नये रिश्तों की ओर भारत-पाक के बढ़ते कदम
संजय राय, नई दिल्ली
भारत सरकार ने पिछले दिनों अपने यहां पाकिस्तान के बैंकों को शाखा खोलने की मंजूरी देकर इस अहम पड़ोसी के साथ भविष्य की नीति का साफ संकेत दिया है। यह अच्छी बात है कि पाकिस्तान भी भविष्य की दुनिया की तस्वीर को सलीके से समझते हुए भारत के इन फैसलों पर सकारात्मक रुख अख्तियार किए हुए है। ऐसा लग रहा है कि दोनों देशों के रहनुमाओं को अब यह हकीकत अच्छी तरह से समझ में आने लगी है कि एक साथ मिलजुकर रहने में ही समूचे खित्ते की अवाम की भलाई है। यह एक साहसिक फैसला है और कुछ समय से बनी हमारी उस साझा समझ को पुख्ता बनाता है कि दहशतगर्दी के लिए आज के सभ्य समाज में कोई जगह नहीं है। उम्मीद की जा सकती है कि अपने ही द्वारा पैदा किए गए भस्मासुर से वजूद की लड़ाई लड़ रहा पाकिस्तान भी देर से ही सही हिन्दुस्तान के बैंकों को अपने देश में कारोबार करने की मंजूरी जरूर देगा।
यह सच है कि तमाम वादों के बावजूद पाकिस्तान की सरजमीं से भारत के खिलाफ आतंकवादी कार्रवाइयों का सिलसिला अभी भी बदस्तूर जारी है। अगर हम आतंकवादियों की करतूतों पर गौर करें तो पता चलता है कि जैसे ही ऐसा लगता है कि हमारे सम्बंध अब पटरी पर वापस आने के करीब हैं, वैसे ही कोई बड़ा हमला कर दिया जाता है। दुनिया जानती है पार्लियामेंट का हमला और 2008 में मुंबई की 26/11 का आतंकी हमला भारत-पाक सम्बंधों को फिर से खराब करने के इरादे से बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से करवाया गया था। यह कोई छिपी बात नहीं है कि आज पूरी दुनिया में दहशतगर्दी एक बहुत बड़ा बिजनेस बन चुकी है। दुनिया का कोई हिस्सा शायद ही बचा हो जहां पर चोरी छिपे कुछ लोग इस तरह की गतिविधियों को अंजाम नहीं दे रहे हों। तहां तक पाकिस्तान की बात है, वहां पर ये ताकतें कुछ ज्यादा ही मजबूत हैं और हिन्दुस्तान में उन्हें हर तरह से सहयोग देने वाले लोग मौजूद हैं। अगर हम इससे इनकार करते हैं तो यह हकीकत से आंख चुराने जैसा होगा और इसका अंजाम हमारे लिए बुरा ही होगा।
पहली बार पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ और हिन्दुस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के शासनकाल में सम्बंध सुधरने की गम्भीर कोशिश शुरू की गई थी। तब हिन्दुस्तान के दौरे पर आए जनरल मुशर्रफ ने बड़ी साफगोई से दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक रिश्तों का हवाला देते हुए एक नई इबारत लिखने की शुरुआत की थी, लेकिन आगरा में बात बनते-बनते बिगड़ गई। इसके बाद मनमोहन सिंह और जनरल मुशर्रफ एक बार फिर से गंभीर पहल की, पर अचानक पाकिस्तान से मुशर्रफ को गद्दी से उतारकर देश निकाला दे दिया गया। ये घटनाएं इस बात की तस्दीक करती हैं कि दुनिया में एक ऐसी ताकत है जो हिंदुस्तान-पाक सम्बंधों की दशा-दिशा को अपने रिमोट से कंट्रोल करती है। इस ताकत के आगे आगे दोनों देशों की सरकारें असहाय नजर आती हैं। शायद यही कारण है कि अब तक दहशतगर्दी को अपनी विदेश नीति का हिस्सा बनाकर भारत को खोखला करके तोड़ने की पुरजोर कोशिश में जुटा पाकिस्तान अब मिलकर इसे जड़ से मिटाने की कसमें खुलेआम खा रहा है। उसे यह एहसास हो गया है कि अगर इस समस्या पर काबू नहीं पाया गया तो आगे भी उसे लम्बे समय तक अपने वजूद की लड़ाई लड़ने को मजबूर होना पड़ेगा।
भारत और पाकिस्तान के सम्बंधों में कश्मीर का मसला एक बहुत बड़ा रोड़ा है। इस रोड़े को पिछले 65 साल से दूर करने को सभी उपाय आजमाये गये, यहां तक कि चार बार लड़ाई भी हुई लेकिन इसका नतीजा दुनिया ने बांगलादेश के नाम से एक नये मुल्क की पैदाइश के रूप में देखा। अब दोनों देशों के बीच किसी बड़ी लड़ाई की सम्भावना इसलिए नहीं दिख रही है क्योंकि दोनों के पास ऐटम बम है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम अगर यह दावा करते हैं तों इसमें जरूर कोई दम है। शायद कलाम के इसी सूत्र की बुनियाद पर मुशर्रफ-वाजपेयी के शासनकाल में साझा विरासत को फिर से मजबूत बनाकर नया इतिहास भी लिखने की तैयारी हो गई थी और बाद में मुशर्रफ ने मनमोहन सिंह से कहा था कि सम्बंध मजबूत बनाने के इरादे से लिए गए सभी फैसलों को न तो हिंदुस्तान और न ही पाकिस्तान की ओर से कभी पलटा जाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी मुशर्रफ की इस बात पर हामी भरी थी।
राजनयिक गलियारों में कभी-कभार बडे़ ही रहस्यमय लहजे में यह सवाल उठाया जाता है कि आखिर ऐसे नाजुक मोड़ पर मुशर्रफ को क्यों हटाया गया। जवाब चुपके से किसी कोने से आता है जो उन बड़ी ताकतों की ओर इशारा करता है जिनके हाथ में हमारे सम्बंधों का रिमोट कंट्रोल है। दरअसल मुशर्रफ उस समय कुछ ज्यादा ही गम्भीर हो गये थे और अपनी कुर्सी गंवाकर उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी। समय एक न एक दिन इस रहस्य से पर्दा जरूर उठाएगा।
पूरे खित्ते के विकास का सपना तो पूर्व पंधानमंत्री राजीव गांधी ने भी देखा था। दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन यानि सार्क का गठन इसी सपने को साकार करने के इरादे किया गया था। दरअसल देखा जाय तो वाजपेयी, मनमोहन और मुशर्रफ की तरफ से की गई तमाम कोशिशें भी सार्क के इन्हीं उद्देश्यों को आगे बढ़ाने की दिशा में ही जाने वाली थीं। लेकिन उनकी दिशा किसी न किसी बाधा का शिकार हो गईं। सम्बधों की इस खुरदरी जमीन पर खित्ते की अवाम को बेहतर जिंदगी देने की दोनों तरफ के नेताओं की ये छोटी-छोटी कोशिशें एक न एक दिन जरूर कामयाब होंगी, ऐसी उम्मीद है। एक दूसरे की सीमाओं का सम्मान करते हुए दक्षिण एशिया के राजनेता यूरोपीय यूनियन की तर्ज पर साझा करेंसी, साझा पार्लियामेंट और मुक्त आवाजाही के बारे में अब गंभीरता से कोशिश करें। यह समय की मांग है।
भारत-पाक के सरहदी इलाकों में व्यापार और आवाजाही को बढ़ाने, मीडिया के बीच सम्पर्क को मजबूत करने, दोनों देशों के धार्मिक स्थलों को एक दूसरे के लिए खोलने, एक दूसरे को व्यापार के लिहाज से सर्वाधिक अनुकूल देश का दर्जा देने, दहशतगर्दी से कारगर तरीके से निपटने के लिए एक साझा तंत्र बनाने के लिए राजी होने, मछुआरों की समस्या को इंसानी नजरिये से हल करने, समझौता एक्सप्रेस ट्रेन और दिल्ली से लाहौर तक बस चलाकर अवाम के बीच सम्पर्क बढ़ाने जैसी अहम बातें हकीकत में तब्दील होती दिख रही हैं। गौर करने वाली बात यह है कि ये तमाम कदम ऐसे दौर में उठाए गए हैं जब आतंकवादी ताकतें संबंध खराब करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ रही हैं।
इराक पर अमेरिका की फतह के बाद श्रीनगर में दिया गया अटल बिहारी वाजपेयी का वह भाषण इतिहास के पन्नों में मोटे अक्षरों में दर्ज है जिसमें उन्होंने कहा था कि दोस्त बदले जा सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं बदले जा सकते, मैं पाकिस्तान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाता हूं। इससे भी पहले जरा याद कीजिए काठमाण्डू के सार्क शिखर सम्मेलन को जब मुशर्रफ ने आगे बढ़कर वाजपेयी की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। इन सारी बातों का जिक्र इसलिए जरूरी है जिससे हम यह समझ सकें कि तमाम उतार-चढ़ाव से गुजरने हुए हमारे रिश्तों का यह कारवां आज जिस मुकाम तक पहुंचा है उसके पीछे किन लोगों की मेहनत थी। इसे जानना और समझना दोनों देशों की आने वाली पीढ़ियों के लिए भी बेहद जरूरी है।
आखिर में हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि रिश्तों को सुधारने की कोशिश में लगी दोनों देशों की सरकारें आने वाले समय में अवाम की बेहतरी के लिए अब तक किए गए उपायों को एक नये मुकाम तक जरूर, जरूर और जरूर पहुंचाएंगी और सदियों से चली आ रही साझा विरासत की बुनियाद पर वह इमारत खड़ी होकर ही रहेगी, जिसका साझा सपना कभी हमारे महापुरुषों ने कभी देखा था।
(अंतरराष्ट्रीय मामलों पर पैनी नजर रखने वाले संजय राय वरिष्ठ पत्रकार है ।)