तिरंगा बोल रहा है..!
ट्रिंग ट्रिंग…ट्रिंग ट्रिंग..ट्रिंग ट्रिंग…….हैलो नायक !
फोन पर नाम के साथ हैलो कहने का नायक का स्टाइल यूनिक है। कहता है, इस तरह कॉल करने वाला समझ जाता है कि वो नायक नाम के किसी व्यक्ति से बात कर रहा है और किसी का मेरे नंबर पर गलती से कॉल लग गया हो तो उसे तुरंत पता चल जाता है कि ये रौंग नंबर है। इस तरह बेवजह कि जिरह से बचा जा सकता है। भारत का पैसा और और एक भारतीय का समय, दोनों बच जाता है।
मेरे दूसरे सहकर्मी मुनिलाल को वैसे ये बात हज़म नहीं होती । उनका कहना है कि नायक एक कन्फ्यूज़ आदमी है। उसका बस चले तो फोन पर बिना पूछे गाँव-घर भी बताने लगे।
मैंने कहा: नायक जी, आपको स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई, एडवांस में ! कल कितने बजे आ रहे हैं ऑफिस?
नायक : मैं तो सात बजे आ जाऊंगा। पर आपका पता नहीं। हमेशा लेट आते हैं। कल कृपया कर के जल्दी आ जाएँ। देश के प्रति कम से कम एक कर्त्तव्य तो पूरा करें। और हाँ! स्वतंत्रता की बधाई मत दें. ” स्वतंत्रता” के बदले “स्वराज ” शब्द का उपयोग करें। देश में सिर्फ स्वराज आया है। स्वतंत्रता आनी अभी बाकी है। कल हमें अँगरेज़ लूटते थे…अब अपने भाई-बन्धु लूट रहे हैं..! जिस दिन ये घरेलु लूट बंद हो जाए उस दिन ये बधाई देना। ”
मैं आगे कुछ नहीं बोल पाया। समय पर आने का वादा कर के फोन रख दिया।
नायक हमेशा मुझे अपनी बेबाक जबान से चित कर देता है। पिछले दो दिन से गोकुल जी , नायक और मैं साथ मिलकर 15 अगस्त के समारोह में एक गीत गाने का अभ्यास कर रहे थे । समय की कमी है, पर नायक कहता है कि ये भी जरूरी है। कार्यालय के काम को कोई नुक्सान न हो , इसलिए गीत की तैयारी के लिए निर्धारित समय से एक घंटे पहले ऑफिस आ कर पुरजोर अभ्यास कर रहे थे। तैयारी लगभग पूरी हो गयी थी। मैं कन्नड़ अभी सीख ही रहा हूँ, और गीत को गाने से ज्यादा उसके शब्दों को समझ के गाना ज्यादा जरूरी समझता हूँ मेरे लिए ताकि मेरा अभ्यास ठीक से हो सके। 15 अगस्त को सुबह, झंडोतोलन के आधे घंटे पहले रिहर्सल के लिए गोकुल जी के घर मिलना था, पर रात को कार्यालय के किसी काम के चक्कर में मैं देर से सोया,इसलिए सुबह उठने में देरी हो गयी। मैं रिहर्सल करने तो नहीं पहुँच पाया, पर समारोह स्थल पर समय पर पहुँच गया। वैसे तब तक सभी लोग वहाँ मौजूद थे। मेरे आते ही नायक ने कमेन्ट पास किया….” आ गए मुख्य अतिथि.” मैंने उसके गुस्से को भांपते हुए उसके करीब ना खड़ा होना सही समझा। जल्दी से तिरंगे के चारो और बने घेरे में अपने लिए खड़े होने की एक जगह ढूंढ ही ली ताकि मेरी ये समय पर ना पहुँचने की बालसुलभ-स्वक्षन्दता केंद्र में ना रहे…वो भी स्वतंत्रता-दिवस जैसे मौके पर।
याद है मुझे, जब मेरे पिता हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को मुझे अपने कॉलेज ले जाते थे।ये दो दिन मैं स्कूल कभी नहीं गया। स्कूल से मुझे हमेशा डर लगता रहा है। हमारे शिक्षक प्रत्येक विद्यार्थी से पांच रूपये जमा करा कर बस एक लड्डू और एक सस्ती सी टॉफी का चूना हमें लगा देते थे। और शिक्षकों के अपने बच्चे, जो स्कूल में पढ़ते थे, उनको दुगना मिलता था। दो लड्डू और मुट्ठी भर टॉफी। हम दूसरी तीसरी में पढ़ने वालों के लिए ये अन्याय था। वैसे अपने खर्चे पर कराइ गई पार्टी मुझे आज भी अच्छी नहीं लगती। अभी दो दिन पहले ही आजतक पर एक न्यूज़ देखा। तीसरी कक्षा की एक बच्ची का हाथ उसकी शिक्षिका ने तोड़ दिया। कारण सुना तो दंग रह गया। 15 अगस्त के समारोह के लिए उससे एक रूपया माँगा गया था, बतौर चंदा ,जो वो बच्ची नहीं दे पायी। उसके टूटे हाथों पर चढ़ा प्लास्टर झक सफ़ेद था…जैसे आज़ादी ने कफ़न पहन लिया हो। मैं 15 अगस्त के दिन अपने स्कूल नहीं जाता था। माँ से पांच रूपये तो ले लेता था, पर स्कूल में नहीं देता था। अपने पास रख लेता था।बसंत साव के किराने की दूकान में मिलने वाली वो काली-सफ़ेद गोलियां और वो लेमनचूस…!! पांच रूपये में तो पूरा डब्बा आ जाए! मन भरे तो कहारिन के दोनों बेटों , लेदवा और चप्पुवा से भी बाँट लिया…जो मुझे बिना चंदा लिए क्रिकेट मैच में खिला लेते थे। बिना फील्डिंग कराये ही बैटिंग दे देते थे। मेरे लिए सच में आज़ादी का दिन होता था वो। शक्कर की गोलियों में तर मेरी आज़ादी के वो रसदार दिन मैं नहीं भूल सकता।
इन सबके इतर, ऐसा भी नहीं था कि जन-गण- मन की धुन पर मेरे रोम खड़े नहीं होते थे। इसलिए तो देशभक्ति का जश्न मनाने पापा के कॉलेज जाना अच्छा लगता था। दस दिन पहले ही एक देशभक्ति गीत की तैयारी कर लेता था और मेरे गीत को सुनकर सभी खुश भी होते थे। प्रथम, द्वितीय या तृतीय पुरस्कार तो कॉलेज के लड़कों के बीच ही बटता था, पर अलग से मेरे लिए एक विशेष पुरस्कार की भी घोषणा हो जाती थी। फिर पापा के सहकर्मी मुझे कुछ न कुछ रिटर्न गिफ्ट भी दे देते थे। कभी मेरी कविता सुनकर एक कलम, तो कभी कोई देशभक्ति गानों कि पुस्तक। मैं सच में आज़ाद था।
आज इतने सालो बाद फिर मुझे कुछ वैसा ही लग रहा था। भले ये लोग अलग हैं, इनका खान पान,वेश-भूषा,चाल-चलन, संस्कृति, रीती-रिवाज़ सब अलग है, पर भावना बिलकुल वही है और सबसे दीगर ये, कि मेरा तिरंगा वही है, केसरिया और हरी पट्टी के बीच धवल उजाले में घूमता सा प्रतीत होता वो अशोक चक्र…एक दम सेम टू सेम। फिर यहाँ पांच रूपये का चंदा भी नहीं लगता। वैसा ही कुछ माहौल था और आज मैं फिर गीत गाने जा रहा था, एक देशभक्ति गीत।
जन-वलय के बीचो-बीच तिरंगा फहरने को बेताब लग रहा था। सबकी छाती सामान्य से कुछ ज्यादा फूल रही थी। एकता की स्फूर्ति साफ़ दिखती थी, महसूस हो रहा था कि हम आज़ाद हैं। सधे-सावधान हाथों से डोर खीचते ही, एक बार फिर से तिरंगा लहरा उठा, लाल पीले फूल फिर से जैसे आकाश से झरने लगे। जन-गण-मन का सुरीला अलाप हवाओं को जैसे एक जोश दे गया….सर्र-सर्र करती हवाएं भी तिरंगे को सलामी दे रही थी।
हम तीनो ने फिर अपना गीत प्रस्तुत किया.
” धरेगवतरिसीदे स्वर्गदस्पर्धियु
सुन्दर ताईनेलऊ,नम्मी ताईनेलऊ !
देवी निन्नया शोभगिना महिमेयु
बन्निसलसदेलऊ, नम्मी ताईनेलऊ ”
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गीत समाप्त होते ही तालियों की गड़गड़हाट से पूरा माहौल गूंज उठा। भारत माता की जयकार लगने लगे। सबने मुझे हार्दिक बधाई दी…एक उतर-भारतीय होने के बावजूद भी कन्नड़ का इतना सटीक उच्चारण उनके हिसाब से एक बड़ी बात थी, जो भी हो!!! मैं बहुत खुश था। उनकी की हुई बड़ाई से नहीं, बल्कि उस गीत का मर्म समझ कर। तिरंगे के सामने उस गीत को गाना एक जोश का संचार कर गया।
बात ही बात मैंने नायक से इस गीत के गीतकार की जानकारी लेनी चाही। गीत में अपनी मातृभूमि के लिए बहुत प्यार था। इतने सुन्दर शब्दों में पिरोया गया वो गीत किसी सुन्दर व्यक्तित्व के धनि व्यक्ति का होगा, ऐसा मेरा विश्वास था।
नायक ने उन गीतकार का नाम बताया: चंद्रशेखर भंडारी। दक्षिण कन्नडा जिले के कोंकण प्रदेश का रहने वाला ये महान गीतकार एक देशभक्त है। अपने जीवन में इस गीतकार ने सिर्फ एक ही गीत कि रचना की ..अपनी पूरी काव्यकला को देश के लिए समर्पित कर दिया। नायक ने वैसे एक आश्चर्यजनक बात बताई कि उन्होने इसके बाद किसी दूसरे गीत की रचना ही नहीं की। ऐसा क्यों? इस सवाल के जवाब में इस देशभक्त का कहना है:
“आपके लिए वो एक गीत होगा..मेरे लिए वो मेरे जीवन का एकमात्र उदेश्य था। मेरे पास जितनी भी कला थी, जितने भी सुन्दर शब्द थे, जो भी था, मैंने अपने देश को दे दिया। अब मैं और कोई गीत नहीं लिख सकता….ये मेरे जीवन का पहला और आखिरी गीत है”
ये सुनकर मुझे लगा जैसे मैंने अपने जीवन का सबसे सुन्दर गीत गाया हो। किसी देशभक्त की भावना से सराबोर उस कन्नड़-गीत के बोल बार बार गुनगुनाने लगा…नम्मी ताईनेलऊ ! !नम्मी ताईनेलऊ
नायक : आपने जिस जोश से गीत गाया वो तारीफ़ के काबिल है। हम तो हम, आज तिरंगा भी खुश है। वहाँ देखो(आसमान में झरोखों से तलपट खेलते आज़ाद तिरंगे की तरफ इशारा करते हुए)…वो तिरंगा भी तुम्हारे गीत के बोल गुनगुना रहा है।तिरंगा भी बोलता है…ध्यान से सुनो…तिरंगा बोल रहा है ! मुझे तो सुनाई दे रहा है…सुनो..उस ओर..!! नम्मी ताईनेलऊ!! नम्मी ताईनेलऊ!!
मुनिलाल (व्यंग्य से .):क्या नायक जी , आप भी आज चंद्रशेखर भंडारी की तरह कोई अंतिम कविता लिखने की तैयारी करने लगे क्या? बड़े काव्यात्मक हो गए आप तो।
नायक : अरे भाई नहीं, मैं तो बचपन से ही ये महसूस करता आया हूँ। तिरंगा मुझे जीवंत लगता है। तिरंगा बोलता है। मुझे तो सुनाई देता है। उसकी लहर में कभी मुझे वन्दे-मातरम् की धुन सुनाई देती है तो कभी किसी सेनानी की हुंकार।
इसी बीच मेरे फोन पर ईमेल अलर्ट कि घंटी बजी
मैंने मेलबौक्स खोला…ब्रेकिंग न्यूज़ था। उमर अब्दुल्ला के ऊपर जूता फेंका गया था..जब वो झंडे को सलामी दे रहे थे। किसी बर्खास्त हेड कॉन्स्टेबल ने सी.एम पर अपना गुस्सा उतार दिया था।
दूसरा न्यूज़ भी था !
ब्रेकिंग न्यूज़: कर्नाटक के मुख्यमंत्री के ध्वजारोहण कार्यक्रम में एक बाधा आ गई । उनके झंडे की गिरह कुछ ठीक से बंधी नहीं थी। मुख्यमंत्री ने बहुत कोशिश की पर गिरह नहीं खोल पाए। उनके लिए दुबारा से नयी गिरह बनाई गयी।
मेल पढ़ कर मेरे चेहरे पर विस्मय और दुख की गिरह बंध गई, जिसे शायद नायक भांप गया.
नायक : क्या है भाई..हमें भी दिखाओ..! (ख़बर पढ़ कर): वाह! देश के भाग्य खुल रहे हैं। एक तरफ जूते अपनी गिरह बदस्तूर खोल रहे हैं , दूसरी तरफ तिरंगे ने अपनी गिरह खोलने देने से इनकार कर दिया। तिरंगा कुछ बोल रहा है। सुनो…!!ध्यान से सुनो.
मुनिलाल (बीच में बात काटते हुए): लगता है, आप आज भंडारी जी को दुहरा के रहेंगे। (व्यंग्य से) वैसे ये कौन सी भाषा में बोल रहा है आपका तिरंगा?
नायक (मुस्कुराते हुए) : 47 की भाषा में..उसे या तो वो शहीद समझ सकते हैं जिन्होंने इसे पहली बार लहराया था, या फिर चंद्रशेखर भंडारी, जिसने उसे महसूस किया.
सब चुप हो गए….! आज के दिन कोई बड़बोलेपन का रिस्क कौन मोल लेगा।
थोड़ी देर में ही मिठाइयां बंटनी शुरू हो गयी। मिठाई की थाल सजाकर ऑफिस का पियून, श्रीनिवास, सबके पास एक-एक कर जा रहा था। लोग अपनी मर्ज़ी से एक, दो, या तीन ले रहे थे। पास खड़ी श्रीवत्सा जी की बेटी नन्ही निवेदिता भी आई थी। अपने स्कूल नहीं गई थी । मैंने झट पास पड़े चौकलेट के डब्बे में से दो निकाल कर उसके हाथ में थमा दिया। वो चुहल कर मेरी गोद में आ गयी। आज़ादी के दिन स्कूल से आज़ाद होने की ख़ुशी मुझसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता।
थोड़ी देर बैठने के बाद हम अपने-अपने घर चले आये।
आज सुबह ऑफिस जाने के ठीक पहले मेरा फोन ईमेल कि घंटी से फिर झनझनाया:
मुझे एक अनजाना सा डर लगा।
ब्रेकिंग न्यूज़: जम्मू कश्मीर पुलिस के पंद्रह जवानों को मुख्यमंत्री कि सुरक्षा-व्यवस्था पर बरती ढिलाई के मद्देनज़र निलंबित कर दिया गया।
मैंने नायक को ये न्यूज़ नहीं पढ़ाई क्योंकि वो सैंतालिस की भाषा में तिरंगे की आवाज़ सुनने वाला इंसान है।
सुनता तो कहता: ये लीजिए ! एक और नया कारनामा। तिरंगे की आवाज़ इन्हें नहीं सुनाई देती। एक जूते की गिरह इसलिए नहीं खुली थी कि जूतों कि संख्या बढ़ा दी जाये ??
लिखा क्या गया यह तो नहीं पढ पाया लेकिन उस झरोखे में झांक कर देख्नने की कोशिश की जहाँ से भावना नि:श्रित हुइ थी………अच्छा कहना सही नहीं लगेगा ………यह तो इन सब से काफी उपर है। आजादी के प्रश्न क्या कहेंगे ? स्वराज विषय पर चर्चा करनी होगी! कोंकण की हवा बिहार की माटी को कैसे और क्यों उर्वरा दे पाती है………चन्द्र्शेखर से प्रश्न करना उचित होगा या नहीं ? ” धरेगवतरिसीदे स्वर्गदस्पर्धियु
सुन्दर ताईनेलऊ,नम्मी ताईनेलऊ !
देवी निन्नया शोभगिना महिमेयु
बन्निसलसदेलऊ, नम्मी ताईनेलऊ ”
..…और जन-गन-मन क्या वाचन करता है……तिरगा बोल रहा है……यथार्थत: ……दिखा……मन ने शक्कर के लड्डू भी खा लिए ………प्रतीति के समुनूत्पाद पर कुछ कहना आवश्यक नहीं ……अछून्न है……श्रेष्टता के साथ्………ठीक आप की तरह पारदर्शी………अकुलाया सा……
Great job Rishi – now I know more about the great song you people rendered and my salutes to Sri Chandrashekar Bhandari…