अब चुनाव निशान भर नहीं, हाथी हथियार है मायावती के लिए

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चाहे कोई माने या न माने चुनाव आयोग ने पहले राउंड में तो हाथी को वाकओवर दे दिया है। सचाई यह है कि इस फ़ैसले से मायावती और मज़बूत होंगी। चुनाव आयोग को अगर लगता है कि मायावती और उन की बसपा ने कोई आचार संहिता या चुनावी कायदे का उल्लंघन किया है जगह जगह हाथी की मूर्तियां लगा कर तो वह उस का चुनाव निशान बदलने की तजवीज़ कर सकता था। वह भी समय रहते। ऐन चुनाव में तो बिलकुल नहीं। पर नहीं  चुनाव आयोग ने एक बचकाना फ़ैसला ले कर मायावती, उन की हाथी और बसपा को वाकओवर दे दिया है और किसी ऐसे मुद्दे का राजनीतिक इस्तेमाल करना किसी को सीखना हो तो मायावती से सीखे।

 अब देखिए न भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जब तक कोई उन्हें घेरता तब तक उन्होंने उत्तर प्रदेश के बंटवारे का अस्त्र छोड़ दिया। लोग उस पर पिल पड़े। जब तक इस मुद्दे की हवा निकली उन्होंने आरक्षण का तार बजा दिया। सवर्ण से लगायत मुस्लिम आरक्षण तक का बिगुल बजा दिया। लोग जूझ-जूझ गए। फिर अभी मंत्रियों का आना जाना लगा ही था कि भाजपा ने कुशवाहा का सारा पाप अपनी गंगोत्री में धोने का फ़ैसला ले लिया। क्या तो विभीषण की भी उन्हें तलाश थी ही थी। मायावती खूब मजे में थीं। बतर्ज़ खेत खाय गदहा, मार खाय जुलहा।
मायावती को अब यह ऐसा ब्रह्मास्त्र चुनाव आयोग ने थमा दिया है जिस की काट किसी श्रीकृष्ण, किसी यदुवंशी, किसी राम या किसी हनुमान, किसी फूल या हाथ, किसी साइकिल, कार, रेलगाडी या हवाई जहाज में फ़िलहाल नहीं दिखती। जाने क्यों लोग हर चुनाव में यह बात भूल-भूल जाते हैं कि पिछडे, मुस्लिम या दलित हमारे समाज के वह दबे हुए स्प्रिंग हैं जो दबाव हटते ही पूरी ताकत से उछल कर हमारे सामने उपस्थित हो जाते हैं। यकीन न हो तो राहत इंदौरी का एक शेर गौर फ़रमाइए। कब्रों की ज़मीनें दे कर हमें मत बहलाइए / राजधानी दी थी राजधानी चाहिए। सो चुनाव आयोग का यह हाथी को ढंकने की तजवीज़ भी दलित समाज के उभार को दबाने के रुप में पेश कर मायावती अपने दलित समाज को ज़्यादा मज़बूती से एकजुट करने में लग जाएंगी। अभी भ्रष्टाचार के आरोपों के बोझ में दबी मायावती को इस हाथी के दबाव से एक नई ताकत और ऊर्जा मिल गई है इस चुनाव में। और कि जैसे कुशवाहा को ले कर भाजपा फंस गई है, न निगलते बन रहा है, न उगलते। दोनों तरफ़ से नुकसान ही नुकसान दिखाई देता है, ठीक वैसे ही चुनाव आयोग के इस एक फ़ैसले से मायावती को फ़ायदा ही फ़ायदा मिलता दिख रहा है।
हालां कि पहली प्रतिक्रिया में लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों ने बिना अपनी आंख का मोतियाबिंद हटाए, बिना दूर तक देखे एकस्वर में चुनाव आयोग के इस फ़ैसले का स्वागत कर दिया है। पर मायावती ने जो अपनी सहज और सधी प्रतिक्रिया दी है वह मौजू है। मायावती ने बेबाक कहा है कि फिर तो चुनाव आयोग को कई और चीज़ें भी ढंकनी पडेंगी। सच भी है। साइकिल या कमल का फूल या हाथ का पंजा क्या क्या ढंकेगा चुनाव आयोग?
राजनीति में ऐसे तमाम वाकए आए हैं कि प्रतिबंध या रोक जिस पर लगा है वह और अधिक तेजी से समाज में आगे आया है। हालां कि नमक कानून तोड़ना बहुत बडी घटना थी और इस घटना से उस की तुलना उचित भी नहीं है। पर याद कीजिए कि अगर महात्मा गांधी द्वारा नमक कानून तोडने का अंगरेजों ने उस कडाई से विरोध न किया होता, सख्ती न की होती, निहत्थों पर लाठियां न बरसाईं होतीं, जालियावाला बाग की त्रासद घटना न हुई होती तो क्या गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन को वह धार मिल पाई होती भला? छोडिए वह तो स्वाधीनता आंदोलन की आग थी, कुछ भी हो सकता था। पर याद कीजिए कि अगर जे पी मूवमेंट में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाकर बेवजह सख्ती न दिखाई होती तो क्या १९७७ में कांग्रेस का सूपडा जिस तरह से साफ हुआ और जनता लहर ने देश की दिशा बदल दी, यह हो पाता क्या भला? और फिर जिस तरह से जनता सरकार ने इंदिरा गांधी के खिलाफ़ बदले की कार्रवाई में जांच आयोग पर आयोग का रोलर न चलाया होता तो क्या इंदिरा जी भी इतनी जल्दी वापसी कर पातीं क्या?
छोडिए बहुत पुरानी बात नहीं है।जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की नकेल राजीव गांधी ने कसी और उन्हों ने जब इसका प्रतिरोध कर बोफ़ोर्स का बवाल खडा किया और फिर कांग्रेस से अलग हो कर जनमोर्चा बनाया तो राजीव  गांधी ने जहां तहां बैरिकेटिंग कर कर  उन का रास्ता रोका। तो क्या वी पी सिंह रुक गए? देश में पहली बार इतना प्रचंड बहुमत अगर किसी को मिला था तो राजीव गांधी को ही। पर वी पी के बोफ़ोर्स की आंधी में राजीव और उन की कांग्रेस जो बही तो अब तक संभल कर ठीक से खडी नहीं हो पाई। वी पी सिंह प्रधानमंत्री बन गए। बहुत कम समय ही वह प्रधानमंत्री भले रह पाए पर कमंडल को फोड़   कर मंडल की राह पर देश को खडा कर देश की राजनीति को एक नई दिशा, नया विजन दे गए। उन दिनों की एक घटना मुझे भुलाए नहीं भूलती। वीरबहादुर सिंह तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। फ़ैज़ाबाद से प्रकाशित एक अखबार जनमोर्चा के संपादक शीतला सिंह को वह पसंद भी बहुत करते थे। ठाकुरवाद का फ़ैक्टर था ही। पर एक दिन वह वीरबहादुर सिंह से विज्ञापन मांगने की बात पर आए तो वीरबहादुर सिंह ने साफ मना करते हुए उन से कहा कि पहले यह अखबार का नाम जनमोर्चा बदलिए फिर बात कीजिए। शीतला सिंह हकबक हो गए कि अखबार का नाम कैसे बदल दें? पर वीरबहादुर सिंह अडे रहे तो रहे। विज्ञापन नहीं दिया। कहा कि यह नाम बहुत गंदा है और मुझे पसंद नहीं है। लेकिन जनमोर्चा के विरोध ने कांग्रेस को पानी पिला दिया।

और बिलकुल अभी-अभी तो अन्ना का आंदोलन हमारे सामने से गुज़रा है। आप गौर कीजिए कि अगर दिल्ली पुलिस ने अगस्त में उन्हें गिरफ़्तार नहीं किया होता तो क्या अन्ना के आंदोलन का जो ज्वार हम सबने देखा तो क्या तब भी देखा होता? सचमुच प्रतिरोध में बहुत ताकत होती है। आप किसी भी के विरोध में देख लीजिए। बडे बडे सद्दाम हुसेन और गद्दाफ़ी बह गए। सिर्फ़ एक प्रतिरोध की बयार में। लीलाधर जगूडी की एक कविता है कि भय भी शक्ति देता है। तो यह हाथी ढकने का डर मायावती को क्या शक्ति न देगा? और फिर तब और जब मायावती तो अपने विरोध को ऐसे दूहती हैं जैसे कोई भैंस से दूध दूहे। अब सोचिए कि अगर गेस्ट हाउस कांड में मायावती के साथ सपाइयों ने अभद्रता न की होती तो मायावती का राजनीतिक वर्तमान क्या यही और यही होता भला? याद कीजिए कि गांधी को शैतान की औलाद बता कर भी उन्हों ने राजनीतिक बढत बटोर ली थी। सारी दुनिया मायावती के विरुद्ध खडी थी उन के इस एक बयान को ले कर। पर मायावती टस से मस नहीं हुईं। बाद में भले वह मुख्यमंत्री हो कर गांधी आश्रम में जा कर चरखा भी कात आईं, यह अलग बात है। पर गांधी विरोध उन का अभी भी मरा नहीं है। इस लिए कि गांधी को वह अंबेडकर के खिलाफ़ बता कर दलित समाज को अपने पक्ष में खडा करने की चाभी मानती हैं। यही नहीं मायावती के तमाम फ़ैसले पर जब कोई विरोधी स्वर आता है तो वह उस को भी अपने पक्ष में खडा कर दलित समाज को बटोर लेती हैं। और कि जो भी  रोडा बन कर ज़रा भी सामने आता है उसे दूध से मक्खी की तरह बाहर करने में एक सेकेंड की भी देरी लगाने की गलती नहीं करतीं। चाहे वह उनका कितना भी सगा क्यों न हो? वह चाहे कोई ताकतवर अफ़सर हो या कोई राजनीतिग्य। उन की पार्टी का इतिहास इन और ऐसी कहानियों से भरा पडा है। तो चुनाव आयोग ने उनके हाथी का विरोध कर के जो हथियार उन्हें सौंपा है, मायावती उसमें धार चढाने में चूक जाएंगी जो राजनीतिक पंडित ऐसा कयास लगा रहे हैं वह फिर मायावती को ठीक से जानते नहीं हैं। कि चित्त भी उन की ही है और पट्ट भी उन्हीं का। आखिर वह दलित की बेटी हैं और दलितों के साथ जो हाथी खडा है, मजाल है कि उसके सूड में वह एक सूई भी फटकने दें? हरगिज नहीं। बचपन में आप ने हाथी की वह कथा ज़रुर पढी होगी जिसमें एक हाथी, एक दर्जी की दुकान से रोज गुज़रता तो दर्जी उसको खाने के लिए कुछ न कुछ उसके सूड में थमा देता।बाद में  दर्जी के लडके ने हाथी के सूड में कुछ खाने को देने की जगह मजाक मजाक में सुई चुभोने लगा। नाराज हो कर हाथी ने एक दिन तालाब से सूड में खूब सारा पानी भर कर दर्जी की दुकान में ला कर डाल दिया। दर्जी की सारी दुकान में पानी पानी हो गया। सारे कपडे नष्ट हो गए। तय मानिए कि मायावती अपने हाथी के मार्फ़त भी ज़रुर कुछ ऐसा ही खेल करने वाली हैं। बस ज़रा इंतज़ार कीजिए।

आखिर वह दलित की बेटी तो हैं ही ना! इस हाथी मेरा साथी की पटकथा पर मायावती को ठीक से हाथ लगाने का मौका तो दीजिए। बडी बडी अदालतें उन की हाथी का कुछ नहीं कर पाईं तो यह तो चुनाव आयोग है जनाब !

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अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। वर्ष 1978 से पत्रकारिता। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई 26 पुस्तकें प्रकाशित हैं। लोक कवि अब गाते नहीं पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान, कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान तथा फ़ेसबुक में फंसे चेहरे पर सर्जना सम्मान। लोक कवि अब गाते नहीं का भोजपुरी अनुवाद डा. ओम प्रकाश सिंह द्वारा अंजोरिया पर प्रकाशित। बड़की दी का यक्ष प्रश्न का अंगरेजी में, बर्फ़ में फंसी मछली का पंजाबी में और मन्ना जल्दी आना का उर्दू में अनुवाद प्रकाशित। बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हज़ार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास),सात प्रेम कहानियां, ग्यारह पारिवारिक कहानियां, ग्यारह प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ़ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), कुछ मुलाकातें, कुछ बातें [सिनेमा, साहित्य, संगीत और कला क्षेत्र के लोगों के इंटरव्यू] यादों का मधुबन (संस्मरण), मीडिया तो अब काले धन की गोद में [लेखों का संग्रह], एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी [ राजनीतिक लेखों का संग्रह], सिनेमा-सिनेमा [फ़िल्मी लेख और इंटरव्यू], सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से तथा पॉलिन कोलर की 'आई वाज़ हिटलर्स मेड' के हिंदी अनुवाद 'मैं हिटलर की दासी थी' का संपादन प्रकाशित। सरोकारनामा ब्लाग sarokarnama.blogspot.in वेबसाइट: sarokarnama.com संपर्क : 5/7, डालीबाग आफ़िसर्स कालोनी, लखनऊ- 226001 0522-2207728 09335233424 09415130127 dayanand.pandey@yahoo.com dayanand.pandey.novelist@gmail.com Email ThisBlogThis!Share to TwitterShare to FacebookShare to Pinterest

1 COMMENT

  1. लेख अच्छा तो है ,पर कुछ बोलता नहीं है. चुनाव यागोग्य के इस कदम का अगर विरोध करता है तो बताना चाहिए की किउ एसा करना गलत है? फायदा किसका होगा प्रशन यह नहीं है बल्कि यह है की किउ गलत है? मायावती का फायदा हो या किसी और का ? सवाल यह है की एसा करके क्या चुनाव अधिकारी किसी का फायदा करने की कोशिश तो नहीं कर रहे?निष्पक्ष चुनाव में एसा करना उचित है?

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