नीतीश सरकार के स्पोक्समैन की भूमिका में एक वरिष्ठ पत्रकार
मुकेश कुमार सिन्हा, पटना
बिहार में चुनावी बयार तेज हो चुका है, ऐसे में हवा का रुख देखकर फटाफट नेता अपनी पार्टी बदल रहे हैं। रिश्ते को ताक पर रखकर अपनी ही निष्ठा को लात मार रहे हैं। ऐसे में कुछ पत्रकार भी बहती गंगा में अपना हाथ धोने में जुटे हैं। कुछ पत्रकारों ने तो नेताओं के लिए, तो कुछ राजनीतिक पार्टियों के लिए पीआर (मीडिया मैनेजमेंट) का काम शुरु कर दिया है।
ऐसे ही एक वरिष्ठ पत्रकार हैं बिहार में, जो काफी नामचीन भी रहे हैं। कभी वे दिल्ली से प्रकाशित एक अखबार के लिए बिहार से प्रतिनिधित्व करते थे। बाद में पटना से प्रकाशित एक दैनिक अखबार के संपादकीय विभाग से जुड़े। आजकल अखबारों में स्तंभ लेखन के साथ साथ स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं। चुनाव पर भी विशेष लिख ही रहे हैं। खास बात यह है कि उनका लेख/फीचर/स्तंभ पढ़ने से कुछ ऐसा आभास होता है कि वह अपनी लेखनी के माध्यम से सत्तारुढ़ गठबंधन या यूं कहें कि नीतीश सरकार के स्पोक्समैन की भूमिका निभा रहे हैं। बानगी के तौर पर एक उदाहरण प्रस्तुत है।
विरोधी गठबंधन का हिस्सा होने के कारण पूर्व केंद्रीय मंत्री और कद्दावर नेता लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान ने आरोप लगाया कि नीतीश के शासन काल में बिहार में एक उद्योग भी नहीं लगाया गया। यह सीधा साधा राजनैतिक या यूं कहें कि चुनावी आरोप है। ऐसे आरोप प्रत्यारोप तो लगते ही रहते हैं, खासकर चुनाव के समय। यह मतदाताओं को रिझाने भरमाने का कारगर उपाय माना जाता है। लेकिन खासबात यह है कि नीतीश कुमार या उनकी पार्टी या उनकी पार्टी से जुड़ा गठबंधन पासवान के इस आरोप का कोई जवाब देता इससे पहले ही हमारे उस वरिष्ठ पत्रकार ने अपने कालम के माध्यम से पासवान के कानों तक उनके आरोप का जवाब पहुंचा दिया। वे वरिष्ठ पत्रकार हैं। फैक्ट्स की कमी उनके पास नहीं है, अखबारों का कतरन और किताबें जमा (संग्रह) करना उनकी आदत रही है। जिसका इस्तेमाल वे अक्सर अपने आलेख और स्तंभ को बेहतर और ज्ञानवर्धक बनाने के लिए करते हैं। इन्हीं तथ्यों का सहारा लेते हुये उन्होंने पासवान को उन्हीं के लोकसभा क्षेत्र हाजीपुर में लगे एक उद्योग के बारे में बता दिया। जबाव दिया ऐसा जैसे वे नीतीश कुमार या सत्तारुढ़ गठबंधन के स्पोक्समैन हो। अपने स्तंभ में उन्होंने कहा कि करीब 50 करोड़ रुपये की लागत से ओपी साह ने हाजीपुर में एक उद्योग लगाया। उन्होंने यह भी बता दिया कि इस उद्योग से करीब 500 लोगों को रोजगार मिला है। उन्होंने पासवान की जानकारी पर आश्चर्य व्यक्त करते हुये यह भी कहा कि पासवान को अपने ही क्षेत्र में लगे उद्योग की जानकारी नहीं है।
सवाल यह उठता है कि पासवान क्या किसी पत्रकार से डिबेट कर रहे थे या यह सवाल किसी पत्रकार के लिए था? आखिर यह आरोप किस पर था और किसके लिए था? इसका जवाब क्या एक पत्रकार को देना चाहिये था? वह भी स्तंभ जैसे गंभीर लेख माध्यम से? खास बात यह है कि सत्तारुढ़ गठबंधन पासवान के इस आरोप पर अभी चुप्पी साधे हुये है। नीतीश कुमार तो ऐसे मामले में चुप रहने के लिए जाने ही जाते हैं। फिर हमारे वरिष्ठ पत्रकार द्वारा पासवान को जवाब दिया जाना समझ से परे है। इतना ही नहीं, हद तो तब हो गई जब इसी स्तंभ लेखन में सरकार का पक्ष भी उन्होंने ऐसे रख दिया मानो वो इसके लिए अधिकृत हैं। उन्होंने स्वीकार कर लिया कि यह भी सच है कि बिहार में जिस गति से उद्योग धंधों का विकास होना चाहिये वह नहीं हो रहा है। लेकिन इसके लिए केंद्र सरकार दोषी है, न कि बिहार सरकार। उन्होंने बिहार सरकार का आरोप भी दोहरा दिया कि बिजली लगाने में केंद्र सरकार सहयोग नहीं कर रही है। वरिष्ठ पत्रकार भाई की एक और पंक्ति देखिये। उन्होंने इसी स्तंभ में यह भी कह दिया कि राजग विरोधी नेता उद्योगपतियों को बिहार आने से रोक रहे हैं, क्योंकि वह नहीं चाहते हैं कि औद्योगिकीकरण का श्रेय नीतीश सरकार को मिले। उन्होंने यह भी जोड़ा कि यह कहने का फैशन चल गया है कि नीतीश राज्य में एक सुई का कारखाना तक नहीं लगा। इतना ही नहीं वरिष्ठ पत्रकार भाई साहब ने सरकार की तरफ से उम्मीद भी जता दी कि कानून व्यवस्था को लेकर जो अब भी थोड़ा बहुत अनिश्चितता है चुनाव के बाद यह रही सही अनिश्चितता भी दूर हो जाएगी। अब आप पाठक खुद यह तय कर सकते हैं कि क्या यह किसी वरिष्ठ पत्रकार का स्तंभ है? या सत्तारुढ़ गठबंधन के किसी प्रवक्ता का कथन? सवाल इतना सा ही है कि सरकार पर विरोधियों द्वारा चुनाव के समय लगाये गये ऐसे आरोपों का जवाब इस कदर किसी पत्रकार द्वारा दिया जाना चाहिये? या फिर सरकार या सत्तारुढ़ गठबंधन के बयान का इंतजार कर उसका विश्लेषण करना चाहिये?
यहां मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं किसी को पत्रकारिता सिखलाने के मुगालते में नहीं हूं। लेकिन लोगों को तो इस दृष्टिकोण से ही सोचने, समझने और परखने की जरूरत है। इसी मद्देनजर बड़े भाई साहब के इस स्तंभ का उल्लेख जरूरी था।
बहरहाल मैं अपनी बात समाप्त करता हूं अपने इस विचार के साथ कि पासवान का बड़बोलापन मुझे भी पसंद नहीं है। उनकी सत्तालोलुपता मुझे भी रास नहीं आती। भला कोई कैसे भूल सकता है कि पासवान के मुसलिम मुख्यमंत्री के जिद के कारण बिहार को 2005 में एक चुनाव का अनावश्यक बोझ सहना पड़ा था। भला कोई कैसे भूल सकता है कि पिछले चुनाव में वो लालू और राजद को बिहार की सत्ता से बाहर कर वह संतुष्ट हो गये थे, तो अब राज्यसभा की एक सीट की कीमत पर लालू और राजद को सत्ता तक पहुंचाना चाहते हैं। लेकिन यह सब पासवान की राजनीतिक मजबूरियां हो सकती हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह बिहार में विकास कर देने की खुशफहमी नीतीश कुमार और उनके सत्तारुढ़ गठबंधन को है। लेकिन इस तरह की मजबूरियां और खुशफहमियां हमारी नहीं हो सकती। कम से कम एक पत्रकार की तो नहीं ही होनी चाहिये। वो भी तब जब विकास की शर्त पर ही जनता ने उन्हें पिछली दफा वोट दिया और इस बार भी जो वोट उन्हें मिलेंगे वो विकास के नाम पर ही होगा। ऐसे में एक पत्रकार को विकास पुरुष के रुप में उन्हें महिमांडित करने की जगह उनकी कमियां, कमजोरियां, उनकी भूले और अहंकार को रेखांकित करने की जरूरत है। ताकि वाकई बिहार विकसित हो सके। न कि सिर्फ विकास के भ्रमजाल में फंसा रहे।
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