लिटरेचर लव

श्रीलाल शुक्ल यानी साहित्यपुर के संत और उन के रंगनाथ की दुनिया

दयानंद पांडेय, लखनऊ

विश्रामपुर के संत ने जब आज अंतिम विश्राम ले ही लिया है तो यह सोचना लाजिमी हो गया है कि क्या श्रीलाल शुक्ल ही रंगनाथ भी नहीं थे ? जी हां मैं उन के रागदरबारी के नायक रंगनाथ की बात कर रहा हूं। सच यह है कि जब रागदरबारी मैंने पढ़ा था तब तो लगता था कि मैं भी रंगनाथ ही हूं। पाव भर का सीना और ख्वाहिश सायरा बानो की ! जैसे संवाद में धंसे व्यंग्य की धार और रंगनाथ के दर्पण में अपना अक्स देखना तब बहुत भला लगता था। कई बार लगता था कि वैद्य जी से, उन की मान्यताओं, उन की उखाड़ पछाड़ से रंगनाथ ही नहीं मैं भी टकरा रहा हूं। तो यह सिर्फ़ श्रीलाल जी के रचे पात्र रंगनाथ का जादू भर नहीं था । सिस्टम से टकराने का चाव भी था। उन दिनों तो हर युवा रंगनाथ ही था। कम से कम मेरे आस-पास के युवा। उन दिनों मैं विद्यार्थी था। प्रेमचंद के बाद अगर कोई आहट मन में भरता था कथा कहानी में तो श्रीलाल जी और उन का रागदरबारी ही। हालांकि तब कविताएं लिखता था और धूमिल, दुष्यंत का रंग ज़्यादा चटक था पर रागदरबारी का लंगड भी रह – रह कर सामने खडा हो जाता था। क्या तो चरित्र है लंगड का ! वह लंगड जिसे कचहरी में नकल लेने के लिए रिश्वत नहीं देनी थी। चाहे जितने भी पापड़ बेलने पडें। नकल नहीं मिलती है तो न मिले। सोचिए भला कि बिना रिश्वत दिए  आज भी किसी को नकल मिल सकती है किसी कचहरी में ? वह लंगड़ आज भी दौड़ रहा है और नकल नहीं पा रहा। और रागदरबारी के समय कचहरी भर ही रिश्वत का प्रामाणिक स्थल थी। अब तो समूचा सिस्टम ही लंगड़ के खिलाफ़ खडा है। अब जहां भी जाएं कोई काम करवाने कचहरी का दस्तूर मुंह बाए खड़ा है। पहले नज़राना, शुकराना था अब जबराना है। जनता लंगड़ है और सारा सरकारी अमला कचहरी। यह प्रतीक और गहरा, और मारक, और यातनादायक बनता गया है। श्रीलाल जी के रागदरबारी का तंज तेग बन कर अब हमारे सामने उपस्थित है। कोई अब इसे हिला नहीं सकता। सरकारी नौकरी में रह कर भी ऐसी कालजयी रचना लिखना आसान नहीं था। खतरे  बहुत थे। पर श्रीलाल जी ने उठाए। बार-बार उठाए।

रागदरबारी सीधे-सीधे सरकार और उस की मशीनरी के खिलाफ़ बजाया गया बिगुल है , सिर्फ़ एक उपन्यास भर नहीं  और हम सब जानते हैं कि श्रीलाल जी प्रशासनिक अधिकारी थे। न सिर्फ़ लिखने में वरन व्यवहार में भी वह रंगनाथ ही थे। वह तब के दिनों पी.सी.एस. अधिकारी थे। तब का एक वाकया सुनिए।

अब के दिनों की तरह तब भी पी सी एस एसोसिएसन की सालाना मीट थी। हेमवतीनंदन बहुगुणा तब मुख्यमंत्री थे। पी सी एस एसोसिएसन की मीट में कुछ मांगें रवायत के मुताबिक मानते हुए बहुगुणा जी ने ऐलान किया कि नगरपालिकाओं में प्रशासक का पद भी पी सी एस अधिकारियों को दिया जाएगा। और कि लखनऊ नगर पालिका का पहला प्रशासक श्रीलाल शुक्ल को नियुक्त किया जाता है। श्रीलाल शुक्ल फ़ौरन उठ कर खडे हो गए। और मुख्यमंत्री से साफ तौर पर कहा कि, ‘ क्या यह आप हमारे संवर्ग पर एहसान कर रहे हैं? कि भीख दे रहे हैं ? अगर ऐसा है तो यह लीजिए और रखिए अपना यह पद अपने पास। हमें ऐसी बख्शीश नहीं चाहिए।’ यह सुनते ही लोग सकते में आ गए। सन्नाटा फैल गया पूरी सभा में। तब के मुख्यमंत्री बहुगुणा को हार मान कर कहना पडा कि. ‘ यह पद कोई बख्शीश में नहीं दे रहे हम। यह आप का हक है।’ उस मीट में उपस्थित तब के एक अधिकारी दिवाकर त्रिपाठी यह वाकया सुनाते हुए अजब उत्साह से भर उठते हैं।  वह बताते हैं कि तब छाती चौड़ी हो गई थी यह सोच कर कि हमारे कैडर में भी ऐसा निर्भीक अधिकारी है। दिवाकर त्रिपाठी तब नए नए पी सी एस हुए थे।

सिस्टम से टकराना एक आम आदमी को मुश्किल होता है तो श्रीलाल जी तो नौकरशाह थे। पर वह सिस्टम से बार-बार टकराना जानते थे। टकराते ही थे। मकान और विश्रामपुर का संत जैसी रचनाओं में भी उन की यह टकराहट की आंच अपनी पूरी त्वरा में उपस्थित है। बहुत कम लोगों को यह जानकारी है कि श्रीलाल जी के रागदरबारी का शिवपालगंज का अधिकांश गोरखपुर की तहसील बांसगांव का है। जहां वह १९५६-५८ में एस डी एम रहे थे। लोग तो मोहनलालगंज का भी कयास लगाते हैं शिवपालगंज के बाबत। हो सकता है कुछ मिट्टी मोहनलाल गंज की भी हो शिवपालगंज में पर बांसगांव की मिट्टी  पानी रागदरबारी के शिवपालगंज में कुछ ज़्यादा है। लंगड, या आटा चक्की वाले मास्टर साहब, वैद्य जी , पहलवान सब के सब चरित्र एक समय बांसगांव की हवा में तलाशे जा सकते थे। बल्कि कुछ सूत्र अभी भी शेष हैं। जैसे रंगनाथ अपने गांव जा रहा है। अंधेरा हो चुका है। सड़क पर से जब उस का ट्रक गुज़रता है तो रास्ते में सडक किनारे सौच के लिए बैठी औरतें उठ खडी होती हैं ऐसे गोया सलामी दे रही हों। औरतों का यह कष्ट अभी भी बद्स्तूर है। हालांकि रागदरबारी जैसी किसी कृति को किसी बांसगांव या किसी मोहनलाल गंज के एक फ़्रेम में कैद करना असंगत ही है पर बातें तो होती ही है, उन्हें भला कैसे बिसरा दिया जाए। खैर।

रागदरबारी का पहला मंचन गोरखपुर में गिरीश रस्तोगी के नाट्य रुपांतरण और निर्देशन में किया गया। जिसे देखने श्रीलाल जी भी गोरखपुर पहुंचे थे। यहीं मैं उन से पहली बार मिला भी। तब के मंचन से वह संतुष्ट नहीं थे। तो भी उसी नाट्य रुपांतरण पर बाद में दूरदर्शन पर एक धारावाहिक भी दिखाया गया। श्रीलाल जी इस धारावाहिक पर बहुत कुपित भी थे। कुछ विवाद भी हुआ। फिर उन की किसी रचना पर कोई फ़िल्म या नाटक किया गया हो मुझे याद नहीं आता।

हां याद आती है उन की रंगत, उन की रंगीन मिजाजी। वह जब सुर में आ जाते थे गाने भी लगते थे। गालिब का एक बहुत मशहूर शेर है ; आगे आती थी हाले दिल पर हांसी / अब किसी बात पर नहीं आती।’ वह कई बार इस शेर की पैरोडी बना कर गाते थे, ‘ आगे आती थी एक इशारे पर हांसी/ अब किसी बात पर नहीं आती। कई बार तो अचरज होता था कि कितना तो वह संगीत के बारे में जानते हैं। संगीत ही क्यों, नाटक या किस्से  कला पर भी । वह पूरा ठहर कर बोलते थे और अनायास ही। यह नहीं कि अपनी विद्वता बताने या जताने के लिए। अचानक कोई प्रसंग आ जाता और वह एक से एक डिटेल देना शुरु कर देते। कि मुंह खुला का खुला रह जाता। क्या संस्कृत, क्या अंगरेजी ! जब वह धाराप्रवाह बोलने लगते तो लगता जैसे किसी हरहराती पहाड़ी नदी के बीच से आप गुज़र रहे हों। और यह हरदम नहीं ही होता। होता कभी कभी ही।

घर जाने पर अकसर लोग चाय आदि से आप का स्वागत करते हैं। पर श्रीलाल जी अकसर मदिरा आदि से स्वागत करते। एक बार मैं भरी दोपहरी पहुंच गया उन के घर। दो किताबें छप कर आई थीं। देने गया। बहुत मना किया पर वह माने नहीं। कहने लगे कि दो किताबें लाए हैं तो कम से कम दो पैग तो होना ही चाहिए। मैं ने आफ़िस भी जाने की आड़ ली। पर वह बोले, ‘ कुछ नहीं, पान खा लीजिएगा।’ मैं ने फिर भी हाथ जोडे तो बोले, ‘ ठीक है। पर मुझे अच्छा नहीं लगेगा।’ माननी पड़ी उन की बात। हर बार कमोबेश ऐसा ही होता। मदिरा प्रेम उन का खूब मशहूर है। तरह-तरह के किस्से हैं। वह जब ७५ के हुए तो दिल्ली में बाकायदा समारोह मना कर हुए। लौटे तो कहने लगे कि अब प्रतिष्ठित मौत मिलेगी। नहीं पहले मर जाता तो लोग कहते कि शराबी था, मर गया ! और कह कर हंसने लगे थे। मुझे याद है कि जब सफ़दर हाशमी की हत्या हुई थी तब मुख्यमंत्री का घर घेरने कुछ लेखकों और सांस्कृतिक कर्मियों का जुलूस गया था। विरोध वक्तव्य श्रीलाल जी ने लिखा था। बहुत ही मारक और सरकार की धज्जियां उडाने वाला। पर जब पढ़ना हुआ तब तक वह मुश्किल में आ गए थे और वह वक्तव्य वीरेंद्र यादव ने पढ़ा। पर वह हाथ उठा-उठा कर अपना विरोध दर्ज करते रहे। लगातार। अभी इस साल भी जब एक साथ मेरे दो उपन्यास छप कर आए तो उन्हें देने गया। उस दिन कोई क्रिकेट मैच हो रहा था। वह लेटे-लेटे देख रहे थे। मैं चुपचाप बैठ गया। जब ब्रेक हुआ तब उन को नमस्कार किया। बेटे की मदद से वह उठे  और बैठ गए। फिर मैं ने ज़रा तेज़ आवाज़ में दो तीन बार अपना नाम जोर जोर से बता कर याद दिलाना चाहा उन्हें। वह अचानक नाराज़ हो गए। धीरे से बोले, ‘ स्वास्थ्य खराब हुआ है, याददाश्त नहीं। ज़रा धीरे बोलिए सुन रहा हूं।’ फिर खुद ही बधाई देते हुए कहने लगे कि, ” सुना है आप के दो उपन्यास आए है ?’ मैं ने सिर हिलाते हुए कहा कि, ‘ जी आप के लिए भी लाया हूं।’ उन्हों ने अपने हाथ बढ़ा दिए। मैं भाग कर बाहर गया। गाड़ी से किताबें लाकर उन का नाम लिख कर उन्हें देने लगा तो वह फिर नाराज हो गए। कहने लगे, ‘आप मेरे लिए तो लाए नहीं थे। रख लीजिए मत दीजिए।’ मैंने उन से क्षमा मांगी। कहा कि, ‘ आप से मिलने की धुन में बाहर ही भूल गया था किताबें।’ वह मुसकुराए और कहने लगे अच्छा-अच्छा। तो भी रहने दीजिए। पढ़ने लायक अब नहीं रह गया हूं।’ तो भी मैंने उन्हें जब किताब दी तो उन के चेहरे पर निराशा आ गई। बीते दिनों की याद में जाते हुए बोले, ‘सेलीब्रेट तो अब की नहीं हो पाएगा ! माफ़ कीजिए। जश्न नहीं हो पाएगा।’ मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा कि, ‘ कोई ज़रुरत भी नहीं है। आप को किताब दे दी यही जश्न है।’ वह मुसकुरा कर रह गए। फिर वह देश दुनिया बतियाने लगे। बात राजनीति की आई तो मुख्यमंत्रियों की भी। वह बोले, ‘अभी तक जितने मुख्यमंत्री मैंने देखे उनमें बेटर रामनरेश यादव ही था। कम से कम बेईमान तो नहीं था।’

उन का लोगों के बारे में विज़न बहुत साफ होता था। ऐसे ही एक बार बात चली लखनऊ के लेखकों पर तो मैंने बात ही बात में चंद्र किरण सोनरिक्सा का नाम ले लिया। वह नाम सुनते ही मगन हो गए। फिर मैंने उन के पति सोनरिक्सा जी का ज़िक्र किया। यह तब की बात है जब सोनरिक्सा जी की आत्मकथा पिंजरे की मैना नहीं आई थी। मैंने जितना उनको जद्द बद्द कहना था कहने लगा। उन्हों ने प्रतिवाद किया। मैंने कहा कि, ‘आप के कैडर के हैं इसलिए आप उनका पक्ष ले रहे हैं।’  वह धीरे से बोले, ‘आप कभी मिले भी हैं उस आदमी से ?’ मैंने सिर हिला कर हां कहा और फिर शुरु हो गया। श्रीलाल जी सुनते सुनते उठ कर खडे हो गए। बोले,  ‘मेरे साथ आइए।’ अंदर के अपने बेडरुम में ले गए। अपनी एक ब्लैक एंड ह्वाइट फ़ोटो दिखाई। जो पत्नी के साथ थी। फ़ोटो दिखाते हुए बोले, यह फ़ोटो कैसी है?’ मैने फ़ोटो गौर से देखा और मुंह से बेसाख्ता निकल गया, ‘बेमिसाल !’

वह धीरे से बोले, ‘मेरी है इसलिए ?’ मैं ने कहा कि, ‘ नहीं फ़ोटो भी बेमिसाल है !’ वह धीरे से बोले, ”है ना !’ फिर जैसे उन्हों ने जोडा, ‘ यह उसी सोनरिक्सा ने खींची है।’ मैं चुप हो गया। फिर वह सोनरिक्सा जी के फ़ोटोग्रफ़ी पर विस्तार से बतियाने लगे। फ़ोटोग्राफ़ी पर भी उन के पास अनेक विस्मयकारी जानकारियां थीं। मैं चकित था उन का यह रुप देख कर। अभी तक उन का संगीत और संस्कृत सुना था, अब फ़ोटोग्राफ़ी सुन रहा था। ठीक वैसे ही जैसे कभी साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित भगवतीचरण वर्मा पर लिखित पुस्तक पढ़ कर चकित हुआ था, अब फिर चकित हो रहा था।

वह चले गए हैं इस का दुख भी भरपूर है पर इस बात का संतोष भी है कि उन्हें वह सब कुछ मिला जो उन्हें मिलना चाहिए था। साहित्य अकादमी तो उन्हें जवानी में ही मिल गई थी, बाकी सम्मान भी। बस पद्मभूषण और  ज्ञानपीठ में देरी ज़रूर हुई। और उन्हों ने कहा भी कि हर्ष तो है पर रोमांच नहीं, तो ठीक ही कहा था। मुद्राराक्षस से उन के मतभेद के किस्से आम रहे हैं। पर सच यह है कि मुद्रा के अध्ययन और उन की विद्वता के जितने मुरीद श्रीलाल जी थे, कोई और नहीं।

बहुत समय पहले उन के गांव अतरौली गया था। यह कोई १९८६ की बात है। श्रीलाल जी के बडे भाई मिले। जो फौज से रिटायर हुए थे। हम कुछ पत्रकारों को प्रशासन द्वारा ले जाया गया था। विकास कार्यक्रमों का जायजा लेने के लिए। लेकिन श्रीलाल जी के गांव अतरौली में मोहनलालगंज से शुद्ध सड़क तक नहीं थी। लौट कर रिपोर्ट लिखने के पहले उन से बात की और कहा कि आप के गांव की सडक तक शुद्ध नहीं है। वह बेपरवाह हो कर बोले, ‘क्या पता ! २२ साल से मैं भी नहीं गया हूं अपने गांव !’ मैं ने पूछा, ‘ऐसा क्यो?’

वह बोले , क्यों क्या नहीं गया तो नही गया। होगी कोई बात !’ और वह टाल गए।

ऐसे ही जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने तो उन्हों ने उन्हें हिंदी संस्थान का उपाध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव दिया। पर श्रीलाल जी टाल गए। मैं ने पूछा, ‘ यह प्रस्ताव क्यों टाल गए ?’ वह बोले, ‘ मुलायम अपने अधीन काम करवाना चाह रहे थे। मैं ने उनसे कहा कि आप तो हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष को राज्यमंत्री का दर्जा दिए हुए हैं। तो उपाध्यक्ष बना रहे हैं कि अपना मातहत ? यह नहीं हो पाएगा।’ अभी तो जाते जाते श्रीलाल जी को  ज्ञानपीठ मिला । पर जब उन्हें व्यास सम्मान   मिला तो एक दिन ‘जश्न’ में थे। कुछ और लखटकिया पुरस्कार उन्हीं दिनों उन्हें मिले थे। तो कहने लगे कि, ‘ इतना पैसा तो अब तक रायल्टी में भी मुझे नहीं मिला।’  मैंने कहा कि, ‘ रागदरबारी तो आप का बेस्ट सेलर है।’  वह खीझ गए। बोले, ‘बेस्टसेलर नहीं मेरे गले में पत्थर बन कर लटका है। कोई रागदरबारी से आगे की बात ही नहीं करता !’ वह ज़रा रुके और बोले, ‘आप रायल्टी की बात कर रहे हैं ? तो सुनिए रायल्टी की भी हकीकत ! एक बार मैं दिल्ली गया। राजकमल की शीला संधु आईं मिलने। नई किताब मांगने लगीं। बेटा साथ था। वह बोल पडा, ‘५० हज़ार रुपए एडवांस दे दीजिए।’ वह बोलीं ठीक है। दूसरे दिन उन्हों ने ५० हज़ार रुपए भिजवा भी दिए। अब मैं खुश कि हिंदी के लेखक की इतनी हैसियत हो गई है कि ५० हज़ार एड्वांस भी मिलने लगा है एक किताब का। पर जल्दी ही यह गुमान टूटा। पता चला कि साल के आखिर में सारी किताबों की रायल्टी के हिसाब में वह ५० हज़ार जुड गया था। कोई एक किताब का एडवांस नहीं था वह। ऐसे ही एक बार मन में आया कि छुट्टी ले कर पहाड़ चलूं और कुछ लिखूं। गया भी। पर जल्दी ही यह एहसास हो गया कि  जो खर्चा होगा किताब लिखने पर प्रकाशक तो उतना भी नहीं देगा। और फिर लौट आया वापस। विश्रामपुर का संत लिखने वाले साहित्य पुर के इस संत की इतनी बातें उमड़ घुमड़ कर सामने उपस्थित हो रही हैं कि अब क्या कहूं और क्या न कहूं कि स्थिति है। बस यही कह सकता हूं कि रागदरबारी का वह दरबार तोडने  वाला श्रीलाल शुक्ल अब कोई दरबार तोड़ने के लिए हमारे बीच नहीं है। जो कि सिस्टम में रह कर भी सिस्टम तोड़ने की बात कर सके और कि कह सके  कि यह ठीक नहीं है। बंद कीजिए यह सब ! साहित्यपुर के इस संत को शत-शत नमन ! इस लिए भी कि रागदरबारी का वह रंगनाथ जो हम युवाओं में कभी गूंजता था, उस की गूंज कभी जाने वाली तो है नहीं, वह अक्स कभी मिटने वाला तो है नहीं। न ही उस वैद्य की साज़िशें, न लंगड की वह लडाई खत्म होने वाली है। वह सारी इबारतें समय की दीवार पर अभी भी चस्पा हैं जो श्रीलाल जी लिख गए हैं। उन का कथात्मक और व्यंग्यात्मक गद्य अभी भी हमारे सामने जस का तस उपस्थित है अपने पूरे वेग और वज़न के साथ।

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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