नीतीश की बगीया, मांझी और साजिश

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लगभग सभी राष्ट्रीय चैनलों में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के घर के बगीचे का विजुअल्स दिन भर चलता रहा। कामेंट्री में कहा जा रहा था कि बगीचे में आम, लीची और कटहल की रखवाली के लिए इन्हें तैनात किया गया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन फलों को पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को चखने देना नहीं चाहते। इसके बाद फिर बाइट कलेक्ट करने का दौर शुरु हुआ। तब तक नेट पर भी ये खबरें जोर पकड़ चुकी थी, और बाद में अखबारों में पैर पसारती चली गई। नीतीश के बगीये के आम और लीची को मीडिया ने खूब चूसा महादलित की चासनी में लपेट कर। जीतन राम मांझी भी मीडिया से अपनी चुसाई के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे। उन्होंने महादलितों के साथ भेदभाव का राग जपना  शुरु कर दिया और अभी तक यह अलाप रहे हैं।

मुख्यमंत्री पद से रुखसत होने से पहले ही जीतनराम मांझी ने महादलित के रूप में रोना शुरु कर दिया था। मुख्यमंत्री पद पर बैठने के बाद उन्हें उनकी शक्ति का अहसास मीडिया ने ही करवाया था। अब यही मीडिया उन्हें लगातार महादलितवाद के धुन पर नचा रहा है और इसमें अहम भूमिका मीडिया के पीछे बैठे उन लोगों की है, जो इस तरह के विजुअल्स अरेंज करते हैं, और फिर उन्हें मनमाना शक्ल देकर मनोवांछित लाभ हासिल करते हैं। राजनीति में जो कुछ भी दिखाई देता है वह पूर्वनियोजित होता है। एक ही ट्रैक पर राजनीतिक फिजा को आकार देने वाली खबरें भी नियोजित और प्रायोजित होती हैं।

विजुअल्स से बाइट तक सफर करते हुये यह खबर बिहार की राजनीति में महादलित के धार पर और शान चढ़ाने की कवायद करती रही। जिसके निर्माता खुद नीतीश कुमार हैं। अपने पहले टर्म में बिहार में विकास पुरुष की छवि के साथ निखरने वाले नीतीश कुमार ने महादलित का गठन विकास की ओर बढ़ते कदम के नारों के साथ किया था। महादलितों को एक आकार दिया था। यहां तक कि मांझी को मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठाने वाले भी नीतीश कुमार ही थे।

जीतनराम मांझी नीतीश कुमार के विकासवादी सामाजिक राजनीतिक के एक कमजोर कड़ी साबित हुये हैं। महादलित के नाम पर उकसा कर उनकी महत्वाकांक्षा को आसानी से हथियार में तब्दील करने में बीजेपी कामयाब रही है। मांझी पर सावधानी से होमवर्क करने के बाद उनसे मनचाहा परिणाम लेने की जुगत बनाई गई। इसमें मीडिया का भी भरपूर इस्तेमाल किया गया। महादलित के एक महान नेता के तौर पर उन्हें उनकी इमेज दिखाई गई, वह इस मायाजाल में फंसते चले गये और फिर टूटकर नीतीश कुमार के सोशल इंजीनीयरिंग के चक्के से अलग हो गये। उनके मुंह में बस महादलित का ग्रीसनिल रह गया है।

मांझी की भूमिका नीतीश कुमार के विकासवादी सामाजिक राजनीति में रथ में जुते हुये आगे वाले चक्के की तरह थी। उन्हें बस मुख्यमंत्री के पद से चक्के की तरह दौड़ना था। ऐसा न करके उन्होंने नीतीश कुमार की सोशल इंजीयरिंग को तो ध्वस्त किया ही है, महादलितों के हितों को भी चोट पहुंचाया है। नीतीश कुमार बिहार की राजनीति से आगे निकल कर राष्ट्रीय राजनीति को आकार देना चाह रहे थे। मांझी के सहारे सोशल इंजीनियरिंग का चक्का भी सही तरीके से चलता रहता। जीतन राम मांझी भी कई तरह की लोककल्याणकारी योजनाओं को मजबूती से चला कर महादलितों को भी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से ऊपर उठाने की पुरजोर कोशिश कर सकते थे। मीडिया के बहकावे में आकर उनका तथाकथित स्वाभिमान जाग गया और उन्होंने नीतीश कुमार के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया। जबकि हकीकत में मांझी नीतीश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग के एक अहम पूर्जा थे। बिहार तो विकास की पटरी पर तो दौड़ता ही देश में उठ रहे फासीवादी लहर से भी मजबूती से मुकाबला किया जा सकता था।

नीतीश कुमार के विकासवादी सामाजिक राजनीतिक से अलग हटकर महादलितवाद का झंडा बुलंदकर करके मांझी बिहार विधानसभा 2015 के चुनाव में प्रत्यक्षरूप से भाजपा को ही लाभ पहुंचा रहे हैं। चुनाव के बाद मांझी को फिर से मुख्यमंत्री बनाने के हक में बिहार के मतदाता मतदान करेंगे इसमें संदेह ही है। हां, महादलितवाद की भावना के सहारे उन्हें अपने तबके का कुछ फीसदी वोट जरूर हासिल हो जाएगा। बीजेपी के सहारे बिहार के मुख्यमंत्री पद पर उनका दोबारा पहुंच पाना मुश्किल है। बीजेपी के साथ मिलकर महादलितों के हित में कोई ठोस कदम उठाने का शायद ही उन्हें फिर मौका मिले।

केंद्र में भाजपा की सरकार है, और जिस तरह से आईआईटी मद्रास के अंबेदकर-पेरियार स्डटी सर्कल पर प्रतिबंध लगाया गया है उससे इतना तो साफ हो गया है कि केंद्र की मोदी सरकार एक ओर अंबेदकर की विचारधारा को कुचलने की तो दूसरी ओर अंबेदकर के चरित्र को हिन्दूवादी नजरिये से तोड़ने की साजिश कर रही है। एक अलग राजनीतिक खेमा चलाने की लालसा में मांझी यह भी नहीं देख पा रहे हैं कि कैसे भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर दलितों और महादलितों को गुमराह कर रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अपने इस प्रयोग की असफलता का अहसास भी है और दुख भी। बावजूद इसके नीतीश कुमार बिहार में भाजपा के खिलाफ मजबूत गोलबंदी करने की कवायद में जुटे हैं। बिहार में  व्यवहारिक राजनीतिक की नब्ज को समझने वाले राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद फासीवादी खेमें के खिलाफ गोलबंदी में मांझी के महत्व को अच्छी तरह से समझ रहे हैं। यही वजह है कि मांझी के साथ भी तालमेल पर जोर दे रहे हैं। वक्त की नजाकत को देखकर नीतीश कुमार को भी मांझी के प्रति नरम रवैया अपनाने की जरूरत है, और मांझी को भी चाहिये कि वह खुद को भाजपा का दलितघाती हथियार बनाने से बचाये।

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