नेतृत्व से बगावत करनेवाले अक्सर हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं
भारी विरोध के बीच अंशुमन मिश्र नाम के शख्स ने झारखंड से राज्यसभा चुनाव के लिए अपना नामांकन वापस कर लिया है। इसके साथ ही बीजेपी के वरिष्ट नेताओं ने राहत की सांस ली है। कहा जा रहा है कि अंशुमन को बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी का आशीर्वाद है और उन्ही के बूते वे बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी अखारे में कूद पड़े थे। सार्वजानिक जीवन में अनजान इस व्यक्ति के बहाने राज्यसभा चुनावो में पैसो की माया पर फिर से फोकस है । वही दूसरी ओर गडकरी के मनमाने फैसले के खिलाफ पार्टीजनो की जीत अलग तरह के संकेत दे रही है।
कई दिन चले इस हाई वोल्टेज ड्रामा के बीच ‘पापुलर परसेप्सन ‘ में श्रीहीन नहीं दिखने की बीजेपी नेताओ की चाहत बार -बार झाकती रही । जिस दिन नामांकन वापसी की अंशुमन की घोषणा हुई ठीक उसी दिन दिल्ली में पुस्तक विमोचन के एक कार्यक्रम में बीजेपी नेता राजीव प्रताप रूडी ने ये कहकर चौका दिया कि भारतीय राजनीति के मौजूदा तेवर को ज्यादा दिनों तक नहीं ढोया जा सकता । बाबू सिह कुशवाहा और अंशुमन प्रकरण के दौरान शीर्ष पार्टी नेतृत्व के तुगलकी फैसलों की खिलाफत क्या इस चक्रव्यूह से निकलने की अकुलाहट है। दिलचस्प है कि पुस्तक विमोचन कार्यकरम में अन्ना हजारे भी मौजूद थे।
इस सुगबुगाहट को बीते संसद सत्र में शरद यादव के उस उदगार से जोड़ कर देखें तो उम्मीद जगती है। शरद यादव ने ठसक से कहा था कि राजनेता तो सनातनी दुसरे को टोपी पहनाते आये हैं। उन्हें मलाल था कि नेताओं के इस जन्म सिद्ध अधिकार को अन्ना का आन्दोलन चुनौती दे रहा है। अब हाल के समय में देश की राजनीति को जिन अप्रत्याशित स्थितियों का सामना करना पड़ा है उन पर नजर दौड़ाएं। यहाँ रेडार पर कांग्रेस और तृणमूल आ गई। आम समझ है कि कांग्रेसी संस्कृति में हाई कमांड को चुनौती देना पार्टी नेताओं के लिए लगभग नामुमकिन सा होता है। लेकिन उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने के लिए केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ हरीश रावत के बागी तेवर ने सोनिया और राहुल की सलाहकार मंडली को सकते में डाल दिया। जनप्रिय नेता की अबहेलना और ऊपर से मुख्यमंत्री थोपने की प्रवृति का वे विरोध कर रहे थे।
नेतृत्व से बगावत करनेवाले अक्सर हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं। बावजूद इसके , क्या राजनेता अपने दलों के भीतर जड़ जमा चुकी संवादहीनता पर मुखर हो रहे हैं? क्या वे पार्टियों में आतंरिक लोकतंत्र को जीवित करने की जरूरत की ओर इशारा कर रहे हैं? आम तौर पर देश के क्षेत्रीय दलों की आभा एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है….और ये नेतृत्व सवालों से ऊपर माना जाता है। लेकिन दिनेश त्रिवेदी ने रेल मंत्री रहते हुए पार्टी नेतृत्व से भिड़ने की हिमाकत की। उन्होंने जता दिया कि वे हाई कमांड द्वारा पशुओं की तरह हांके जाने को तैयार नहीं। त्रिवेदी ने पालिटिकल सिस्टम से सवालों की झड़ी लगा दी।
देश बड़ा या पार्टी का हित बड़ा….या फिर क्या पार्टी का हित देश हित से लयबद्ध नहीं हो? इन चुभते सवालों के बावजूद इस निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी कि राजनेताओं में स्वीकार्यता छिजने को रोकने की कोई कोशिश आकार ले रही है। पर इस इच्छा-पूर्ति के लिए उनका अंतस दवाब में जरूर दिखता है। ये दवाब जन-आंदोलनों का प्रतिफल है। १६ अगस्त २०११ के जन सैलाब का असर राजनीति पर हुआ है। राजनेताओं से पूछा जा रहा है कि उनके सरोकार सत्ता में जाते ही क्यों बदल जा रहे हैं?
ऐसा नहीं कि बेचैनी सिर्फ तंत्र में है….ये लोक में भी है। लोकतंत्र में लोक का यशोगान करने वाले विश्लेषक अक्सर इसे नजर अंदाज करते पाए जाते हैं कि चुनावों में जनता के फैसले क्या जनता की आकांक्षा पूरी करने में समर्थ होते हैं? नई सरकार बनने के बाद यूपी के हालात क्या वोटरों की दूरदर्शिता दिखाते …….अन्ना आन्दोलन में लगे लोगों में इसको लेकर सकुन नहीं है? क्या आन्दोलनकारियों का सन्देश उस मुकाम तक पहुंचा है जहाँ तक इसे वे ले जाना चाहते? अन्ना आन्दोलन के तीसरे चरण की तैयारी इन्हीं सवालों से जूझ रही है। राजनीतिक वर्ग तभी तो चौकन्ना है।
Rajniti ki painch koi nayi baat nahi, rahi baat party pramukh ki manmani to ye parampara bhi purani hai, congress party mein to sada se raha hai lekin loktantra ke liye avsya subh sanket nahin hai, Lekhak ki chinta jayaj hai.
…bisvas nahi hota ki neta aasaanee se apna mijaaj badlenge