कितना सफल रहा मोदी का अमेरिका दौरा
संजय राय, नई दिल्ली
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अमेरिका दौरा अब समाप्त हो चुका है। जापान की सफल यात्रा के बाद मोदी की इस यात्रा को भी हर तरीके सफल बताया जा रहा है। 25 से 30 सितंबर के बीच हुई हुई इस यात्रा में प्रधानमंत्री ने अपने साथ.साथ विभिन्न मंचों से देश और भाजपा की विचारधारा की जबरदस्त तरीके से ब्रांडिंग की। आर्थिक और व्यापारिक संबंधों की धुरी पर केंद्रित आज की विदेशनीति के दौर में ब्रांडिंग की अहमियत काफी बढ़ गई है। प्रधानमंत्री इस हकीकत को बेहतर तरीके से समझते हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने विदेशनीति को कसने की जो कवायद शुरू की थी। वह अमेरिका में अपने पूरे शबाब पर दिखी। मोदी की प्राथमिकता सूची में पड़ोस सबसे शीर्ष पर है। इसके बाद खतरनाक पड़ोसियों के दुश्मन देशों से दोस्ती की जगह है।
अमेरिका के साथ भारत के संबंधों में यूपीए दो सरकार के शासनकाल में गिरावट आई तो इसके पीछे देश के राजनीतिक तबके में जबरदस्त सहमति रही थी। देश का जनमानस अमेरिका की भारत नीति से आहत था। भारतीय महिला राजनयिक के साथ अमेरिका की बदसलूकी ने देश के आत्मसम्मान को चोट पहुंचाई थी। इसके बाद पूर्व की यूपीए सरकार ने देश के जनमत को देखते हुये अमेरिका पर लगाम कसी थी और साबित किया था कि वह भारत को पाकिस्तान समझने की गलती न करे। नरेंद्र मोदी ने उसी सहमति को ध्यान में रखकर अमेरिका को प्राथमिकता सूची में तीसरे स्थान पर रखा। यह भारत का अमेरिका को यह साफ संदेश है कि जिस तरह से वह दुनिया भर में अपनी हांक रहा है, उस तरीके से हमें नहीं चलाया जा सकता है।
प्रधानमंत्री ने सत्ता संभालने के साथ ही विदेशनीति के क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों के दौरान गहराई तक पैठ बना चुकी जड़ता को तोड़ा है। इस दौरे में यह साफ दिखा कि प्रधानमंत्री ने अमेरिका के समक्ष देश के गुरूर को बड़े सलीके से पेश किया। देश का हर समाज, चाहे उसे मोदी पसंद हों या न हों, कम से कम विदेशनीति के मोर्चे पर अब तक के उनके कार्यकलापों से खुश नजर आ रहा है। उसे उम्मीद है कि मोदी देश को एक नये मुकाम पर अवश्य पहुंचायेंगे।
लंबे अरसे से देश एक ऐसे नेता की जरूरत महसूस कर रहा था, जो हर मंच पर मजबूती से भारत का पक्ष रख पाये। मोदी ने अमेरिका के दौरे में इस उम्मीद पर खरा उतरने की पूरी कोशिश की। लेकिन, संयुक्त राष्ट्र संघ की आमसभा में प्रधानमंत्री ने लिखित भाषण पढ़ा और कुछ कूटनीतिक गलतियां भी कीं। वह पाकिस्तान की ओर से फेंके गये कश्मीर.जाल मे बुरी तरह फंसे। इसीलिये उनके भाषण पर पाकिस्तान की ओर से स्वागत की प्रतिक्रिया आई। प्रधानमंत्री इससे बच सकते थे। बता दें कि शिमला समझौता 1971 में हुआ था, जिसमें भारत और पाकिस्तान ने इस समस्या के समाधान के लिये आपसी बातचीत की हामी भर रखी है। संयुक्त राष्ट्रसंघ भी कई बार बोल चुका है कि वह इस मसले में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। स्पष्ट है अब जनमत संग्रह की बात बेमानी हो चुकी है। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के कुछ दिन बाद ही नयी दिल्ली स्थित संयुक्त राष्ट्र संघ के उस दफ्तर को बोरिया.बिस्तर समेटने को कह दिया थाए जो कई दशकों से कश्मीर समस्या की निगरानी के लिये लिये यहां खोला गया था। संयुक्त राष्ट्संघ की आमसभा के मंच पर पाकिस्तान भले ही यह मुद्दा उठाये, भारत को इसपर अब एक शब्द भी बोलने की जरूरत नहीं थी।
अमेरिका के पास मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने देश में उनके प्रवेश पर लगाये गये प्रतिबंध को हटाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। संभवतः इसीलिये समय की नजाकत को अमेरिका भी जल्द समझ गया और मोदी के सत्तारोहण के साथ ही उनसे मुलाकात से इंकार करने वाली अपने राजदूत नैंसी पावेल को भी दिल्ली से वापस बुला लिया था। मोदी से लाख असहमति के बावजूद, देश का अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय भी इस बात से खुश नजर आ रहा है कि उन्होंने अमेरिका की दादागिरी को ध्वस्त कर दिया। मोदी हिंदुस्तान के गरूर का प्रतीक बनकर अमेरिका गये और आत्मसम्मान वाले हर भारतीय का कलेजा ठंडा करने में सफलता पाई।
विदेशनीति के इस ऐतिहासक मोड़ पर तत्कालीन यूपीए.दो सरकार का वह कदम याद आ रहा है, जब नरेंद्र मोदी पर लगे अमेरिकी प्रतिबंध पर कड़े शब्दों में शीर्ष स्तर पर विरोध दर्ज कराया गया था। भारत ने इसे अपने आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करार दिया था और कहा था कि अमेरिका को हमारे आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं है। भारत की विदेशनीति को लेकर देश के सभी राजनीतिक दलों की एकजुटता दुनिया में हमारी बहुत मजबूत ताकत है।
इसे भारतीय लोकतंत्र की खासियत ही कहा जायेगा कि जिस नरेंद्र मोदी को अमेरिका ने अपने देश में घुसने से रोक दिया थाए उसी अमेरिका की जमीन पर जाकर वह मेहमान बन गये। आतंकवाद पर उन्होंने अमेरिका को उसके घर में घेरा और कहा कि इस मसले पर उसका दोहरा मापदंड भारत को स्वीकार्य नहीं है। वहां के भारतीय समुदाय का दिल तो प्रधानमंत्री ने जीता हीए अमेरिका के साथ समूची दुनिया में भारत को एक नयी उूंचाई दी। देखा जाय तो अमेरिका के पास भारत के लोकतंत्र की आवाज को सिर झुकाकर स्वीकार करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प ही नहीं बचा था।
प्रधानमंत्री ने देश के मुसलमानों को राष्ट्रभक्त बताकर और वहां बसे भारतीय मुसलमानों ने उनका जबरदस्त इस्तेकबाल करके अमेरिका और दुनिया को यह बताने की कोशिश की है कि भारत में लोकतंत्र भले महज 67 साल का हो, लेकिन यह एक ऐसी आस्था है, जो हमारे डीएनए में रची बसी है, जो हमें हमारे पुरखों ने दी है। अब यह देखना रोचक होगा कि मोदी देश के भीतर मुसलमानों को लेकर पैदा किये जा रहे नकारात्मक भाव के प्रसार को किस तरीके से रोकते हैं।
इसके साथ ही हर मौके पर प्रधानमंत्री ने खुद को एक हिंदू नेता के रूप में पेश करने में भी किसी तरह की कोताही नहीं बरती। उन्होंने भारत की सनातन परम्परा का बखूबी प्रचार किया। मोदी ने अपनी पार्टी और पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हिंदुत्ववादी एजेंडे को पूरी बेझिझक के साथ आगे बढ़ाया। ओबामा को उन्होंने गीता की एक प्रति भेंट की। यह एक संयोग ही है कि मोदी ओबामा के घर गये, लेकिन उनका नमक नहीं खा पाये। गरम पानी पीकर उन्होंने ओबामा का दिल रखा। नवरात्रि के उपवास ने मोदी को ठीक उसी तरह से बदला चुकाने का मौका दिया, जैसे किसी रिश्तेदार से नाराज होने पर अक्सर लोग करते हैं। मुलाकात के समय ओबामा की भावभंगिमा में कहीं न कहीं पूर्व की कड़वाहट, खिसियाहट और मोदी के चेहरे पर भारत के आत्मसम्मान का पुट भी दिखा। ओबामा का उतरा चेहरा उनकी विदेशनीति के गलत आकलन पर पछतावे का भाव दिखा रहा था, तो मोदी के चेहरे पर आश्वस्ति, संतुष्टि और 125 करोड़ के देश की ताकत के साथ लक्ष्य हासिल करने का भाव था।
तय हुआ है कि भारत अमेरिका को अपनी शर्तों पर अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिये देश में कारोबार का मौका देगा। मोदी इन शर्तों को ढीला करने के लिये राजी हुये हैं। यह कैसे किया जायेगा, इस पर देश की पैनी नजर रहेगी। यात्रा के दौरान मोदी से अमेरिकी कम्पनियों के कारोबारी भी मिले। सब अपना धंधा फैलाने के लिये भारत के सामने कतार में दिखे। प्रधानमंत्री ने भारत के लोकतंत्रए युवा आबादी और विशाल बाजार का आकर्षण दिखाकर सरकार की ओर से हर तरह से सुविधा देने का वादा किया।
प्रधानमंत्री के इस दौरे के कुल चार पक्ष साफ नजर आये। पहला यह कि उन्होंने भारतीय समुदाय को एक मंच पर लाकर अमेरिका में अपनी मौजूदगी को दमदार तरीके से पेश किया। इस मंच पर अमेरिकी कांग्रेसमैनों की भारी संख्या में उपस्थिति इस तथ्य को रेखांकित करती है कि अमेरिका में भारत ने अपनी प्रभावी राजनीतिक जगह बना ली है और वहां की राजनीति पर अपना असर डालने लगा है। दूसरा यह कि प्रधानमंत्री ने वहां के भारतीय और अमेरिकी व्यवसाय जगत को भारत में निवेश के लिये आकर्षित करने की पुरजोर कोशिश की। वह इसमें सफल रहे या विफल, यह आने वाला समय बतायेगा। तीसरे पहलू के तहत प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का पक्ष रखा और चैाथा पहलू यह है कि उन्होंने अमेरिका के साथ भावी संबंधों की दशा.दिशा दुरुस्त करने की कोशिश की।
भारत के लिये अत्यंत चिंता विषय आतंकवाद है। भारत लंबे समय से इसका दंश झेल रहा है। इससे निपटने के लिए भारत और अमेरिका में आतंकवाद निरोधक पहल और इस संदर्भ में खुफिया सूचनाओं का आदान प्रदान करने पर सहमति बनी है। मोदी और ओबामा की मुलाकात के दौरान तय हुआ कि दोनों देश साझा अभियान चलाकर लश्करे तोयबा, जैशे मोहम्मद, डी कम्पनी और हक्कानी नेटवर्क को ध्वस्त करेंगे। गौर करने वाली बात यह है कि आईएसआईएस पर दोनों देशों के बीच क्या हुआ इसका ठोस खुलासा नहीं किया गया। आतंकवाद को दी जा रही फडिंग को रोकने पर भी दोनों देश मिलकर प्रयास करेंगे। यहां हमें कदम आगे बढ़ाने से पहले हेडली प्रकरण को ध्यान में रखना होगा। वह मुंबई के 26/11 आतंकी हमले का वांछित अपराधी है। हेडली को लेकर भारत सरकार के रुख में अभी तक कोई बदलाव नहीं आया है। सरकार उसका प्रत्यर्पण चाहती है। पर ऐसा लगता है कि भारत ने हर स्तर पर कोशिश करके अब इस मामले को रफा-दफा करने का मन बना लिया है। ऐसे में भारत सरकार को देश से यह बताना चाहिये कि अमेरिका के समक्ष यह मुद्दा फिलहाल किस पायदान पर और कहां अटका हुआ है। अमेरिका को हेडली के बारे सब पता था, लेकिन उसने भारत को कुछ भी नहीं बताया और उसके अब तक के रवैये से यह स्पष्ट हो गया कि हेडली को भारत कभी भी नहीं लाया जा सकेगा। खुफिया सूचनाओं के आदान-प्रदान में सही संतुलन पैदा हो और हेडली जैसे मामले दोहराये न जायें, प्रधानमंत्री और देश के सुरक्षा रणनीतिकारों को इसका विशेष ध्यान रखना होगा।
विश्व व्यापार संगठन ;डब्ल्यूटीओद्ध के मुद्दे पर दोनों देशों के बीच जारी गतिरोध बरकरार रहा। इस संदर्भ में भारत खाद्य सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं का समाधान चाहता है। दोनों देशों को उम्मीद है कि शीघ्र ही इस बारे में कोई रास्ता निकलेगा। इसके अलावा दोनों आपसी रक्षा सहयोग को 10 वर्ष और बढ़ाने पर सहमति बनने के बाद मोदी ने अमेरिकी कंपनियों को भारतीय रक्षा उत्पादन क्षेत्र में भागीदारी करने का निमंत्रण दिया। भारत और अमेरिका के बीच रक्षा संबंध अब क्रेता-विक्रेता से आगे बढ़कर साझा उत्पादन और अतंर्राष्ट्रीय बाजार में साझा बिक्री ओर चल पड़ा है। इस दिशा में भी भारत सरकार पहले की सरकारों की नीति पर तेजी से आगे बढ़ने की कोशिश में दिख रही है।
भारत और अमेरिका ने द्विपक्षीय संबंधों को नये स्तर पर ले जाने, असैन्य परमाणु करार को लागू करने में आ रही बाधाओं को दूर करने तथा आतंकवाद से लड़ने में परस्पर सहयोग की प्रतिबद्धता जतायी। इन बाधाओं को दूर करना मौजूदा सरकार के समक्ष एक जबरदस्त चुनौती होगा, क्योंकि परमाणु उूर्जा कम्पनियों के लिये बनाये गये परमाणु जवाबदेही विधेयक को भाजपा की शर्तों को मानते हुये यूपीए-दो सरकार ने संसद से पारित कराकर कानून बनाया था। अमेरिका को इस कानून में परमाणु दुर्घटना होने पर कम्पनियों पर प्रस्तावित जुर्माने को लेकर आपत्ति है। उसकी कम्पनियां भारत आने से हिचकिचा रही हैं। जीई कम्पनी को भारत में भारी निवेश की दरकार है। इस यात्रा के दौरान जीई कंपनी के आला अधिकारी ने मोदी से मुलाकात की भी की है।
मोदी और ओबामा के बीच हुई बातचीत में आर्थिक सहयोग, व्यापार और निवेश सहित व्यापक मुद्दों पर चर्चा की गई और प्रधानमंत्री ने अमेरिका में भारतीय सेवा क्षेत्र की पहुंच को सुगम बनाने की मांग की। उन्होंने इस बात पर खुशी जाहिर की कि भारत और अमेरिका के मिशनों के एक ही समय में मंगल पर पहुंचने के कुछ दिन बाद यहां मिल रहे हैं। ओबामा ने मोदी से कहा कि उन्हें भारत के साथ संबंधों को बनाने और प्रगति के रास्ते पर ले जाने का इंतजार है। दोनों नेताओं की बातचीत में अफगानिस्तान और चीन का मुद्दा विशेष रूप से उठा। समुद्र में चीन की हरकतों पर काबू पाने के उपायों पर दोनों नेताओं ने चर्चा की।
कुल मिलाकर भारत अमेरिका संबंधों में नरेंद्र मोदी और ओबामा ने गर्मजोशी का ईंधन दे दिया है। सबसे अहम बात यह कि देश की दबी चेतना को प्रधानमंत्री के इस दौरे ने झकझोर कर हिलाया है। देश का सम्मान बढ़ा है। भारत की अर्थव्यवस्था, वैश्वीकरण के जिस माॅडल का हिस्सा है, उसमें प्रधानमंत्री ने देश के मुखिया की भूमिका का बखूबी निर्वाह किया। उन्होंने सौदागरों के सरदार के सामने भारत का पक्ष मजबूती से रखा। देश की मोलभाव की ताकत को पुष्ट किया। देश की जनता भारत के इस नये उत्थान को बड़े गौर से देख रही है। देखना रोचक होगा कि अपनी धारदार और पैनी विदेशनीति से आने वाले समय में मोदी भारत को कितनी मजबूती के साथ दुनिया के नक्शे में किस नये शिखर पर स्थापित करते ंहैप्
समाप्त।
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