यह युद्ध तुम्हें जीतना होगा
चंदन कुमार मिश्र
(देश में वर्षों से हिन्दी के खिलाफ चल रही साजिश पर चंदन कुमार मिश्र ने एक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में उन्होंने हिंदी से संबंधित हर पहलू को व्यापक तरीके से उकेरा है, साथ ही यह भी दर्शाया है कि कैसे अंग्रेजी को हिन्दी के ऊपर थोपा गया है, जबकि हिन्दी एक वैज्ञानिक भाषा है और अन्य भाषाओं की अपेक्षा इसे जानना और समझना काफी सरल है। चंदन कुमार मिश्र की पुस्तक देशद्रोहियों की भाषा अंग्रेजी को तेवरआनलाइन पर सहर्ष प्रकाशित किया जाएगा। आपके विचारों का स्वागत है। पुस्तक की शुरुआत एक कविता से की गई है, जिसे हम यहां पर पोस्ट कर रहे हैं )
यह युद्ध तुम्हें जीतना होगा
कभी विकास के नाम पर,
कभी कुछ सिक्कों की खातिर।
जिसने उस घर में नौकरी की, उसके तलवे चाटे
“जिस घर के लोगों ने बेरहमी से मेरे घर के
बच्चों को बचपन में पटक कर मार दिया,
बूढों को गोली मार दी,
मांओं से, बहनों से, बेटियों से बलात्कार किया और फिर जिंदा दफना दिया,
युवाओं को फांसी, कालेपानी की सजा दी।”
जिसने उससे भीख ली, कर्ज लिया,
“जिसने मेरे घर के लोगों से एक-एक पाई हड़पने के लिए सौ-सौ कोड़े बरसाये,
जिसने दुनिया की सबसे क्रूर हत्याओं को मेरे घर में अंजाम दिया।”
जिसने उसके सामने सिर झुकाया,
“जिसने मेरे घर में सैकड़ों साल तक आग लगायी,
एक-एक ईंट उठा ले गये जो,
जिनके अत्याचार के सामने काल भी काँप जाये”
जिसने उन हत्यारों की भाषा मुझसे ही बोलनी शुरु कर दी
झूठे बहाने बनाकर,
तुम ही बताओ, ऐ कविता पढ़ने वाले!
उसे मैं देशद्रोही के सिवा क्या कहूँ?
क्योंकि ये मेरे ही घर के रहनेवाले हैं,
मेरे ही खून को पीने वाले हैं,
और मैं ही तो देश हूँ, मेरा नाम भारत है
जिसे ये देशद्रोही इंडिया बना रहे हैं।
जिसने मेरे हर हिस्से को गिरवी रख दिया है
अत्याचारियों के पास
प्रगति का ढोंग करते-करते।
तुम ही बताओ, ऐ कविता पढ़ने वाले!
उसे मैं देशद्रोही के सिवा क्या कहूं?
मैं इंतजार कर रहा हूं
हजार सालों से शान्ति का,
होकर क्षत-विक्षत,
थक गया हूं आक्रमणों से
और इस उम्मीद में बैठा हूँ कि
कोई तो पैदा होगा जो नपुंसक नहीं होगा।
जो उन क्रूर लोगों की विरासत नहीं थामेगा
और मेरी तरफ़ देखेगा।
क्यों कि सारे वीरों को तो उन राक्षसों ने मार डाला।
सिर्फ़ संतान पैदा कर देने से मर्द नहीं हो जाता कोई
संतान तो कुत्ते, भेड़िये, गदहे सब पैदा कर लेते हैं।
कोई तो पैदा होगा जो
समुंदर के पूरे पानी को थूक बनाकर
इनके मुँह पर उड़ेल देगा।
इस उम्मीद में बैठा हूँ मैं कि
कोई तो पैदा होगा जो मुझे उधार के राजसी वस्त्रों को न पहना कर
अपना फटा चिथड़ा ही पहनाएगा।
कोई तो मेरे घर के छीने हुए हिस्से को वापस लाएगा
कोई तो मेरा हीरा वापस छीन कर लाएगा
याद रखो माँगकर नहीं छीन कर लाएगा।
इस उम्मीद में बैठा हूँ कि
कोई तो पैसे, नौकरी, पत्नी, परिवार, मस्ती और विदेश के
मोह से निकलकर मुझे देखेगा।
इन देशद्रोहियों से कैसे उम्मीद करूँ?
ऐ कविता पढ़ने वाले!
तुम तो देशद्रोही नहीं हो!
फिर क्यों देख रहे हो यह सब चुपचाप?
तुम्हें उठना होगा और लड़ना होगा
इन देशद्रोहियों से।
उठो! निकलो अपने स्वार्थ के कुएं से
और कूद जाओ रणक्षेत्र में।
और खत्म कर डालो आक्रमणों का इतिहास
एक आखिरी आक्रमण से।
तुम्हें जीतना होगा
जीतना होगा
जीतना होगा , यह युद्ध कम से कम मेरी खातिर।