वेब पर शब्दों का आकार ले रही है पत्रकारिता की सिसकी

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मार्डन आर्ट : साभार चेन्नई आलेक्स
मार्डन आर्ट : साभार चेन्नई आलेक्स

संजय मिश्र, नई दिल्ली

मीडिया दोराहे पर खड़ा है। एक तरफ पेशे से विलग गतिविधियों के कारण ये आलोचना के केन्द्र में है तो दूसरी ओर विकासशील भारत की परवान चढ़ती उम्मीदों पर खरा रहने की महती जिम्मेदारी का बोझ। मीडिया पर उठ रही उंगली अ़ब नजरंदाज नहीं की जा सकती । ये विश्वसनीयता का सवाल है…सर्वाइवल का सवाल है। आवाज बाहर से ज्यादा आ रही है पर इसकी अनुगूंज पत्रकारों में भी कोलाहल पैदा कर रही है। लेकिन अन्दर की आवाज दबी …सहमी सीबोलना चाहती है पर जुबान हलक से उपर नही उठ पाती। ऐसे में शुक्रगुजार वेब पत्रकारिता का जिसने एक ऐसा प्लेटफार्म दिया है जहाँ इस पेशे की सिसकी धीरे धीरे शब्द का आकार ले रही है ।

बहुत ज्यादा बरस नहीं बीते होंगे जब पत्रकारिता पर समाज की आस टिकी होती थी । आज़ादी के दिनों को ही याद करें तो मीडिया ने स्वतंत्रता की ललक पैदा करने में सराहनीय योगदान दिया था। कहा गया की ये मिशन पत्रकारिता थी। बाद के बरसों में भी मिशन का तत्त्व मौजूद रहा। कहीं इसने विचारधारा को फैलाने में योगदान किया तो कहीं समाज सुधार के लिए बड़ा हथियार बनी। लेकिन इस दौरान मिशन के नाम पर न्यूज़ वैल्यू की बलि नहीं ली गई। ये नहीं भुलाया गया की कुत्ता काटे तो न्यूज़ नहीं और कुत्ते को काट लें तो न्यूज़ …
कहते हैं विचारधारा की महिमा अब मलिन हो गई है और विचार हावी हो गया है । ग्लोबल विलेज के सपनो के बीच विचार को सर पर रखा गया। इस बीच टीवी पत्रकारिता फलने फूलने लगी। अख़बारों के कलेवर बदले …रेडियो का सुर बदला । संपादकों की जगह न्यूज़ मैनेजरों ने ले ली। ये सब तेज गति से हुआ। मीडिया में और भी चीजें तेज गति से घटित हुई हैं। समाज में पत्रकारों की साख गिरी है । यहाँ तक की संपादकों के धाक अब बीते दिनों की बात लगती। कहाँ है वो ओज ?
आए दिन पत्रकारों के भ्रष्ट आचरण सुर्खियाँ बन रही हैं । फर्जी कामों में लिप्तता ..महिला सहकर्मियों के शारीरिक शोषण ..मालिकों के लिए राजनितिक गलियारों में दलाली ..जुनिअरों की क्षमता तराशने की जगह गिरोहबाजी में दीक्षित करने से लेकर रिपोर्टरों के न्यूज़ लगवाने के एवज में वसूली अब आम हैनतीजा सामने है। कई पत्रकार जहाँ करोड़ों के मालिक बन बैठे हैं। वहीँ अधिकाँश के सामने रोजीरोटी का संकट पैदा हो गया है।

 दरअसल गिरोहबाजों ने मालिकों की नब्ज टटोली और मालिकों ने इनकी अहमियत समझी। कम खर्चे में संस्थान चला देने और दलाली में ये फिट होते । फक्कड़ और अख्खड़ पत्रकार हाशिये पर डाल दिए गए । गिरोह के बाहर की दुनिया मुश्किलों से भरी। अखबार हो या टीवी की चौबीस घंटे की जिम्मेदारी। काम का बोझ और छोटी सी गलती पर नौकरी खोने की दहशत। हताशा इतनी की सीखने की ललक नहीं। सीखेंगे भी किससे ? ..असरदार पदों पर काबिज उन पत्रकारों की कमी नहीं जिन्हें न्यूज़ की मामूली समझ भी नहीं ।

 
टीवी की दुनिया चमकदार लगती। है भी …कंगाली दूर करने लायक सैलरी , खूबसूरत चेहरे, कमरे के कमाल, देश दुनिया को चेहरा दिखने का मौका … और इस सबसे बढ़कर ख़बर तत्काल फ्लैश करने का रोमांच । पहले ख़बर परोसी जाती … अब बेचीं जाने लगी । तरह तरह के प्रयोग होने लगे । इसके साथ ही टीआरपी का खेल सामने आया। ख़बरों के नाम पर ऐसी चीजें दिखाई जाने लगी जिसमे आप न्यूज़ एलेमेन्ट खोजते रह जायेंगे। भूत प्रेत से लेकर स्टिंग ऑपरेशन के दुरूपयोग को झेलने की मजबूरी से लोग कराह उठे। इनके लिए एक ही सच है –एनी थिंग उनुसुअल इस न्यूज़ –…न्यूज़ सेंस की इन्हें परवाह कहाँ।

 शहर दर शहर टीवी चैनल ऐसे खुल रहे हैं जैसे पान और गुटके की दूकान खोली जाती है वे जानते हैं की चैनल खर्चीला मध्यम है फिर भी इनके कुकर्मों पर परदा डालने और काली कमाई को सफेद बनाने के लिए चैनल खोले ही जा रहे हैं । इन्हें अहसास है की गिरोहबाज उन्हें संभाल लेंगे। कम पैसों में सपने देखने वाले पत्रकार भी मिल जायेंगे। और वसूली के लिए चुनाव जैसा मौसम तो आता ही रहेगा।

 अब वेब जर्नालिस्म दस्तक दे रही है । कल्पना करें इसके आम होने पर पत्रकारिता का स्वरुप कैसा होगा । अभी तो टीवी पत्रकारिता में ही बहाव नहीं आ पाया है । न तो इसकी भाषा स्थिर हो पाई है और न ही इसकी अपील में दृढ़ता । विजुअल का सहारा है सो ये भारतीय समाज का अवलंब बन सकता है, लेकिन चौथे खम्भे पर आंसू बहने का अ़ब समय नहीं …पत्रकारों को अन्दर झांकना होगा। उन्हें अपनी बिरादरी की कराह सुन्नी ही होगी। मुद्दे बहुत हैं…आखिरकार कितनी फजीहत झेलेगी पत्रकारिता ?

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  1. Strange this post is totaly unrelated to what I was searching google for, but it was listed on the first page. I guess your doing something right if Google likes you enough to put you on the first page of a non related search. 🙂

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