हिंदी फ़िल्मों की खाद भी है, खनक भी और संजीवनी भी है खलनायकी (पार्ट-1)

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खलनायक जैसे हमारी समूची ज़िंदगी का हिस्सा हैं । गोया खलनायक न हों तो  ज़िंदगी चलेगी ही नहीं। समाज जैसे खलनायकों के त्रास में ही सांस लेता है और एक अदद नायक की तलाश करता है । सोचिए  कि अगर रावण न होता तो राम क्या करते ?  कंस न होता तो श्रीकृष्ण क्या करते ? हिरण्यकश्यप न हो तो बालक  प्रह्लाद क्या करता ? ऐसे जाने कितने मिथक और पौराणिक आख्यान हमारी परंपराओं में रचे बसे हैं । आज के समाज और  आज की राजनीति में भी ऐसे जाने कितने लोग और रुप मिल जाएंगे  जो् नायकत्व और खलनायकत्व कोनए रंग रुप और गंध में जीते भोगते और मरते मिल जाएंगे  तो हमारी फ़िल्में भला कैसे इस खलनायक नामक तत्व से महरुम हो जाएं भला ? वह भी हिंदी फ़िल्में ? जिन की नींव और नाव दोनों ही खलनायक की खाद पर तैयार होती है। जितना मज़बूत और ताकतवर खलनायक उतनी ही मज़बूत और सफल फ़िल्म। कोई माने या न माने यह एक प्रामाणिक सत्य है । कन्हैया लाल, जीवन से लगायत प्राण, प्रेमनाथ, प्रेम चोपड़ा  रंजीत, अजीत,  विनोद खन्ना,  शत्रुघ्न सिन्हा, अमजद खान, डैनी, अमरीश पुरी, उत्पल्ल दत्त, कादर खान, शक्ति कपूर, गुलशन ग्रोवर, गोगा कपूर, सदाशिव अमरपुरकर, परेश रावल, मोहन आगाशे, अनुपम खेर, नाना पाटेकर, मनोज वाजपेयी और आशुतोष राणा तक यह सिलसिला बरकरार है और जारी भी। ललिता पवार, शशिकला, बिंदु और अरुणा इरानी आदि को भी जोड़ लें तो कोई हर्ज़ नहीं है।
मदर इंडिया में खलनायकत्व का जो ग्राफ़ कन्हैयालाल ने गढ़ा उस का रंग इतना  चटक,  इतना सुर्ख और इस कदर कांइयांपन में गुंथा था कि नर्गिस के हिस्से की तकलीफ और यातना भी उस में ऐसे छिप जाती थी जैसे बादलों में चांद। बाढ की विपदा में सब कुछ नष्ट हो गया है,  दुधमुहा बच्चा भी चल बसा है लकिन कन्हैया लाल को अपने सूद और वासना का ज्वार ही दिखता है, कुछ और नहीं। वह खेत में चने ले कर पहुंचता है और बच्चों को चने का चारा भी फेंकता है। लेकिन बात बनती नहीं। फिर भी वह  हार नहीं मानता। तीन -तेरह करता ही रहता है। कन्हैयालाल का यही तेवर फिर व्ही शांताराम की फ़िल्म दुनिया ना माने में भी और तल्ख हुआ है, और सुर्खुरु हुआ है। हम त्वार  मामा वाला संवाद  जो उन के हिस्से है वह अलग अलग शेड में इस कदर गज़ब ढाता है कि पूछिए मत। जिस भांजी को वह एक वृद्ध से व्याहता है और फिर उस का वैभव देख और उस से मिले तिरस्कार से तिलमिलाया जब एक गधे के सामने पडते ही गधे से भी हड़बड़ा कर हम त्वार मामा कहने लग जाता है। ठीक उसी तर्ज़ में जो कहा जाता है  कि मौका पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पडता है। तो इस में जो सहज ही कसैलापन उभर कर आता है उस में शांताराम का निर्देशन तो है ही कन्हैयालाल की अदायगी  और उन का अभिनय भी सर चढ कर बोलता है। पर जल्दी ही कन्हैयालाल के कांइयांपन को भी सवा सेर मिल गया हिंदी फ़िल्म को जीवन के रुप में। इंतिहा यह थी कि परदे पर जब जीवन आते थे तो औरतें और बच्चे सहम जाते थे। मर्द बेसाख्ता चिल्ला पडते थे, ‘ हरमिया !’ जीवन की पहचान कांइयां और हरामी दोनों के रुप में थी। चश्मा ज़रा नाक के नीचे तक ला कर जब वह आधा चश्मा और आधा बिना चश्मा के देखते हुए अपने कांइयांपन को बड़ी सरलता और सहजता से परोसते , जिस में धीरे से, मनुहार से बोले गए संवादों का छौंक लगा कर जब वह अपना हरामीपन दर्शकों से शेयर करते तो खलनायकी का एक नया आकाश रच डालते। पौराणिक फ़िल्मों में जब वह नारद के रुप में नारायण-नारायण कहते परद  पर अवतरित होते तो सुस्त पडी फ़िल्म में जैसे जान आ जाती। उन का मुनीम हो या नारद सब कहीं उन का कांइयांपन ऐसे छलकता जैसे आधी भरी गगरी में से पानी।  लगभग उसी समय एक और खलनायक हिंदी फ़िल्मों मे आए के. एन. सिंह। पूरी नफ़ासत और पूरे शातिरपन के साथ शूटेड-बूटेड जब वह परदे पर आते तो लोग मारे दहशत में दांतों तले अंगुली दबा लेते। शराफ़त का मुखौटा पहन कर बहुत आहिस्ता से वह अपना कमीनापन परदे पर परोसते तो बिल्कुल किसी पिन की तरह चुभते। रहमान भी इसी नफ़ासत और शराफ़त के मुखौटे के सिलसिले को खलनायकी में आज़माते थे। कई बार वह के. एन. सिंह से इस मामले में बीस पड़ जाते थे। बिन बोले आंखों से ही कोई खलनायक अपना काम कर जाए यह आज के दौर के खलनायकों को देख कर सोचा भी नहीं जा सकता। पर के. एन. सिंह और रहमान दोनों ही इसे बखूबी करते थे। के. एन सिंह की हावडा ब्रिज़ हो अशोक कुमार वाली या फिर रहमान की गुरुदत्त वाली चौदवीं का चांद हो या साहब बीवी गुलाम, मल्टी स्टारर वक्त हो या कोई और फ़िल्म इन दोनों की शराफ़त और नफ़ासत में पगी खलनायकी का ज़हर साफ देखा जा सकता है।

बहुत कम खलनायक हैं जिन पर गाना भी फ़िल्माया गया हो। रहमान उन्हीं में से हैं। दिल ने फिर याद किया जैसा गाना भी उन के नसीब में है।  असल में असल ज़िंदगी के खलनायक भी इसी तरह के होते हैं जिन्हें हम सफ़ेदपोश के विशेषण से नवाज़ते हैं। प्राण ने इस सफ़ेदपोश खलनायक के सफ़र को और आगे बढाया पर शराफ़त के मुखौटे को उन्हों ने खलनायक के लिबास से उतार फेंका। एक तरह से वह एक साथ कई खलनायकों के सम्मीश्रण बन कर उभरे। कन्हैयालाल और जीवन का कांइयांपन,  के.एन. सिंह और रहमान का सफ़ेदपोश चेहरा और संवाद में कसैलापन व्यहवार में हरामीपन सब कुछ एक साथ वह परदे पर उपस्थित हुए तो खलनायकी के वह एक बडे प्रतिमान बन गए। खलनायकी का जो शिखर छुआ और एक तरह से जो कहूं कि खलनायकी का स्टारडम जो प्राण ने रचा वह अप्रतिम था। कह सकते हैं कि खलनायकी के खल में उन्हों ने प्राण डाल दिया। इतना कि जीवन, के. एन. सिंह, रहमान वगैरह खलनायक प्राण के आगे बेप्राण तो नहीं पर बेमानी ज़रुर हो गए। उस ज़माने में तो अशोक कुमार हों, दिलीप कुमार हों, देवानंद या राजकपूर या फिर शम्मी कपूर, सुनील दत्त, मनोज कुमार या कोई और सब के बरक्स खलनायक तो बस प्राण ही प्राण थे। कोई और नहीं। खलनायकी की लंबी पारी खेली उन्हों ने। इतनी कि वह इस से ऊब गए। सार्वजनिक जीवन में भी उन से बच्चे, औरतें दूर भगते, देखते ही डर जाते। प्राण में उन्हें एक जालिम और जल्लाद दिखता। इस जल्लादी से उन्हें मुक्ति दिलाई मनोज कुमार ने उपकार में। अब वह जल्लाद और जालिम नहीं रह गए। एक चरित्र अभिनेता बन कर वह गाने लगे थे कस्मे वादे प्यार वफ़ा सब बाते हैं बातों का क्या ! फिर तो वह ज़बरदस्त चरित्र अभिनेता बन कर उभरे। लगभग सभी चरित्र अभिनेताओं की जैसे छुट्टी करते हुए। उन के खलनायकी के समय में ही प्रेम चोपडा का बतौर खलनायक परदे पर आगमन हो चला था। उपकार में वह ही खलनायक हुए। पर प्राण को वह जो कहते हैं कि रिप्लेस नहीं कर पाए। अब खलनायकी में भी हीरो की ही तरह हैंडसम दिखने वाले लोग आने लगे।
विनोद खन्ना और शत्रुघन सिनहा ऐसे ही लोगों में शुमार थे। लेकिन अफ़सोस कि इन खलनायकों की दिलचस्पी खलनायकी में नहीं हीरो बनने में थी। सत्तर के दशक में इन दोनों ने ही खलनायकी को एक नया तेवर और नई तकनीक दी और छा से गए। यह खलनायक भी अपने हीरो की तरह ही सजते संवरते और हीरो की तरह ही दिखते थे। हीरोइन की तरफ प्यार की पेंग यह भी मारते। पर तरीका बस दुर्योधन वाला हो जाता। खलनायक जो ठहरे। अनोखी अदा में जीतेंद्र के पलट रेखा के लिए विनोद खन्ना भी उतने ही मोहित हैं और उसी तेवर में पर दुर्योधन वाली अप्रोच के साथ। ऐसे ही ब्लैकमेल में शत्रुघन सिन्हा भी राखी के लिए उतने ही बेकरार हैं जितने कि धर्मेंद्र। पर बाद में शत्रु रेखा की उन्हें लिखी चिट्ठियों पर ही ब्लैकमेल  करने लग जाते हैं तो खलनायक बन जाते हैं। विनोद खन्ना को तो फिर गुलज़ार मेरे अपने में हीरो बना देते हैं पर उसी मेरे अपने में शत्रु विनोद खन्ना के पलट खलनायक बने रह जाते हैं। दोनों ही योगिताबाली के बालों में गिरफ़्तार हैं। खैर शत्रुघन सिनहा भी ज़्यादा समय तक खलनायकी की खोल में नहीं रहे। जल्दी ही वह भी नायक बन कर छा गए। लेकिन दिलचस्प है यह याद करना भी कि विनोद खन्ना की चौडी छाती और उन की लंबाई पर औरतें उन की खलनायक के टाइम से ही थीं जब कि शत्रुघन  सिन्हा के घुंघराले बालों की स्टाइल भी उन के खलनायक टाइम पर ही लोकप्रिय हो गई थी। और देखिए न कि शत्रुघन सिन्हा को फ़िल्मों में प्रमोट करने वाले खलनायक तिवारी और अनिल धवन शत्रुघन सिन्हा के बतौर हीरो परदे पर छाते ही गुम से हो गए।

 शत्रुघन सिन्हा  की बात हो और हम खलनायक अजीत को भूल जाएं भला कैसे मुमकिन है ? जिस को पूरा शहर लायन के नाम से जानता था कालीचरन में उस की याद हिंदी फ़िल्मों के दर्शक  मोना डार्लिंग सोना कहां है के संवाद से भी करते हैं। सोचिए कि कभी यही अजीत नायक होते थे हिंदी फ़िल्मों के। हिरोइन के साथ गाना भी गाते थे। फिर वह सहनायक भी हुए। याद कीजिए मुगले आज़म या नया दौर की। जिस में वह दिलीप कुमार के साथ होते  हैं। यादों की बारात से खलनायकी की बादशाहत कमाई थी अजीत ने। जंज़ीर में  अमिताभ बच्चन के बरक्स वह खलनायक हुए। अमिताभ फ़िल्म लूट ले गए। अजीत पीछे रह गए। ऐसे ही वह कालीचरन में शत्रुघन सिन्हा के बरक्स हुए। फ़िल्म शत्रुघन सिन्हा लूट ले गए, अजीत फिर पीछे रह गए। खलनायकों के साथ यह बार-बार हुआ। अकेले अजीत के ही साथ नहीं। नायक आगे होते गए, खलनायक पीछे, बहुत पीछे।  प्रेम नाथ भी कभी नायक थे हिंदी फ़िल्मों के पर समय ने उन्हें खलनायक बना दिया। जानी मेरा नाम जैसी फ़िल्मों में खलनायकी करते करते वह भी चरित्र अभिनेता बन बैठे। अब जब फ़िल्में नायकों के हवाले पूरी तरह हो गईं तो अब खलनायक रह गए अजीत, प्रेम चोपडा, रंजीत और मदनपुरी। हां  इसी बीच डैनी डैगजोप्पा भी बतौर हीरो असफल हो कर खलनायकी में हाथ आज़माने लगे। जीवन के बेटे किरन कुमार भी असफल नायक हो कर खलनायकी आज़माने लगे। कि  तभी आई शोले ! और यह देखिए कि इस फ़िल्म ने तो जो कीर्तिमान और प्रतिमान गढने तोड़ने थे तोड़े और गढे ही एक सुपर खलनायक भी ला कर परदे पर उपस्थित कर दिया। गब्बर सिंह के रुप
में अमजद खान को। जिधर देखिए गब्बर सिंह की धूम। यह पहली बार हो रहा था कि किसी खलनायक के डायलाग जनता सुन रही थी। और कैसेट कंपनियां गाने के बजाय डायलाग की सी. बाज़ार में उतार रही  थीं। गब्बर के डायलाग। गब्बर सिंह जैसा सुपर खल चरित्र अभी तक फिर हिंदी फ़िल्म के परदे पर उपस्थित नहीं हुआ। गब्बर आज भी खलनायकी का बेजोड़ चरित्र है हमारी हिंदी फ़िल्म का। जैसे कि पौराणिक आख्यानों में  कभी रावण या कंस थे। इस गब्बर के जादू से खुद सिप्पी इतने प्रभावित हुए कि जल्दी ही उन्हों ने एक और फ़िल्म बनाई शान। और शान में शोले से भी ज़्यादा  ताम-झाम से एक  खलनायक परोसा   कुलभूषण खरबंदा को। सारा ज़ोर पूरी फ़िल्म में खलनायक को ही पेश करने में खलनायक को ही प्रोजेक्ट करने में सिप्पी ने लगा दिया। पर यह सारा कुछ फ़िल्म में दाल में नमक की जगह नमक में दाल  की तरह हो गया।
 मल्टी स्टारर फ़िल्म होने के बावजूद फ़िल्म धडाम हो गई और शाकाल भी अपने सारे स्पेशल इफ़ेक्ट सहित स्वाहा हो गया। बाद के दिनों में अमजद खान और कुलभूषण खरबंदा चरित्र अभिनेता की राह पर चल पडे।

 जारी…

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अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। वर्ष 1978 से पत्रकारिता। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई 26 पुस्तकें प्रकाशित हैं। लोक कवि अब गाते नहीं पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान, कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान तथा फ़ेसबुक में फंसे चेहरे पर सर्जना सम्मान। लोक कवि अब गाते नहीं का भोजपुरी अनुवाद डा. ओम प्रकाश सिंह द्वारा अंजोरिया पर प्रकाशित। बड़की दी का यक्ष प्रश्न का अंगरेजी में, बर्फ़ में फंसी मछली का पंजाबी में और मन्ना जल्दी आना का उर्दू में अनुवाद प्रकाशित। बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हज़ार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास),सात प्रेम कहानियां, ग्यारह पारिवारिक कहानियां, ग्यारह प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ़ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), कुछ मुलाकातें, कुछ बातें [सिनेमा, साहित्य, संगीत और कला क्षेत्र के लोगों के इंटरव्यू] यादों का मधुबन (संस्मरण), मीडिया तो अब काले धन की गोद में [लेखों का संग्रह], एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी [ राजनीतिक लेखों का संग्रह], सिनेमा-सिनेमा [फ़िल्मी लेख और इंटरव्यू], सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से तथा पॉलिन कोलर की 'आई वाज़ हिटलर्स मेड' के हिंदी अनुवाद 'मैं हिटलर की दासी थी' का संपादन प्रकाशित। सरोकारनामा ब्लाग sarokarnama.blogspot.in वेबसाइट: sarokarnama.com संपर्क : 5/7, डालीबाग आफ़िसर्स कालोनी, लखनऊ- 226001 0522-2207728 09335233424 09415130127 dayanand.pandey@yahoo.com dayanand.pandey.novelist@gmail.com Email ThisBlogThis!Share to TwitterShare to FacebookShare to Pinterest

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