बाजार सिद्धान्त की ये बातें एकदम बेबुनियाद हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की मुनाफाखोरी की संस्कृति ने इन सभी बुनियादी सिद्धान्तों को नकारा है। आपसी प्रतियोगिता से बचने के लिये ये कम्पनियाँ आपस में समझौते करती हैं। मुनाफाखोरी को अधिकतम बनाये रखने के लिये कम्पनियाँ बाजारों पर एकाधिकार रखती हैं। इस एकाधिकार व मुनाफे को उच्चतम बिन्दु तक पहुँचाने के लिये ये कम्पनियाँ किसी भी हद तक जा सकती है। एक दूसरे से गलाकाट प्रतियोगिता में लिप्त रहने वाली ये कम्पनियाँ आपस में विलय भी कर सकती हैं, सहगामी हो सकती हैं। यदि कुछ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को लगता है कि आपसी प्रतिद्वन्द्विता में उनके मुनाफे में कमी आ रही है और बाजार से उनका एकाधिकार समाप्त हो रहा है, तो वे कम्पनियाँ निजी स्वार्थों के लिये आपस में मिलकर किसी एक विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनी को जन्म देती हैं।

अधिकांश चर्चित बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का जन्म इसी विलय की प्रक्रिया से चलते हुआ है। उदाहरण के लिये:-

1.         ब्रिटिश लीलैण्ड मोटर कार्पोरेशन

2.         इन्टरनेशनल कम्प्यूटर लिमिटेड

3.         द फ्रेन्च इलैक्ट्रीकल कम्पनी

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