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दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में से 49 फीसदी भारत में

शिरीष खरे, मुंबई

आज से बीस साल पहले  1989 को सयुंक्त राष्ट्र द्वारा पारित बाल-अधिकारों के कन्वेंशन के जरिए बच्चों के लिए एक बेहतर, स्वस्थ्य और सुरक्षित दुनिया का लक्ष्य रखा गया था। मगर समय के दो दशक गुजर जाने के बाद आज बच्चों की यह दुनिया कहीं बदतर, असुरक्षित और बीमार दिखाई देती है। हालांकि इस दुनिया में उप-सहारीय अफ्रीका और दक्षिण-एशिया के देशों की हालत बहुत पतली है। मगर इन  देशों के बीच भारत की हालत और भी खराब दिखाई देती है। मामले चाहे भूख, गरीबी, शोषण, रोग तथा बच्चों के साथ बरते जाने वाले दुर्व्यवहार से जुड़े हों या प्राथमिक स्वास्थ्य और शिक्षण सुविधाओं से ताल्लुक रखने वाले आकड़ों और तथ्यों से हों, कुलमिलाकर भारत की हालत अत्यंत दयनीय बन पड़ी है।

 युनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि  5 साल तक की उम्र के बच्चों की मौतों के क्रम में भारत बहुत आगे खड़ा मिलता है।  यह रिपोर्ट 5 साल तक की उम्र के बच्चों की मौतों को समग्र विकास का एक निर्णायक पैमाना मानते हुए जाहिर करती है कि इस पैमाने पर भारत का स्थान 49वां है। यह स्थान पड़ोसी देश बांग्लादेश (58वां स्थान) और नेपाल (60वां स्थान) से थोड़ा सा  ही अच्छा है। जबकि दक्षिण एशिया में बाल-मृत्यु के पैमाने पर सबसे अच्छी स्थिति श्रीलंका (15वां स्थान) की है।

 द स्टेट ऑव द वर्ल्डस् चिल्ड्रेन के नाम से जारी होने वाली युनिसेफ की इस रिपोर्ट का मकसद बाल-अधिकारों से जुड़े वैश्विक कंवेंशन का विकास, विस्तार, उपलब्धियों और चुनौतियों को जांचना होता है। इस रिपोर्ट में एक सकारात्मक तथ्य यह है कि साल 1990 के बाद से 5 साल तक की उम्र के बच्चों के बीच औसत से कम वजन वाले बच्चों की संख्या दुनियाभर में कम हुई है। यह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है खासकर से तब जबकि 5 साल तक की उम्र के बच्चों के बीच मृत्यु-दर अब भी काफी ऊंची बनी हुई है। उप-सहारीय अफ्रीका तथा दक्षिण-एशिया बाल-विवाह और बाल-मजदूरी के मामले काफी गंभीर और बहुतायत में पाए जाते हैं। रिपोर्ट आगाह करती है कि अगर हम वाकई बाल-अधिकारों से जुड़ी हुईं समस्याओं का समाधान करना चाहते हैं तो इसके लिए हमें नए सिरे से सोचते हुए पुराने तौर-तरीकों को बदलने की जरुरत होगी। संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के मुताबिक बाल-अधिकारों का दायरा भी बढ़ाये जाने की जरुरत है।

भारत में सरकारी आकड़ों के हवाले से देश की 37.2% आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। यह दर्शाती है कि देश में गरीबी बहुत तेजी से बढ़ रही है। यही वजह है कि अर्थव्यवस्था से जुड़े तमाम बड़े दावों के बावजूद देश में 5 साल से कम उम्र के 48% बच्चे सामान्य से कमजोर जीवन जीने को मजबूर हो रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में से 49% भारत में पाये गए हैं। कमरतोड़ मंहगाई  के साथ-साथ यहां एक सेकेण्ड के भीतर 5 साल के नीचे का एक बच्चा कुपोषण की चपेट में आ जाता है। भारत में 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 44.5% (करीब आधी) औरतें ऐसी हैं जिनकी शादियां 18 साल के पहले हुईं हैं। इन 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 22% (करीब एक चौथाई) औरतें ऐसी हैं जो 18 साल के पहले मां बनीं हैं। न कम उम्र की लड़कियों से 73% (सबसे ज्यादा) बच्चे पैदा हुए हैं। फिलहाल इन बच्चों में 67% (आधे से बहुत ज्यादा) कुपोषण के शिकार हैं। देश की 40% बस्तियों में तो स्कूल ही नहीं हैं। 48% बच्चे प्राथमिक स्कूलों से दूर हैं। 6 से 14 साल की कुल लड़कियों में से 50% लड़कियां तो स्कूल से ड्राप-आऊट हो जाती हैं। लड़कियों के लिए सरकार भले ही `सशक्तिकरण के लिए शिक्षा´ जैसे नारे देती रहे मगर नारे देना जितने आसान हैं, लक्ष्य तक पहुंचना उतना ही मुश्किल हो रहा है। क्योंकि आखिरी जनगणना के मुताबिक भी देश की 49.46 करोड़ महिलाओं में से सिर्फ 53.67% साक्षर हैं। मतलब 22.91 करोड़ महिलाएं निरक्षर हैं। एशिया महाद्वीप में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है। क्राई के मुताबिक भारत में 5 से 9 साल की 53 फीसदी लड़कियां पढ़ना नहीं जानती। इनमें से ज्यादातर रोटी के चक्कर में घर या बाहर काम करती हैं। इसी तरह जहां पूरी दुनिया में 24.6 करोड़ बाल मजदूर हैं, वहीं केंद्र सरकार के अनुसार अकेले अपने देश में 1.7 करोड़ बाल मजदूर हैं और जिनमें से भी 12 लाख खतरनाक उद्योगों में काम कर रहे हैं।

शिरीष खरे

माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्‍वविद्यालय, भोपाल से निकलने के बाद जनता से जुड़े मुद्दे उठाना पत्रकारीय शगल रहा है। शुरुआत के चार साल विभिन्न डाक्यूमेंट्री फिल्म आरगेनाइजेशन में शोध और लेखन के साथ-साथ मीडिया फेलोसिप। उसके बाद के दो साल "नर्मदा बचाओ आन्दोलन, बडवानी" से जुड़े रहे। सामाजिक मुद्दों को सीखने और जीने का सिलसिला जारी है। फिलहाल ''चाइल्ड राईट्स एंड यू, मुंबई'' के ''संचार विभाग'' से जुड़कर सामाजिक मुद्दों को जीने और समझने का सिलसिला जारी है।

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