तर्कसंगत है जस्टिस काटजू की टिप्पणी
कल भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष मार्केंडेय काटजू ने कहा कि देश के 90 फीसदी भारतीय मूर्ख हैं। जिस पर देश की मीडिया ने आपत्ति जताई और इसे जस्टिस काटजू के विवादित बयानों की श्रंखला में एक और विवादित बयान करार दिया। पर क्या वास्तव में जस्टिस काटजू द्वारा दिया गया बयान विवदित या अमर्यादित है जबकि आज भी हमारा सामाजिक ताना बाना जातिगत और धार्मिक विचार धारा से ग्रसित है। कहने को तो हम आधुनिक हैं पर हमारी आधुनिकता का असली परिचय मौजूदा दौर में अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा माध्यम बन चुकी सोशल नेटवर्किंग साईटों पर बखूबी दिखता है। जहाँ प्रतिदिन हम जातिगत और धार्मिक लड़ाई लड़ते रहते हैं।
अभी पिछले दिनों सोशल नेटवर्किंग साईट काफी ज्यादा चर्चा में रही। इसके चर्चा में रहने का कारण इन पर अपलोड होने विवदित कान्टेन्ट्स थे जिन्हें अभिव्यक्ति के नाम पर कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोगों द्वारा सुनियोजित तरीके से जनता के बीच प्रस्तुत किया जा रहा था। इन विवादित कान्टेन्ट्स में जाति, धर्म, राजनीति सभी कुछ शामिल था और सभी को जनता हाथो हाथ ले रही थी और सभी पर पक्ष या विपक्ष में तर्क दिए जा रहे थे। बिना ये जाने समझे कि किसी भी तरह के विवादित कान्टेन्ट्स को डालने का मतलब क्या है ? और किन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इन्हें डाला गया है। यहाँ जो बात गौर करने योग्य है वो ये कि इन साईटों पर अपलोड होने वाले कान्टेन्ट्स पर टिप्पणी भी कान्टेन्ट्स डालने वाले की मानसिकता के अनुरूप आती है। मसलन यदि किसी व्यक्ति ने कांग्रेस विरोधी मानसिकता से ग्रसित होकर मोदी महागाथा की शुरुवात की, तो उस महागाथा पर आने वाली टिप्पणियों का क्रम भी कांग्रेस विरोधी और मोदी महिमा को मंडित करने वाला होगा।
अब जरा सोचिये जिस देश में एक करोड़ पढ़े लिखे लोग फेसबुक के उपयोगकर्ता हो उस देश में किसी एक विषयवस्तु पर एक जैसी टिप्पणी कैसे आ सकती है? क्या ये हमारे सामाजिक और बौद्धिक स्तर में गिरावट का संकेत नहीं है ? यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि देश में सोशल साईटों के उपयोगकर्ता ज्यादतर पढ़े लिखे, शहरी और विभिन्न उच्च पदों पर आसीन हमारे युवा हैं। देश के युवाओं की इस तरह की हरकत क्या ये साबित नहीं करती कि आज भी हम धार्मिक और जातिगत बन्धनों में बंधे हुए है?
वास्तव में आज हमारा युवा दिशाहीन है। वो पाश्चात्य सभ्यता को तो अपनाता है पर पाश्चात्य सभ्यता के उन मूल्यों पर कभी ध्यान नहीं देता है जिसके चलते आज अमेरिका और चीन जैसे देश हमसे कई गुना आगे हैं। एक तरफ जहाँ अमेरिकियों की सोच ‘मेरा देश मेरे लोग’ वाली है वही हमारी सोच ‘मेरा धर्म मेरी जाती वाली’ है। एक तरफ जहाँ हर अमेरिकी अपने देश के संसदीय चुनाव में पूरी सहभागिता निभाता है तो वही दूसरी तरफ हमारे यहाँ ज्यादतर लोग संसदीय चुनाव में हिस्सा नहीं लेते। जनता की इस सोच का फायदा चंद फिरकापरस्त राजनैतिक और धार्मिक दल उठाते हैं। ये लोग जाति और धर्म की हमारी सोच को इतना मजबूत आधार प्रदान करते हैं कि चुनाव के समय हमारी सोच राष्ट्रीय और सामजिक मुद्दों से हटकर जातिगत और धार्मिक मुद्दों पर पर आकर टिक जाती है।
आज हर राजनैतिक दल किसी न किसी जाती या धर्म का ठेकेदार बना हुआ है। कोई हिन्दुओं का ठेकेदार है, तो कोई मुस्लिमों का, तो कोई दलितों का। यही कारण है कि चुनाव के समय हमारे मत देने का आधार भी राष्टीय और सामजिक मुद्दे न होकर जातिगत और धार्मिक मुद्दे होते हैं और जो भी दल हमें इन मुद्दों को पूरा करते दिखता है हम उसे मत दे देते हैं। बाद में यही दल हमारे राष्ट्रीय हितों के मुद्दों को अपने निजी स्वार्थो की भेट चढ़ा देते हैं । जिसका ताजा उदाहरण संसद में एफडीआई पर हुई बहस और मतदान है। इसलिए ये कहना कि हमारी सोच का दायरा जातिगत और धार्मिक नहीं है मौजूदा दौर में तर्कसंगत नहीं होगा।
हालांकि अब तस्वीर धीरे धीरे बदल रही है। देश के युवाओं की सोच में बदलाव आ रहा है। पर यह बदलाव अभी आंशिक रूप में ही दिखता है। जब तक ये बदलाव व्यापक रूप से देश के शीर्ष फलक पर न दिखे तब तक जस्टिस काटजू द्वारा की गयी टिप्पणी किसी रूप में विवदित या मर्यादित नहीं होगी।
याद रहे किसी भी देश का विकास इस बात पर निर्भर करता है उस देश में रहने वाले लोगो का बौद्धिक और सामाजिक स्तर कैसा है। इसलिए अब समय की मांग है कि हम अपने विचारों को जातिगत बन्धनों से उप्पर राष्ट्रीय हितों की तरफ ले जायें ताकि हम एक नये सशक्त भारत का निर्माण कर सकें जहाँ रहने वाला नागरिक जातिगत और धार्मिक विचारधारा से ऊपर हो।
अनुराग मिश्र
स्वतंत्र पत्रकार
लखनऊ