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इस मुंडे को मनाऊ कैसे?

नवीन पाण्डेय ‘ निर्मल’

पहले ही आपसी गुटबाजी में उलझी बीजेपी के सामने एक और संकट खड़ा हो गया है। कल्याण सिंह और  बाबूलाल मरांडी के नक्शेकदम पर चल पड़े हैं महाराष्ट्र के पूर्व उप मुख्यमंत्री और लोकसभा में उपनेता गोपीनाथ मुंडे।
तमाम तरह के नुकसान करने के बाद छह साल बाद किसी तरह उमा भारती की पार्टी
में वापसी हुई तो ऐन उसी वक्त महाराष्ट्र में पार्टी के कद्दावर नेता गोपीनाथ मुंडे पार्टी छोड़ने की धमकी दे रहे हैं। हो सकता है, इस धमकी में ज्यादा दम न हो, लेकिन इसने पहले ही आंतरिक गुटबाजी की शिकार पार्टी
में दहशत जरूर ला दी है। सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा तो ये पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के लिए है, जिनके सिर अपने ही गृहराज्य की कलह खत्म न करा पाने के आरोप चस्पां हो गए हैं।

संगठन के बेस्ट मैनेजर बताए जाते रहे गडकरी की साख दांव पर है और वे दोनों ओर से फंसे दिखते हैं, अगर वे मुंडे की  मांगें मानते हैं, तो अपने समर्थकों के सामने कमजोर पड़ते हैं और अगर मुंडे की उपेक्षा करते हैं तो डर है वे
पार्टी ही न तोड़ दें। मुंडे इस मांग पर अड़े हैं कि उन्हें भी परंपरा तोड़कर महाराष्ट्र का प्रभारी बनाया जाए ( हालांकि प्रमोद महाजन और कल्याण सिंह के लिए ये अपने ही गृहराज्य का प्रभारी न बनाने की परंपरा पहले भी तोड़ी जा चुकी है) और महाराष्ट्र के मामलों में पूरी छूट दी जाए। वे राज्य में पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के लगातार दखल से खासे खफा हैं।

मुंडे की शिकायत है कि गडकरी प्रदेश के मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप करते हैं और उनकी राय की जानबूझकर अनदेखी की जाती है। मुंडे समर्थकों का दावा है कि उनकी कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से बातचीत अंतिम दौर में हैं
और वे बीजेपी के दो तिहाई विधायकों और तीन सांसदों के साथ कांग्रेस में जा सकते हैं। उधर कांग्रेस तो इसी मौके की ताक में बैठी है। मुंडे,महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके में पिछड़ों के सबसे प्रभावी नेता माने जाते हैं और इस मौके पर कांग्रेस को मराठवाड़ा में अपनी ताकत बढ़ाने का अवसर नजर आ रहा है। जहां तक मुंडे की सांप्रदायिक छवि का सवाल है तो इससे पहले नारायण राणे और संजय निरूपम भी शिवसेना जैसी ‘ सांप्रदायिक’ पार्टी छोड़कर कांग्रेस में आए और लोगों ने उन्हें स्वीकार भी कर लिया।

उधर इस मुसीबत से निपटने के लिए बीजेपी नेता प्रयास तो करते दिख रहे हैं, लेकिन वे मुंडे की सभी मांगे मानने को तैयार नहीं है। दरअसल मुंडे का गुस्सा अचानक नहीं फूटा है. नितिन गडकरी और गोपीनाथ मुंडे महाराष्ट्र की
सियासत में बराबर का कद रखते रहे हैं. बल्कि कहें तो मुंडे का सियासी अनुभव गडकरी से  कहीं ज्यादा रहा है। प्रमोद महाजन के समय शिवसेना-बीजेपी सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे गोपीनाथ मुंडे की ही महाराष्ट्र में तूती
बोलती थी। और गडकरी उनकी ही छत्तछाया में अपना प्रभाव बनाते रहे हैं. लेकिन प्रमोद महाजन की हत्या के बाद धीरे धीरे गोपीनाथ मुंडे का बीजेपी में रुतबा कम होता रहा। सन 2009 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी
मुंडे ने तमाम विरोध के बावजूद अपनी चलाई। उन्होंने अपनी बेटी पंकजा मुंडे पलावे, अपने भाई के दामाद मधुसूदन और  भतीजे धनंजय को तो टिकट दिलवाया ही, प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन को घाटकोपर पश्चिम से टिकट दिलाने में भी कामयाबी हासिल की। राज्य में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन तो हारा ही पूनम महाजन भी चुनाव हार गईं। इसके बाद राज्य की पूर्व उप मुख्यमंत्री रहे गोपीनाथ मुंडे को केन्द्र की राजनीति में भेज दिया गया। उस समय तो वे मान गए और पार्टी के उपाध्यक्ष होते हुए लोकसभा में पार्टी के उपनेता भी बन गए। लेकिन नितिन गडकरी के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में उनकी पूछ कम होने लगी, इससे वे खासे खफा हैं।वे चाहते हैं कि परंपरा को ताक पर रखकर उन्हें पार्टी गृहराज्य का प्रभारी बना दे। इतना ही नहीं वे विधानसभा में विपक्ष के नेता एकनाथ खडसे की जगह अपने किसी समर्थक को दिलाना चाहते हैं। दबाव में रहते हुए भी पार्टी आलाकमान ऐसी मांगे मानकर झुकता हुआ नहीं दिखना चाहता। लेकिन लगता है कि मुंडे अब आरपार का मन बना चुके हैं। आलाकमान उनको इतिहास का आईना दिखाकर भी डराना चाह रहा है, उन्हें बताया गया है कि बीजेपी से निकले तमाम कद्दावर नेता कहीं के नहीं रहे। यूपी में पिछड़ों के कद्दावर नेता माने जाने वाले कल्याण सिंह का हस्र सबको पता है और महाराष्ट्र में ही शिवसेना छोड़कर आगे चलकर मुख्यमंत्री बना देने के वादे के साथ कांग्रेस
में शामिल हुए नारायण राणे भी आज सामान्य मंत्री बने हुए हैं। लेकिन मुंडे की बगावत ने बीजेपी की भी कलई खोलकर रख दी है।

संघ के दबाव में गडकरी को पार्टी अध्यक्ष बनाते समय उनकी सांगठनिक कुशलता के कसीदे पढ़े गए थे, लेकिन उनके ही राज्य में पार्टी की दुर्दशा हो रही है। उधर आडवाणी के बाद कौन. के सवाल पर दूसरी पंक्ति के नेता आपस में ही गुटबाजी में उलझे हुए हैं और आडवाणी भी इस गुटबाजी को इसलिए हवा देते रहते हैं, ताकि अगले चुनाव में उनकी जगह कोई और सर्वमान्य नेता न होने पाए। इसीलिए कांग्रेस भले ही भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हो और गलतियों पर गलतियां करके जनता का भरोसा खो चुकी हो, मुख्य विपक्षी दल उसको चुनौती दे पाने की
स्थिति में नही है। कलह के इस दौर से बीजेपी जल्दी नहीं उबरी तो उसके हाथ कुछ नहीं लगने वाला।
( वरिष्ठ पत्रकार नवीन पाण्डेय ‘ निर्मल’  पिछले 16 साल से प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े रहे हैं। आजकल वे दिल्ली में टेलीविजन पत्रकार के तौर पर काम कर रहे हैं)

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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One Comment

  1. बहुत ही अच्छा और वैचारिक विश्लेषण है

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