लिटरेचर लव

दि लास्ट ब्लो (उपन्यास, पार्ट- 1)

आलोक नंदन शर्मा

चैप्टर 1

संस्थान से पचास लोगों को नौकरी से हटाने की अफवाहें देशभर के ब्रांचों में अंदर ही अंदर तेजी से फैल रही थी। तीन महीने से पच्चीस हजार से अधिक वेतन पाने वाले कर्मचारियों को उनका पगार भी नहीं मिल पा रहा था। साठ हजार से ऊपर की पगार पाने वाले कर्मचारियों को किसी न किसी बहाने चलता कर दिया गया था। दस से बीस हजार रुपये पाने वाले पत्रकारों की योग्यता की फिर से जांच हो रही थी कि वे संस्थान के लिए कितना मुफीद हैं। दुनियाभर की समस्याओं पर कलम और कैमरा चलाने वाले संस्थान के पत्रकार डरे हुये थे। दिनरात ईश्वर से यही प्रार्थना करते थे कि छटनी होने वाले कर्मचारियों की फेहरिस्त में उनका नाम शामिल न हो। नौकरी पर लटकती तलवार को दिवाकर भी शिद्दत से महसूस कर रहा था, और इस मनहूस ख्याल को बार-बार झटकने की कोशिश में उसे अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ रही थी जिसका असर उसके जेहनी हालत पर पड़ रहा था। खुद को संभालने की पुरजोर कोशिश के बावजूद एक अजीब सी झुंझलाहट उस पर हमेशा तारी रहती थी। उसकी कोशिश यही होती थी कि किसी के भी साथ बहस में न उलझे। बस पगार मिलती रहे और जीवन पटरी पर चलती रहे। हां, जब कोई करीबी उससे जिरह करने या छेड़ने की कोशिश करता तो वह उसे अपने तरीके से यह समझाने की कोशिश जरूर करता था कि वक्त के थपेड़ों के आगे तनकर खड़ा होने के बजाये उसकी ओर पीठ कर देनी चाहिए।

“तुम बेवकूफ हो, गहराई में जाने के बजाये चीजों को सतही तरीके से देखते हो। दुनिया को चलताऊ अंदाज से हांकते हो और उन लोगों के साथ खड़े दिखते हो जो कुर्तक करते हैं,” पिछली सीट पर बैठे अरुण ने बाइक चला रहे दिवाकर की कानों में थोड़ी ऊंची आवाज में कहा।  दिवाकर के दिल में आया कि तुरंत मोटरसाइकिल को ब्रेक लगाये और अरुण को वहीं पर उतार कर आगे बढ़ जाये। लेकिन अपने गुस्से को जब्त करते हुये उसने जवाब दिया, “इससे मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं दुनिया को समझता हूं या नहीं। या दुनिया मुझको समझती है या नहीं। समझने और समझाने के दौर से मैं काफी आगे निकल चुका हूं। मैं तो बस इतना जानता हूं कि घर पर बीवी है, दो बच्चे हैं और पिता जी। इन सबको मुझे ही देखना है। इसके लिए मुझे हर हाल में पैसे चाहिए और हम जैसे लोगों को पैसे नौकरी करने से मिलता है। मार्क्स के शब्दों में कहा जाये तो मैं बुर्जुआ हूं। बड़ी मुश्किल से मैंने अपने लिए एक नौकरी का जुगाड़ किया है। भले ही मुझे ज्वाइनिंग लेटर न मिला हो, पीएफ नहीं कटता हो। लेकिन महीने में एक बंधी बधाई रकम तो मेरे हाथ आ ही जाती है। इससे बच्चों के स्कूल की फीस हो जाती है। घर के लोगों का खाना-खर्ची चल जाता है। इससे इतर मैं कुछ सोच ही नहीं सकता। कुछ और सोचने की खुद को इजाजत भी नहीं देता हूं। आप हैं कि बार-बार इंकलाब की बातें कर रहे हैं, तब्दीली की बातें कर रहे हैं। एक नई रोशनी की बात कर रहे हैं। मेरे दिमाग में अब कोई फितूर नहीं है। यदि गलती से कोई फितूर पैदा भी हुआ तो मैं उसे वहीं पर कुचल कर या फिर गला घोंटकर मार डालूंगा क्योंकि मेरे ऊपर कुछ लोगों को जिंदा रखने की जिम्मेदारी है।”

“तो तुम कहना चाहते हो कि मेरे दिमाग में फितूर चल रहा है!” पीछे बैठे अरुण ने थोड़ी तेज आवाज में कहा। तेज बोलन की वजह से उसकी सांसे खरखराने लगी। पिछले तीन दिनों से वह लगातार खांस रहा था और दवा के लिए उसके पास पैसे भी  नहीं थे।

“और नही तो क्या? यदि नहीं भी चल रहा है तो मेरे किस काम का? आप अपनी तमाम फलसफा के साथ मजे से रहिये। मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि मेरा इससे कुछ लेना देना नही है। आप दुनिया को गोल समझिए या फिर चपटा, इससे मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं घर जाऊंगा तो मेरे सामने कामों की एक लंबी फेहरिस्त होगी। उनसे जूझना होगा”, दिवाकर ने सपाट अंदाज में कहा। वह बहस के मूड में बिल्कुल नहीं था।

“तुम भला ऐसे कैसे रह सकते हो जबकि तुम्हारे इर्दगिर्द की दुनिया ठीक नहीं हो? तुम एक इंसान हो, और इंसान होने के नाते तुम्हारा कुछ फर्ज बनता है।    तुम्हें नहीं लगता है कि तुम समाज और दुनिया के प्रति अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हो?”, अपनी  खरासती हुई आवाज पर काबू पाने की कोशिश करते हुये अरुण ने कहा।

“जिस घर में औरते खुद को ज्यादा बुद्धिमान समझती हैं और घर की बागडोर पूरी तरह से उनके हाथ में होती है, तो फिर वहां पर आपको बोलने की इजाजत नहीं होती । उनके सामने कोई फलसफा नहीं चलता। बहुत ही प्रैक्टिकल होती हैं। दुनिया की वो सारी चीजें उन्हें चाहिए जो दूसरी औरतें इस्तेमाल करती है। और यही कंपीटीशन यदि एक ही छत के नीचे रहने वाली औरतों में हो जाये तो फिर क्या स्थिति होगी शायद आप सोच भी सकते हैं। आप मेरी स्थिति को नहीं समझ सकते इसलिए मुझे मेरे हाल पर छोड़ दें। जो बातें आप मुझे समझाना चाह रहे हैं उसके लिए न तो मेरे पास वक्त है और न ही मैं इसे समझना चाहता हूं। इन फिजूल की बातों में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है”, दिवाकर ने एक बार फिर कोशिश की वह अरुण के साथ बहस में न उलझे। बाइक की गति को बढ़ाने के लिए उसने गेयर को तीसरे नंबर में डालकर एक्सीलेटर को थोड़ा और उमेठ दिया।

“तुम ओछी बातें करते हो। तुम्हार दिमाग भी छोटा है। अब छोटे दिमाग वालों से उम्मीद भी क्या की जा सकती है ? तुम्हारे जैसे लोग बस जिंदगी बसर करते हैं, इतिहास नहीं बनाते। इतिहास बनाने के लिए धारा के खिलाफ चलना होता है, वक्त को अपनी मनचाही दिशा में मोड़ना होता है”, अरुण ने कहा।

अरुण की करीने से सजी हुई दाढियां पुरी तरह से सफेद हो चुकी थी। सिर के आधे बाल भी गायब हो चुके थे। आंखों पर चश्मा लगा हुआ था। लंबाई ज्यादा नहीं थी लेकिन दुबला पतला होने की वजह से कम भी नहीं लगता था। पैंट और शर्ट भी वह सलीके से पहनता था और पैर के जूते भी हमेशा चमकते रहते थे। उसके चेहरे पर हमेशा एक अजीब सा सुकून रहता था। अमूमन इस तरह का सुकून वैसे लोगों के चेहरों पर होता है जिन्हें पता होता है कि अपनी निर्धारित मंजिल की तरफ वह सधे हुये कदम से आगे बढ़ रहे हैं और उन्हें इसी दिशा में बिना दुख, क्लेश और हर्ष व आनंद का इजहार किये बगैर बढ़ते रहना है। उसकी उम्र 60 साल से ऊपर थी। जबकि दिवाकर की उम्र 45 साल के करीब थी। दिवाकर की अधपकी दाढ़िया बेतरतीब तरीके से बढ़ी हुई थी और सिर के बाल भी बिखरे हुये थे। शर्ट की जेब पर काली स्याही के छोटे-छोटे कई धब्बे बने हुये थे, जिससे पता चलता था कि वह अपने आप को लेकर पूरी तरह से लापरवाह हो चुका है।

बाइक स्टेशन ओवरब्रीज से लुढ़कते हुये जैसे-जैसे आर. ब्लॉक गोलंबर की तरफ बढ़ रहा था वैसे-वैसे ट्रैफिक तंग होती जा रही थी। आर. ब्लॉक. गोलबंर के पास भी निर्माण कार्य चल रहा था। गोलंबर के इर्दगिर्द की सड़कों को एक तरफ से घेरकर बड़े-बड़े पाये तैयार किये जा रहे थे। राज्यभर में बड़े पैमाने पर सड़कों और पुल-पुलियों का जाल बिछाने के बाद राजधानी पटना को फ्लाईओवर से पाटा जा रहा था। पेड़ दनादन काटे जा रहे थे। कुछ गगनचुंभी छायादार वृक्षों की कटी हुई शाखाएं यहां-वहां बिखरी हुई थी। ऑर. ब्लॉक. से दीघा तक जाने वाली रेल की एक मात्र पटरी को उखाड़ने के बाद उस पर गिट्टी और अलकतरा बिछाया जा रहा था। पश्चिम की ओर जाने वाली इस सड़क पर हांफते हुये वाहन एक दूसरे पर चीख चिल्ला रहे थे।

अचानक ट्रैफिक के बीच में फंसे होने की वजह से दिवाकर को ऐसा लगा कि सभी एक साथ मिलकर उसी पर चिल्ला रहे हैं। अरुण की बाते सुनकर उसकी चिड़चिड़ाहट बढ़ती जा रही थी। जैसे-जैसे ट्रैफिक की तंगी सख्त होती जा रही थी वैसे-वैसे बाइक की रफ्तार भी धीमी होती जा रही थी। डोलते हुये बाइक का संतुलन बनाने के लिए दिवाकर को पैरों से अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ रही थी। एक साथ कई वाहनों का धुआं उसकी नाकों से होते हुये फेफड़ों में उतर रहा था।

इसका सबसे ज्यादा असर अरुण पर हुआ। अचानक उस पर खांसी का एक लंबा दौरा पड़ा। आंखे बाहर को निकल गयी। ट्रैफिक सरकने के कगार पर पहुंच चुकी थी।

“पिछले तीन दिनों से मैं खुद को बीमार महसूस कर रहा हूं। सांस लेने में परेशानी हो रही है। दवा भी खत्म हो चुका है। दमा ऐसी बीमारी है कि मौसम बदला नहीं कि फेफड़े बताने लगते हैं। फेफड़ों की रफ्तार से पता चल जाता है कि मौसम बदल रहा रहा है। तुम्हारे पास कुछ पैसे हो तो मुझे दे देना, दवाइया लेनी है। आज तो मैं किसी तरह से काट लूंगा लेकिन कल मुश्किल हो जाएगी,” अचानक से  शुरु हुई खांसी पर बड़ी मुश्किल से काबू पाने के बाद अरुण ने कहा। वह अजीब तरह से हांफते हुये अपनी नाक और मुंह को ऑटो और मोटरों वाली धुओं से खुद को बचाने की कोशिश करता रहा। ट्रैफिक सरकते हुये एक लेन में दाखिल हो रही थी। कुछ दूर आगे बढ़ने पर ट्रैफिक के रफ्तार में इजाफा हुआ तो अरुण को धुओं से राहत मिली और दिवाकर भी थोड़ा सहज हुआ।

सतमूर्ति से होते हुये अगस्त मार्ग पर मोटर साइकिल की रफ्तार लयबद्ध होते ही बातों का सिलसिला को आगे बढ़ाते हुये अरुण ने कहा- “तुम्हारी समस्या यह है कि तुम चीजों को सीमित दायरे में देखते हो। जो कुछ दिखाई देता है उसकी हकीकत कुछ और होती है। और उस हकीकत को देखने के लिए एक दृष्टि चाहिए जो तुम्हारे पास है ही नहीं। तुम्हारे जैसे कुंद दिमाग के लोगों का धरती पर रहने का कोई औचित्य नहीं होता है। तुम्हारे जैसे लोगों की वजह से ही हमलोग चूक गये। भूमिहारों को कभी अक्ल ही नहीं आयी। और आज भी बेअक्ल ही हैं”, अरुण ने फिर अपना मुंह दिवाकर की कान में सटाकर बोला।  इसका जोरदार असर दिवाकर पर ठीके वैसा हुआ जैसा अरुण चाह रहा था।  अब तक बहस से बचने की कोशिश कर रहा दिवाकर अचानक से शुरु हो गया।

“चूक गये ! किससे? सच पूछिये तो आप जैसे लोगों ने भूमिहारों को गुमराह किया है। आप जैसे लोगों की पापों की फसल हमलोग काट रहे हैं। क्यों लड़ रहे हैं और किसके खिलाफ लड़ रहे हैं पता ही नहीं चला। और जब तक पता चलता तब तक काफी देर हो चुकी थी। वो क्या है कि सबकुछ लुटाकर होश में आये तो क्या किया वाली स्थिति हो गयी थी। आप मजदूरवाद की बात कर रहे थे, और आपके के साथ मैं भी हो लिया था। मिला क्या?  खुद अपने लोगों के खिलाफ खड़ा हो गया। जब आप अपने लोगों के खिलाफ खड़े होते हैं तो आपके लोग भी तो आपके खिलाफ खड़े होते हैं और जिन लोगों के हक व हुकूक के लिए आप खड़े होते हैं बाद में पता चलता है कि वो भी आप पर यकीन नहीं कर रहे हैं क्योंकि आप उनकी जात के नहीं है, आप भूमिहार है। वे आपको अपना प्राकृतिक दुश्मन समझते हैं। इसलिए उनकी नजर में आप विश्वास किये जाने के काबिल ही नहीं है, चाहे आप लाख मार्क्सवादी थीसीस बघारते रहे। आप समझ भी नहीं पाते और पिछड़ों और दलितों की एक नई जमात आपके खिलाफ खड़ी हो चुकी होती है, जिसकी समझ यह है कि आपके बाप दादा ने उन्हें अब तक जूतों के नीचे रखा हुआ था। ये गुस्से से भरे हुये हैं और रौंद डालना चाहते हैं। इनके दिमाग में नफरत भरी हुई है। आप चाहते हैं कि मैं इनके साथ खड़ा रहा हूं। नहीं, कभी नहीं।”

“समय बदलता जा रहा है लेकिन अभी तक भूमिहारों की हेंकड़ी नहीं गयी है”, अरुण ने उसे थोड़ा और उकसाने की कोशिश की और उसे इसमें कामयाबी भी मिली।

“और जानी भी नहीं चाहिए। भूमिहारों की पहचान जमीन और हथियार से है। आप लोगों की वजह से भूमिहारों के हाथों से ये दोनों छूटते जा रहे हैं।  बैद्धिक मार्क्सवादी क्रांतिकारी बनकर न इधर के रहे न उधर के रहे सनम वाली स्थिति हो गयी भूमिहारों की। आपकी उम्र के भूमिहारों का एक गिरोह रोमांटिक रिवोल्यूशनरी बनकर रह गया। इनकी सबसे बड़ी ट्रेजेडी तब शुरु हुई इनकी शादी एक्सिडेंटली जमीन से जुड़ी हुई हार्डकोर भूमिहारिन से होने लगी। इनकी पत्नियों ने इनकी  सारी क्रांतिकारिता को धूल चटा दी। इस बारे में डिटेल में जाने का मूड अभी नहीं है। मैं तो बस इतना जानता हूं कि आपलोगों ने भूमिहारों के एक पूरे जेनरेशन की आंखों पर मार्क्सवाद की पट्टी बांधकर उनके नियत कर्म से उन्हें भटकाने का काम किया है। हथियार और जमीन से दूर होते ही इनकी ताकत भी नष्ट होती चली गई। आरक्षण के दौर ने इनके बाद के बच्चों को सरकारी नौकरियों से दूर कर दिया। अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देने की गरज से गोतियागिरी की लड़ाई में खंडित अपने जमीन के टुकड़ों को भी खोते चले गये। ज्यादातर टुकड़े इनके हाथों से निकलकर दलितों और पिछड़ों के हाथों में आता गया। अब तो धीरे-धीरे जमीन हाथ से निकलने की वजह से सामाजिक व्यवस्था ही बदल सी गयी है। जो धारा जमीन पर लोगों के समान हक की बात करती हो वह धारा कम से कम भूमिहारों के लिए नहीं थी। बिहार में भूमिहारों की पहचान ही हथियार और जमीन थी। आप लोगों की वजह से भूमिहारों की यह पहचान गुम हुई। मार्क्सवादी शिक्षा ने भूमिहारों के एक गिरोह की बुद्धि ही पलट दी। यह शिक्षा मजदूरों, भूखों, दरिद्रों. दलितो-पिछड़ों और राढ़ रेयान के लिए तो बेहतर हो सकती है लेकिन जमीन पर काबिज भूमिहारों के लिए कतई नहीं। आप लोगों की वजह से प्रगतिशील बनने की होड़ में भूमिहारों का एक पूरा गिरोह गुमराह हुआ है।”

“तुम जैसे प्रतिक्रियावादी नस्लीय लोगों के लिए बस एक ही सजा है। वह है गिलोटिन। शरीर डॉक्टर गिलोटिन द्वारा इजाद किये गये मशीन के नीचे रखो और फिर एक झटके में सिर को धड़ से अलग कर दो,” अरुण ने उसे थोड़ा और भड़काया। वह जानता था कि एक बार बेकाबू हो जाने के बाद दिवाकर के लिए खुद को रोक पाना मुश्किल होता है। अरुण अपने उद्देश्य में कामयाब होता जा रहा था, क्योंकि दिवाकर भी अब पूरे लय ताल में आ गया था।

“मेटरनिख कहा करता था कि साम्यवादी विचारधारा मवाद से भरे हुये उस फोड़े की तरह है जिसे गर्म सलाखों से दागने की जरुरत है। इस काम को बिहार में भूमिहारों ने बखूबी किया है। जब दूसरे राज्यों में इस धारा से टकराने के लिए फौज के जवान हाथों में राइफल लिये दौड़ रहे थे उस वक्त बिहार में हथियारों से लैस भूमिहारों की एक निजी सेना साम्यवादियों को तहस करने में लगी हुई थी। लाल सलाम का आतंक गांव-गांव में कायम करने की साजिश चल रही थी। हथियारों की बदौलत ही भूमिहारों ने इस लाल आतंक को राज्य  की मदद के बिना उखाड़ा दिया। और उस वक्त बौद्धिक स्तर पर आप उनके साथ खड़े थे। इसी को कहते हैं जात और जमात के साथ गद्दारी ! जात और जमात के लिए न सिर्फ आपने लड़ाई से मुंह मोड़ा बल्कि उलूल-जुलूल बकवास करके लड़ने वाले लोगों को भी खुद उनके अपने गिरोह से दूर करके राड़ रेयान के गिरोह की उस पांत में खड़ा कर दिया जो भूमिहारों का हाथ बांधकर तेजधार हथियारों से उनका गला काटने से भी गुरेज नहीं कर रहा था। जो अपनी जात और जमात का नहीं होगा वह पूरी दुनिया का भला क्या होगा? मुझे अफसोस इस बात का है कि उस वक्त मैं भी आप जैसे लोगों के बहकावे में आकर लाल सलाम जिंदाबाद के नारे लगा रहा था। धरती पर सबका बराबर हक हो ही नहीं सकता। इस धरती को टुकड़े-टुकड़े करके बार-बार लोगों में बराबर बराबर बांट दो, हर बार जमीन के टुकड़े सिमट कर कुछेक लोगों में हाथों में आ जाएंगे। प्रकृति खुद गैरबराबरी करती है। यदि ऐसा नहीं होता तो दुनिया भर के घोड़ों की लंबाई और मुटाई एक जैसी होती।”

बाइक की रफ्तार और दिवाकर के बोलने के लय में एक तालमेल बना चुका था। बाइक सड़क पर सरपट दौड़ रही थी। खुली हवाओं की वजह से अरुण के फेफड़ों में तो ताजगी आ गयी थी, लेकिन दिवाकर की बातों से उसका दिमाग भिन्नाने लगा था। वह अब तक दिवाकर को उकसा रहा था लेकिन ज्योंही दिवाकर ने अपने नजरिये से उसे आइना दिखाना शुरु किया उसका मिजाज बदलने लगा।

एक लंबी और गहरी सांस लेने के बाद अरुण ने तल्ख लहजे में कहा, “तुम्हारी इस नस्लीय सोच से मुझे घिन्न आ रही है। तुमसे बात करना भी बेकार है। बेहतर होता तुम मुझे यहीं उतार देते। जब मंजिल ही अलग हो तो साथ चलने का क्या मतलब है? ”

दिवाकर ने भी उसी लहजे में जवाब दिया, “अभी कुछ देर पहले मेरे दिल में भी यही ख्याल आया था कि मैं आपको बीच सड़क पर अपनी बाइक से उतार दूं। ”

“मुझे भी तुम्हारे साथ नहीं जाना। तुम तो पूरी तरह से नस्लवादी हो गये हो, तुम्हारा दिमाग प्रदूषित हो चुका है। तुमसे तो अब बात करना ही मुश्किल है”, यह जानते हुये कि दिवाकर रास्ते में नहीं उतार सकता था वह लगातार इसरार किये जा रहा था। उसकी चिड़चिड़ाहट ने गुस्से का रुप धारण कर लिया था।

“आपकी मजदूर क्रांति वाली बकवास सुनता रहूं तो बहुत अच्छा! समस्या तब शुरु होती है जब आप सिर्फ कहते हैं, किसी की सुनने की स्थिति में नहीं होते । प्रदूषण तो आप लोगों के दिमाग में भरा हुआ है। पता नहीं कब और कैसे मैं भी इस प्रदूषण की चपेट में आ गया था। जब मेरे अपने लोग हथियारबंद होकर अपने खेतों के साथ-साथ अपनी मान सम्मान बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे उस वक्त मैं इस प्रदूषण की चपेट में आकर आप जैसे लोगों की पांत के पीछे खड़ा होकर दुनिया के मजदूरों एक हो के नारे लगा रहा था, जबकि मुझे भी हाथों में बंदूक लेकर आप जैसे लोगों के पीछे पिल पड़ जाना चाहिए था। आप और आपके आंदोलनों की वजह से मेरा तो सबकुछ नष्ट हो गया। मेरे अपने लोग मुझ पर विश्वास करने को तैयार नहीं है। अब मैं अपने और अपने परिवार को पालने के लिए एक अखबार में नौकर बजा हुआ हूं। वेतन भी तीन-चार महीने पर मिलता है, वह भी एक महीने का। फिर भी मुझे यह नौकरी करते रहना है।

“अच्छी बात है, नौकरी करना मेरी मजबूरी नहीं है।  मैं छोटे काम के लिए नहीं बना हूं।”

“आप क्यों छोटे काम करेंगे, आपको तो क्रांति करनी है। दुनिया बदलनी है। मैं अपनी छोटी-छोटी जिम्मेदारियों को निभा लूं, मेरे लिए यही बहुत है। आज की दुनिया में नौकरी पाना जितना मुश्किल है उससे भी ज्यादा मुश्किल है नौकरी को बचाये रखना। बड़ी मुश्किल से तो मैं यह हुनर सीख रहा हूं और आप है कि एक बार फिर मुझे डिरेल करने पर तुले हुये हैं।  ”

“मैं भूमिहारों की भलाई की बात कर रहा हूं। इस बात से मैं भी इंकार नहीं करता हूं कि यह एक लड़का प्रजाति है। और मैं खुद भी तो भूमिहार हूं।  विगत में ब्राह्मणवादी व्यवस्था को भूमिहारों ने ही  चुनौती दी थी। ब्राह्मणों के कर्मकांड को छोड़कर जो लोग खेती की ओर अग्रसर हुये वही तो भूमिहार कहलाये। बिहार में बड़ी संख्या में भगवान बुद्ध के प्रभाव में आने के बाद भूमिहारों ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था। एक बार फिर इनको बौद्ध धर्म की ओर ले जाने की जरुरत है। मुल्क में तेजी से फैल चुके कट्टरवादी हिन्दूत्व के प्रभाव को समाप्त करने लिए भी ऐसा किया जाना जरूरी है। यह प्रजाति स्वभाव से ही विद्रोही है। देश में  फैल रहे कट्टर हिन्दूवाद के खिलाफ इस जाति को तैयार करने की जरुरत है।”, अरुण ने बात के रुख को बदलने की कोशिश की।

“मैं जिस अखबार में काम कर रहा हूं वह पूरी तरह से हिन्दूवादियों का अखबार हैं। और उसका मालिक एक खूसट लाला है जो सब का खून चूसकर मोटा हो रहा है। इसके बावजूद मैं काम करते रहना चाहता हूं। मैं आपको पहले ही बता चुका हूं कि मैं किसी भी कीमत पर अपनी नौकरी खोना नहीं चाहता। इसलिए मुझे तो माफ ही करे। जिंदगी के 45 साल निकल जाने के बाद मैं इस सच्चाई को समझ सका हूं कि जिंदगी फलसफा से नहीं चलती। जीने और आगे बढ़ते रहने के लिए पैसे चाहिए। यही हकीकत है। इंसान की सारी जद्दोजहद इसी के लिए है। एक परिवार को पालने के लिए पैसे चाहिए। आप मुझे पैसे दीजिये, आप जो नारा कहेंगे लगाने के लिए तैयार हूं। जिस फलसफा को दिमाग में ठूसने को कहेंगे ठूसूंगा।   ”

बाइक जैसे ही चितकोहरा गोलंबर से आगे बढ़ी। अरुण ने कहा, “खैनी की दुकान के पास रोक देना। खैनी खत्म हो चुका है। इसका पैसा भी तुम्हीं को देना होगा। तुम्हें पता है कि मेरी जेब में एक भी पैसा नहीं है। ”

“भगवान बुद्ध के पांच उपदेशों में एक यह भी था कि  नशा मत करो”, दिवाकर ने थोड़ी चुटीली अंदाज में कहा और बाइक की स्पीड और बढ़ा दी। दिवाकर की बातों को सुनकर अरुण भी खामोश हो गया। दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला थम गया। दिवाकर ने निश्चय कर लिया था कि वह आज अरुण को एक पैसा भी नहीं देगा। उसके भन्नाये हुये दिमाग में एक साथ बहुत कुछ चल रहा था। वह मन ही मन सोच रहा था, “इनको पैसा भी दो और इनकी बातें भी सुनो। ये पैसे को तुच्छ बताते हैं जबकि जरुरत की सारी चीजें इसी से मिलती है। इनको खैनी भी चाहिए और दवा भी। यदि पैसा न हो तो एक कदम चल नहीं पाएंगे। चाहे कितना भी क्यों न बोले आज मैं इनको एक पैसा भी नहीं दूंगा। अपने घर की जरुरतों को काटकर मैं इनकी दवा के लिए पैसों का इंतजाम करता हूं। फिर भी ये मुझे बेवकूफ कहते हैं। मैं दिन रात इसी फिक्र में रहता हूं कि किसी भी तरह मेरी नौकरी बची रहे। क्या क्रांति से परिवार और जिंदगी चलती है ? परिवार को दाव पर लगा कर क्रांति के लिए सिर पर कफन बांधने का क्या औचित्य है ?

“लगता है आज तुम न तो मेरे लिए खैनी लोगे और न ही मुझे पैसे दोगे ?”, खामोशी की वजह को ताड़ते हुये अरुण ने पूछा। बिना किसी हिचक के दिवाकर एक बार फिर शुरु हो गया, “आप बिल्कुल सही समझ रहे हैं। आपको पता नहीं कि पैसे कमाने के लिए मुझे कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। कभी मैं भी यही समझता था कि पैसे न तो मेरे होते हैं, न आपके और न किसी और के। पैसे भारत सरकार के होते हैं। इनके एवज में हम सुविधाएं हासिल करते हैं। वे सुविधाएं जिन्हें देना राज्य का मकसद होना चाहिए। लेकिन अब मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि ऐसा नहीं है। पैसे मेरे होते हैं, या आपके या फिर किसी और के। और इन्हें व्यक्ति विशेष की जरुरतों के मुताबिक खर्च किया जाता है। आपको खैनी खऱीद कर देने का मतलब है कि मैं अपने परिवार की किसी सदस्य की जरुरतों में कुछ कटौती करूं। जो मैं अब बिल्कुल करने वाला नहीं हूं। आपकी जरुरतों पर मैं क्यूं खर्च करूं जबकि आप मेरे उस काम को भी तुच्छ समझते हैं जिससे मुझे पैसे आते हैं ? यह तो वही बात हो गई कि मैं आपका इस्तेमाल भी करूंगा और जब जी में आएगा आपके मुंह पर थूकूंगा भी। ”

“एक बार व्यवस्था परिवर्तन हो गया तो सबकुछ ठीक हो जाएगा”, अरुण ने कहा।

“लोग अपनी क्षमता के अनुसार काम करेंगे और जरुरत के अनुसार पाएंगे! यह मैं बहुत दिनों से सुन रहा हूं। एक पूरी नस्ल इस हवा-हवाई फलसफे के पीछे बर्बाद हो चुकी है। बर्बाद होने वालों में से आप भी है। और अब तो इस मुल्क में भगवादियों ने लाल सलाम के इस फलसफे को पूरी तरह से जमीन के अंदर दफन करने की जुगत लगा दी है। वैसे इस फलसफा को आईसीयू में पहुंचाने में लाल सलाम के रहनुमाओं ने भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है। इस मौजूं पर जब भी आपसे मेरी बात होती है मैं बार-बार यही कहता हूं कि हो सकता है कि यह फलसफा और इससे जुड़ी व्यवस्था एक तबके के लिए मुफीद हो, लेकिन मैं उस तबके से संबद्ध नहीं हो सकता। मेरे पूर्वजों के पास जमीनें थी जो क्रमश: हर आने वाली नस्लों के बीच विभाजित होती गई। भाइयों के बीच बंटवारे की वजह से जमीन के इन टुकड़ों की चौहद्दी भी दिन प्रति दिन सिकुड़ती ही जा रही है। इसके बावजूद जो भी जमीन मेरे हाथ लगी है, उसे अपने कब्जे में रखने और सही सलामत अपनी आनी वाली नस्ल को हस्तांतरित करने के लिए मैं पूरी ताकत लगा दूंगा। ”

“तुम क्रूर सामंती व्यवस्था के हिमायती बन चुके हो और यह निहायत ही खतरनाक बात है,” अरुण ने कहा।

ऐसा नहीं था कि इसके पहले दिवाकर के साथ उसकी बहस नहीं हुई थी। बहसे होती थी और खूब होती थी। हर मुद्दे पर होती थी। दिवाकर हमेशा इस बात का लिहाज रखता था कि बहस के दौरान अरुण के साथ बेअदबी न हो। लेकिन आज दिवाकर की जुबान धारदार उस्तुरे की तरह चल रहा था। वह अरुण को बख्शने के मूड में बिल्कुल नहीं था।

“आखिर मैं सामंतवाद से नफरत क्यों करूं, जबकि मेरे पूर्वजों ने इसे कायम करने में अपना खून- पसीना एक कर दिया था? इससे नफरत करने के लिए कोई एक ठोस कारण आप बता सकते हैं? हमारे पास गीता है, रामायण है और मनुस्मृति है। वेद, पुराण और उपनिषद भी हैं। आप चाहते हैं कि इन सबको उखाड़ कर फेंक दिया जाये और एक नया समाज बनाया जाये जो श्रम की पवित्रता की बुनियाद पर आधारित हो। आपकी ही भाषा में यदि कहा जाये तो आपको तो पता ही होगा कि धर्म और ईश्वर को स्थापित करने में इंसान को कितना वक्त लगा है। दुख, परेशानी और जिल्लत की घड़ी में इसी के सहारे ही तो इंसान आगे बढ़ता है और आप एक झटके से यह सब उससे छिन लेना चाहते हैं। वो भी उनलोगों के लिए जिनके पास कुछ नहीं है, जो वर्षों से हमारे पुवर्जों के सामने हाथ जोड़े खड़े रहे हैं। मुझे पता है कि आप यही बोलेंगे कि बास्तिल के पतन के साथ ही यूरोप से सामंतवाद के पतन की कहानी शुरु हो जाती है। बोलशेविकों ने रुस में भी इसे जमींदोज करने की कोशिश की, लेकिन सोवियतों के पतन के बाद एक बार फिर राष्ट्रवाद के नाम पर सामंतवाद ने वहां जड़े जमा ली। यह दूसरी बात है कि उसका स्वरुप बदला हुआ है। अपने देश में भी हमारी जड़ों को खोदने की जबरदस्त कोशिश की गई है और की जा रही है। मैं आपसे पूछता हूं, इस साम्यवाद का पैरोकार बनकर आपने अब तक क्या हासिल किया ? आप खुद भी तो अपने परिवार और जमीन से काट दिये गये हैं। यहां तक कि आपके बीवी और बच्चे भी आपको मान्यता देने के लिए तैयार नहीं है। उनकी नजर में आप एक नाकाबिल और अयोग्य इंसान है। और आपके साथ खड़ा कौन है?  वो चंद हारे हुये लोग जिनकी जिंदगी दवाइयों की मुहताज हो गई है और उनके पास दवाइयां खरीदने तक के लिए पैसे नहीं है। देखते-देखते ये लोग कब्र में चले जाएंगे, और इनके साथ आप भी जाएंगे। इस हकीकत को आप क्यों नहीं स्वीकार कर रहे हैं कि लाल क्रांति का सूरज डूब चुका है। हो सकता है कि लाल क्रांति के पहले दौर के लोग ईमानदार रहे हो, लेकिन बाद के दिनों में अधिकतर संसदीय राजनीति की राह पकड़ कर अमीर होते चले गये। अपने बच्चों को यूरोपीय मुल्कों के पूंजीवादी स्कूलो-कॉलेजों में शिक्षा दिलाते रहे और यहां के बच्चों को साम्यवाद का पाठ पढ़ाते रहे। आज मुल्क में साम्यवाद की स्थिति उस रथ की तरह हो गई है जिसके चारो चक्के गहरे कींचड़ में धंसे हुये हैं और उसको बाहर निकालने के लिए बल ही नहीं है। यदि थोड़ा बहुत बल है भी तो वह परस्पर विरोधी दिशाओं में एक दूसरे को खींच रहा है। ऐसे में फिर से रथ का निकलकर के दौड़ पाना नामुमकिन है। कोई चमत्कार हो जाये तो अलग बात है। वैसे आप लोग तो चमत्कार पर यकीन करते नहीं है”, दिवाकर झोंक में कहता गया। एक अजीब सी झुंझलाहट उसके सिर पर सवार हो गयी थी। इस तरह की झुंझलाहट की वह अक्सर शिकार होता था। फिर खुद पर काबू पाने में उसे वक्त लगता था।

“तुम अपनी सीमा से आगे बढ़ चुके हो। तुम्हारी इस तरह की बातों को सुनकर मेरे अंदर नकारात्मकता हावी हो जाती है,” अपनी तिलमिलाहट पर काबू पाने की जद्दोजहद में अरुण का चेहरा जर्द हो गया था। दिवाकर ने उस हकीकत को सामने रख दिया था जिसका सामने करने से वह कतराता था। वह अपने इस यकीन से डगमगाना नहीं चाहता था कि उसकी कोशिशें एक नई सुबह के लिए है और उस नई सुबह के लिए किसी न किसी को तो जागती आंखों से सपना देखना ही होगा। तमाम परेशानियों के बावजूद इस यकीन को वह जिंदा रखे हुये था। दिवाकर ने उसके इसी यकीन पर अपनी पूरी ताकत से हथौड़ा मारा था। उसे ऐसा लग रहा था कि अपने पैरों के नीचे की जिस जमीन को अब तक वह ठोस समझ रहा था वह अचानक से दलदल में तब्दील होता जा रहा है जिसमें उसका शरीर धीरे-धीरे धंसता जा रहा है। “लंबे समय से मैं अपनी पूरी उर्जा को समेट कर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा हूं। मुझे मालूम है कि अभी मैं मुश्किल दौर से गुजर रहा हूं, पूरा देश भी मुश्किल दौर से गुजर रहा है। ऐसे हालात पैदा कर दिये गये हैं कि आदमी सोचे नहीं, बस जूझते रहे। सोचने की प्रक्रिया को हर स्तर पर ध्वस्त किया जा रहा है। एक इंसान की फिक्र सिर्फ रोटी तक महदूद करने की साजिश चल रही है। जो लोग इन सब चीजों के बारे में सोचने की क्षमता रखते हैं उनके लिए तो और भी कठिन दौर है। व्यवस्था तुम जैसे लोगों का इस्तेमाल टूल्स की तरह कर रहा है। अचेतन रूप से लोगों को इंसान न रहने देने की साजिश की जा रही है। उनके हक में बोलकर तुम भी जाने अनजाने इस साजिश का एक हिस्सा बन रहे हो। तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की जरुरतों को मैं नकार नहीं रहा हूं। लेकिन यह भी तो देखना होगा आखिर यह व्यवस्था किस तरह के इंसानों का निर्माण कर रहा है। ”

“मैं भविष्य की नहीं वर्तमान की चिंता कर रहा हूं। आपके और मेरे बीच यही मौलिक फर्क है। आपकी व्यापक रूप से परिवर्तनकारी सारी योजनाएं भविष्यगामी है, जबकि मेरे सामने वर्तमान खड़ा है।  बच्चों के स्कूल के फीस लगेंगे ही, उन्हें दाल रोटी चाहिए ही। और भी बहुत सारी जरुरी खर्चे हैं जिन्हें किसी भी तरह से पूरा करना ही है। मेरे पास वक्त कहां है कि में इंसान के निर्माण की प्रक्रिया पर चिंतन कर सकूं। न तो मैं ज्यादा जानना चाहता हूं और न ही ज्यादा सोचना चाहता हूं। ज्यादा जानने का मतलब है ज्यादा परेशानी।”

अनीसाबाद में एक बार फिर ट्रैफिक का दबाव तंग  हो गया। गाड़िया सरकने लगी थी। दिवाकर ने

“तुम्हें मालूम होना चाहिए कि… ”

“मैं तुम्हे आगाह कर रहा हूं कि अब तुम मेरे विषय में कुछ भी नहीं बोलोगे। तुम्हारी बातों को सुनकर मेरा आत्मविश्वास डगमगाने लगा है”, अरुण ने कहा।

“फिर तो संवाद की गुंजाईश ही खत्म हो गई। मार्क्स का थीसीस, एंटी थीसीस और सींथीसी का पूरा फार्मूला ही रसातल में चला गया”, दिवाकर ने तंज किया।

बाइक अनीसाबाद गोलंबर को पार करते हुये फुलवारी शरीफ की तरफ बढ़ी। बातचीत के क्रम में ही अरुण ने कभी दिवाकर को बताया था कि वर्तमान पटना का प्राचीन नाम पुष्पपुर या फिर फुलपुर था। यही फुलपूर आज फुलवारी शरीफ है। इस इलाके में फूल जाते होते थे  और नगरीय जीवन भी यहां मजबूती से आबाद था। अरुण को बलमी चक मोड़ के करीब उतरना था जबकि दिवाकर कुछ फलांग जाना था। रात नौ बजे के बाद इस सड़क पर ट्रैफिक का दबाव कुछ कम हो जाता था। सड़क खाली थी इसलिए बलमीचक मोड़ तक आने में दिवाकर को ज्यादा वक्त नहीं लगा। बाइक रुकते ही अरुण उतर गया और बोला,“ कुछ पैसे हैं तो दे दो, वाकई में सख्त जरुरत है। दवाइया खत्म हो गई हैं। यदि खांसी शुरु हो गयी तो रात में मेरी दुर्गत हो जाएगी।” दिवाकर की जेब में चार सौ रुपये थे। बेटी ने कुछ कॉपिया लाने को कहा था। कॉपियां न होने की वजह से  स्कूल में कई बार डांट सुन चुकी थी। कुछ देर तक वह मन ही मन हिसाब लगाता रहा और जेब में पड़े हुये चार सौ रुपये में से दो सौ निकाल कर अरुण की हाथों पर रख दिया।

“इतने में नहीं होगा, कुछ और चाहिए।” हाथ में पड़े हुये रुपये को देखते हुये अरुण ने कहा। दिवाकर ने बाकी के बचे हुये दो सौ रुपये भी उसके हाथ पर रख दिये और यह सोचते हुये बाइक आगे बढ़ा दी कि बेटी के लिए कौन सा बहाना बनाएगा।

…….जारी

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