माओवादी आंदोलन : आंदोलन कम, लूट ज्यादा

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शिशिर कुमार, नई दिल्ली

1970 में सिटी कॉलेज और पढ़े लिखे संभ्रांत लोगों के बीच से शुरू हुआ नक्सल आन्दोलन आज जन-जातीय समूहों और पिछड़े लोगों का प्रतीकात्मक परिवर्तन का आन्दोलन बन चुका है। यह आन्दोलन कम बल्कि आन्दोलन के नाम पर लूट-पाट करने वालों का जमघट ज्यादा प्रतीत होता है। कहीं समरूपता-समानता तो कहीं बंदूक की बदौलत व्यवस्था परिवर्तन करने की बात करने वाला यह संगठन अपने विद्रोही तेवर एवं संविधान विरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहने की वजह से सरकार के आँखों की किरकिरी बन चूका है। और अब जब पानी सर के ऊपर से गुजरने लगा है तो सरकार ने कुछ रणनीति तो कुछ राजनीति के तहत शुरू किया है “ऑपरेशन ग्रीन हंट”। घात-प्रतिघात एवं हिंसा-प्रतिहिंसा में कभी नक्सली तो कभी सुरक्षा बल, कभी आम आदमी तो कभी विदेशी मेहमान, कभी पत्रकार तो कभी सरकार के नुमाइंदे शिकार होते रहते हैं। ऐसी खबर समाचार माध्यमों के लिए प्रतिदिन के कोरम में महज एक मामूली विषय बनकर रह गयी है।

सामाजिक कुरीतियों एवं व्यवस्था में बदलाव के दृष्टिकोण से इस आन्दोलन ने कुछ बेहतर प्रभाव छोड़ने में भी कामयाबी हासिल की है, जिसे सिरे से नाकारा नहीं जा सकता। वे लोग इस पंक्ति का अर्थ ज्यादा बेहतर समझ सकते हैं, जिन्होंने इस के साए में दंश या दर्द झेलते हुए वक़्त गुजारा है। सामंती मानसिकता और जमीनी समानता की हद में जाकर व्यवस्था में तूफान उठाने का श्रेय भी इसी आन्दोलन को जाता है। लेकिन इन सब की आड़ में जो घिनौना खेल मओवादियों ने खेला है उसे सिर्फ याद भर करके धमनियों में सिरसिरी और शरीर में सिहरन हो उठती है।

लेकिन यहाँ सवाल यह उठता है कि नक्सलवादी नेताओं में 70 के दशक से लेकर आज तक कभी यह ख्याल नहीं आया कि जिस परिवर्तन के उद्देश्य को लेकर यह आन्दोलन प्रारंभ हुआ था क्या वाकई उसे लोकतान्त्रिक दायरे में रहकर नहीं किया जा सकता ! शायद उनका जबाव होगा – नहीं। क्यूंकि जिसे भी यह ख्याल आया उसने संगठन को और उसके कुकृत्यों का विरोध करने से बेहतर मौत को गले लगाना समझा। उदाहरण स्वरुप “कानू सान्याल। पश्चिम बंगाल से बिहार, झारखण्ड,मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश जैसे राज्यों में अपनी जड़े जमाये इस संगठन ने तोहमत तो बहुत मढ़े; लेकिन शायद ही अपने गिरेवान में कभी झाँका होगा ! और अगर झाँका होता तो आज ये हालत उत्पन्न न हुए होते। क्या बिगाड़ा था झानेश्वरी एक्सप्रेस के उन १४८ यात्रियों ने जिसे मौत के मुंह में बेवजह जाना पड़ा। झानेश्वरी  एक्सप्रेस अकेला उदाहरण नहीं है बल्कि इस सन्दर्भ में सैंकड़ो घटनाएँ मिशाल के लिए हाज़िर है। हजारो बेकसूर जाने माओवादियों के इस घिनौने तथाकथित आन्दोलन का शिकार हो चुकी है। यदि व्यवस्था के परिवर्तन के लिए आन्दोलन का कोई स्वरुप हो  तो बात समझ में आती है। लेकिन यह बात बिलकुल नहीं समझ में आती है कि देश को अशांत एवं अस्थिर करने के लिए एक ओर दुश्मन देशों से धन लिए जाएँ और दुसरी ओर राजनीति क दम्भ भरा जाए। यह एक आन्दोलन है तो है कैसे ! कोई आदर्श या कोई वाद या किसी विचारधारा का कोई भी तर्क देश के साथ गद्दारी की इजाजत नहीं देता। अब तो सवाल यह है कि क्या यह आन्दोलन के नाम पर भारत के खिलाफ महज साजिश नहीं है। यह नेपथ्य से उठता एक बड़ा सवाल है। और कुल मिलकर देखा जाए तो जो स्थितियां-परिस्थितियां उत्पन्न हुइ है उसी का परिणाम है “ऑपरेशन ग्रीन हंट “।

जब भी कोई स्तरीय संस्थान/संगठन कोई कड़ा रुख अख्तियार करती है तो जो थोडा-बहुत उंच-नीच होता है उसे लोग नजरंदाज कर देते हैं। भारत जैसे विशाल देश में ऐसा होना कोई बड़ी बात नहीं है। प्रत्येक समस्या को सुलझाने के बहुत सारे तरीकों में अधिकता शांति और स्थिरता के साथ चलने वाला मार्ग का होता है। समस्या को सुलझाने के सन्दर्भ में एक मध्यस्थ की भूमिका को भी नाकारा नहीं जा सकता है। इस सबसे दीगर बात यह है कि यह कहाँ तक जायज है कि भारत के संवैधानिक पद पर बैठा एक सत्ताधीस/जनप्रतिनिधि , जिसने भारत के संविधान में आस्था व्यक्त करते हुए पद और गोपनीयता की शपथ खायी है। वह पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में जब एक रैली करती हैं तो उनका समर्थन पी. सी. पी. ए. नामक एक संगठन करता है। हैरत की बात तो यह है कि पी. सी. पी. ए. नामक यह संगठन माओवादियों का प्रमुख संगठन है। और चिंता की बात यह कि इसी संगठन पर झानेश्वरी एक्सप्रेस हादसे का आरोप है। लिहाजा सोचने वाली बात यह है कि रेल संपत्ति और निर्दोष यात्रियों के हत्यारे का खुला समर्थन रेलमंत्री को आखिर किस कीमत पर बर्दाश्त है। और इससे भी बड़ा सवाल यह है कि माओवादियों से तृणमूल कांग्रेस का क्या सम्बन्ध है। या फिर यह कि कुछ लोग यूँ ही अपनी राजनैतिक स्वार्थपरकता के मद्देनज़र भारत के संविधान और उसमे निवास करने वाली एक सौ दस करोड़ आत्माओं की आस्था को कब तक तार-तार करते रहेंगे। लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं होती। संविधान की मर्यादा में सबको अपनी बात कहने का हक़ है लेकिन हरेक बात की अपनी हद है।

शिशिर कुमार

परिचय : शिशिर कुमार मुलत: एक टीवी पत्रकार हैं।  सभी विषय पर लिखते रहे हैं लेकिन राजनीति और समसामयिक विषय इन्हें अधिक प्रिय है

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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  1. शिशिर जी, आपका लेख पढ़ा। माफ कीजिएगा, बहुत ही कमजोर लेख लिखा है आपने। भाषा भी गलीच है और अशुद्धियों की तो भरमार है। संपादक महोदय से आग्रह है कि वे ऐसे लेखों को स्थान न दें। साथ ही छापने के पहले प्रूफ रीडिंग जरूर कर लें। मुझे लगता नहीं कि इस कमेंट को आप जनता के लिए शाया करेंगे। लेकिन अगर ऐसा होता है तो ये साइट के अलोकतांत्रिक रवैये को ही उजागर करेगा। आपको असहमतियों को और गलतियों की ओर इशारे करने वाले लोगों को तरजीह देनी होगी। तभी साइट की उन्नति का मार्ग प्रशस्त होगा। धन्यवाद.

  2. मनीष जी, सबसे पहले तो मैं व्यक्तिगततौर पर आपको धन्यवाद देता हूं कि आपने तेवर की कमियों खुलकर बयान किया। इस आलेख की भाषाई गलती की पूरी जिम्मेदारी मैं स्वीकार करता हूं…। साथ इस तरह के आलेखों को स्थान न देने के आपके तर्क से असहमति व्यक्त करता हूं….जब हम डेमोक्रेटिक नार्म्स को लेकर चलते हैं तो संयमित भाषा में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी बात रखने के अधिकार को नष्ट नहीं कर सकते…यदि शिशिर जी को यह लग रहा कि माओवाद के नाम पर लूट खसोट और हत्याएं हो रही है, और इनका नकारात्मक प्रभाव लोगों के जनजीवन पर पड़ रहा है तो निसंदेह उनको अपनी बात रखने का पूरा हक है। माफ करें, कंटेट स्तर पर आप भी बहुत सतही बात कहते हुये निकल गये हैं, मसलन बहुत ही कमजोर लेख लिखा है, बेहतर होता कि आप उन कमजोर बिंन्दुओं को रेखांकित करते, जो आपकी नजर में इस आलेख में है….इससे शायद भारत में जारी माओवाद को समझने में लोगों को सहूलियत होती….और हो सकता है कि आपके तर्कों से प्रभावित होकर एक दो माओवादी और बन जाते। इस आलेख में जो सवाल शिशिर जी उठा रहे हैं कमोबेश यह सवाल आम लोगों के जेहन में घूम रहा है, और यह हकीकत है। बंदूक के साये में क्रांति का औचित्य समझ के परे है….तेवरआनलाइन का दिल और दिमाग पूरी तरह से खुला है….हर तरह की हवाओं के लिए इसका फेफड़ा खुला है…..बेशक वह हवा चीन से ही क्यों न उठ रही है, लेकिन इन हवाओं को परखने के लिए हम अपने मौलिक अधिकार का तो इस्तेमाल तो कर ही सकते हैं…..या फिर इसे भी बंदूक के के बल पर नेस्तनाबूत कर दिया जाएगा….और अगर ऐसा है माओवाद भारत का भविष्य नहीं हो सकता।

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