अंदाजे बयां

पटना को मैंने करीब से देखा है (पार्ट-8)

पहला रोमांस फिल्मों के साथ

 यह फिल्मों के प्रति दीवानगी की परकाष्ठा का युग था। फिल्में मानसिक पटल पर अपना गहरी छाप छोड़ रही थी, और उस समय पटना में रहने वाले तमाम लोगों के लिए यह सौभाग्य की बात थी- कम से कम मैं तो यही मानता हूं- कि काफी कम कीमत पर उन्हें बड़ी सहजता से व्यापक पैमाने पर फिल्में देखने को मिल रही थीं। फिल्में व्यापक पैमाने पर जन समुदाय को अपनी आगोश में लेकर सुकून प्रदान कर रही थीं। इसका नशा लोगों के सिर पर चढ़कर बोल रहा था। लगभग सभी अखबारों में शहर के सिनेमा घरों में लगने वाली फिल्मों की जानकारी उसके पोस्टर के साथ दी जाती थी। मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि मेरा पहला रोमांस फिल्मों के साथ ही हुआ, उसके सामने भूख और प्यास सब खत्म हो जाती थी। पर्दे पर दौड़ती-भागती और बोलती हुई तस्वीरें मुझे पूरी तरह से अपने वश में कर लेती थीं, और मेरा दिल और दिमाग उन्हीं डूब जाता था। वह दौर फिल्मों के साथ रोमांस का दौर था।       

 आर ब्लौक का इलाका सचिवालय से सटा हुआ था। यह इलाका कुछ हरा-भरा और खुला-खुला सा था। एक तरफ सरकारी फ्लैंटे थी, तो दूसरी तरफ रेलवे लाइन से सटते लंबी दूरी तक तितर-बितर अंदाज में रेंगती हुई सी झोपड़पट्टियां, जिनमें नीचले तबके के लोग रहते थे। जाड़े के दिनों में अपना काम समाप्त करने के बाद महिलाएं झुंड में बैठकर आपस में बातें करते हुये एक दूसरे से सिर से जुयें निकालती थीं, बुढ़े लोग ताश खेलते थे और बच्चें कंचा या गुल्ली-डंडा। अमूमन दुनिया की सभी झोपड़ पट्टियों की तरह यहां भी दिन भर चहल-पहल बनी रहती थी। झोपड़पट्टी में रहने वाले लोग रेलवे लाइन का इस्तेमाल टट्टी करने के लिए करते थे, जिसके कारण ट्रैक पर पैदल चल पाना मुश्किल था। दुर्गन्ध का भभका हमेशा उठाता रहता था। वहां रहने वाली आबादी इस दुर्गन्ध की अभ्यस्त थी।      

फ्लैटों में विधायक और सरकारी अधिकारी रहते थे। फ्लैटों का पूरा इलाका रोड नंबरों में बंटा हुया था, कुल नौ रोड थे, जिनके दोनों ओर श्रृंखलाबद्ध तरीके से लगभग एक ही आकार-प्रकार के फ्लैट बने हुये थे। सचिवालय और आर ब्लौक के बीच में एक रेलवे लाइन थी। यहां पर एक क्रासिंग थी, जिसे गुमटी नंबर तीन कहा जाता था, क्योंकि यह ठीक तीन नंबर रोड के सामने पड़ता था। दुर्गा पूजा से एक महीना पहले इसी तीन नंबर गुमटी के बगल वाले एक फ्लैट के अहाते में टेंट लगाकर टिकट पर फिल्में दिखाई जाती थीं, जिसे देखने के लिए अगल-बगल के इलाके से लोग आते थे। शो रात में करीब नौ बजे शुरु होता था। टिकट की कीमत 50 पैसे और 1 रुपये थी। गैंग के सभी बच्चे पटना के सिनेमा घरों में लगने वाले एक भी फिल्म को नहीं छोड़ते थे। हर फिल्म धांग मारते थे। पूरा गैंग फिल्मची था। शुक्रवार को थियेटर में नई फिल्म लगती थी, और रविवार तक उसे हर हालत में देखना ही था।  

आर ब्लौक में तो उन्हें हर रात एक फिल्म देखने का अवसर मिल गया था, जो किसी खजाने से कम नहीं था। सभी बच्चे दिन भर 50 पैसा जुटाने में लगे रहते थे, और रात को सामुहिक रूप से आर ब्लौक के टेंट में फिल्मों का मजा उठाते थे। पैसा न मिलने की स्थिति में कुछ बच्चे इधर-उधर से टेंट में घुसने की कोशिश करते थे, हालांकि यह थोड़ा रिस्की था। पकड़े जाने की स्थिति में फिल्म आयोजति करने वालों की टीम किसी को भी पीटने के लिए उतावला रहती थी।

आर ब्लौक में फिल्म देखने वालों में नीचले तबके के लोगों की संख्या अधिक थी, इस ओपेन थियेटर के असली कस्टमर यही लोग थे। दिन भर काम करने के बाद रात में खाना-पीना खाकर वे लोग फिल्म देखने आते थे। फिल्मों को लेकर वे लोग पूरी तरह से क्रेजी थे। टेंट के बाहर टिकट काउंटर पर अच्छी-खासी भीड़ लगी होती थी, और अक्सर लाठियां चलती थी, लेकिन सभी लोगों को टिकट मिलने की गारंटी थी। टिकट के रूप में वे लोग एक ही साइज के रंग-बिरंगे छोटे-छोटे पूर्जों का इस्तेमाल करते थे, जिस पर दुर्गा पूजा समिति का मुहर लगा होता था। रंग का इस्तेमाल वे दिन के आधार पर करते थे ताकि कोई मुहर बनाकर उनकी नकल ना कर सके। जैसे शनिवार को हरा रंग, मंगल वार को पीला रंग, बुद्धवार को गुलाबी रंग आदि। लोग पूरी तरह से अपने घरेलू ड्रेस में आते थे अर्थात लुंगी और गंजी पहने हुये। अधिकतर लोगों के कंधों पर गमछा होता था। टेंट के अंदर दाखिल होने के बाद जमीन पर गमछे को बिछा कर आराम से समूह में बैठ जाते थे। कभी-कभी जगह को लेकर लोगों के बीच तूतू- मैं-मैं भी हो होने लगती थी, लेकिन फिल्म आयोजक मंडली द्वारा जल्द ही उन्हें नियंत्रित कर लिया जाता था। महिलाओं और बच्चों की भी अच्छी खासी संख्या होती थी। टेंट के अंदर रस्सी बांधकर उनके लिए अलग बैठने का इंतजाम किया जाता था ताकि छेड़छाड़ न हो।

यह अमिताभ बच्चन के सुपर स्टामडम का दौर था। जंजीर, दीवार, त्रिशूल, शोले आदि फिल्मों के बाद वह पूरी तरह आम जन के चहेते हीरो बन चुके थे। एंग्रीयंग मैन के रूप में उनकी धाक जम चुकी थी, और उनके पर्दे पर आते ही लोग खुद को सीधे तौर पर उनसे जोड़ लेते थे। राजेश खन्ना की चमक फिकी हो चली थी, लेकिन उनकी फिल्में भी यहां पर दिखाई जाती थी। अमिताभ बच्चन की फिल्मों को लेकर तो लोग दीवानगी की हद को पार गये थे। हर तबके के दिलों पर अमिताभ बच्चन का एकछत्र राज था। अमिताभ बच्चन के प्रति दिवानगी को आर ब्लौक में फिल्म देखने आने वाले लोगों की जोर आइजमाइशों में महसूस किया जा सकता था। जिस रात अमिताभ बच्चन की कोई फिल्म चलनी होती थी, उस रात आठ बजे से ही टेंट के बाहर धक्का-मुक्की शुरु हो जाता था। फिल्म शुरु होने के पहले ही मैदान खचाखच भर जाता था। अमिताब बच्चन के एक्शन दृश्यों के दौरान तो खूब तालियां बजती थी। फिल्म देख रहे लोग सीधे तौर पर उनके नायकत्व से जुड़ जाते थे। जब फिल्म में अमिताभ बच्चन पर कोई संकट आता था तो चारों तरफ खामोशी छा जाती थी, मानो सभी लोगों के ऊपर एक साथ गम के बादल छा गये हैं। वैसे बिहार में अमिताभ बच्चन की लोकप्रियता को शत्रुधन सिन्हा गंभीर चुनौती दे रहे थे। शत्रुधन सिन्हा की फिल्मों को भी लोग खूब पसंद करते थे, और आर ब्लौक फिल्म आयोजक भी शत्रुधन सिन्हा की फिल्में खोज-खोज कर लाते थे। कालीचरण, विश्वनाथ, गौतम गोविंदा जैसी फिल्मों का तो रिपिटेशन वैल्यू था। इन फिल्मों को बार-बार दोहराया जाता था, और हर बार तकरीबन उतनी ही भीड़ रहती थी। साथ ही शत्रुधन सिन्हा के एक-एड डायलाग पर खूब तालियां बजती थी। गौतम गोविंदा में शत्रुधन सिन्हा के एक्शन और डायलाग पर तो लोग हवा में अपने गमछे उड़ाने लगते थे, जिसके कारण प्रोजेक्टर से निकलने वाली रोशनी बाधित होने लगती थी और फिल्म को बीच में ही रोक कर उन्हें शांत किया जाता था। कभी-कभी तो लोग बेकाबू होकर एक दूसरे के साथ मारापीट पर उतारू हो जाते थे। यह पूरी तरह से फिल्म नास्टेलजिया का युग था। पढ़े-लिखे लोगों के साथ-साथ अनपढ़ और गवार लोगों के सिर पर भी फिल्म का जादू चढ़ कर बोल रहा था। बाद के दिनों में कहीं पर भी सामूहिक रूप से इस तरह की फिल्मी नास्टेलजिया देखने को नहीं मिला।

इसके अलावा दारा सिंह की उठा-पटक वाली फिल्मों का भी पूरा क्रेज था। साथ ही डकैतों वाली फिल्में भी खूब पसंद की जाती थी। दारा सिंह को लोग पसंद करते थे। उनकी फिल्मों में पहलवानी के साथ-साथ कामेडी का भी भरूपूर खुराक होता था। दारा सिंह के कारण रंधवा को भी लोग पहचानते थे। इसी तरह देवानंद और सुनील दत्त की फिल्में भी पसंद की जाती थी। देवानंद की जौनी मेरा नाम, और सुनील दत्त की नहले पर दहला को भी अक्सर दिखाया जाता था। डकैत के रूप में तो सुनील दत्त का कोई सानी नहीं था। बच्चों का गैंग सुनील दत्त को लाखन के नाम से जानता था, क्योंकि कमोबेश डकैत वाली हर फिल्म सुनील दत्त का नाम लाखन ही होता था। मनोज कुमार की देशभक्ति वाली फिल्मों को भी लोग चाव से देखते थे, और कुछ समय के लिए पूरी तरह से देशभक्ति की भावना में बह निकलते थे। धमेंद्र की फिल्मों को भी खूब पसंद किया जाता था। 

आर ब्लौक के उस मैदान में चारों ओर से तो टेंट लगा हुआ था, लेकिन ऊपर से खुला था। नीचे फिल्म चलता था, और ऊपर आसमान में तारे टिमटिमाते रहते थे। कभी-कभी मौसम दगा दे जाती थी, और बूंदाबांदी होने लगती थी। ऐसे में लोग गमछे को अपने सिर पर रखकर तब तक फिल्म देखते रहते थे, जबतक बारिश की रफ्तार तेज नहीं हो जाती थी और प्रोजेक्टर मैन को मजबूर होकर उसे रोकना नहीं पड़ता था। तेज बारिश की स्थिति में लोग मैदान से निकल कर सुरक्षति स्थान की तलाश में पेड़ों के नीचे भागते थे, और बारिश रुकने का इंतजार करते थे। बारिश के रुकने की स्थिति में फिल्म दुबारा शुरु होती थी, और नहीं रुकने की स्थिति में लोगों को इस आश्वासन के साथ वहां से चलता कर दिया गया था कि इसी टिकट पर उन्हें यह फिल्म कल दिखाई जाएगी। उस समय लोगों के चेहरे पर निराशा और झुंझलाहट स्पष्टतौर से दिखाई देती थी।

प्रत्येक दिन फिल्म की पब्लिसिटी का भी पूख्ता इंतजाम किया जाता था। टेंट के बाहर एक ब्लैकबोर्ड पर उस दिन दिखाये जाने वाले फिल्म का नाम रंग-बिरंगे चौक से लिख दिया जाता था। और कभी-कभी उपलब्ध होने पर पोस्टर भी चिपका दिया जाता था। दिन में तीन बजे के बाद एक रिक्शे पर बड़ा सा लाउडस्पीकर लगाकर उसे अगल-बगल के इलाके में घुमाया जाता था। रिक्शे पर बैठा व्यक्ति माइक पर जोर-जोर से उस फिल्म का प्रचार करता था जिसे उस दिन दिखाया जाना होता था। पुनाईचक में इधर-उधर भटकते हुये बच्चों का गैंग दूर से ही लाउटस्पीकर से आ रही आवाज को सुनकर खुश हो जाता था और कान लगाकर यह सुनने का प्रयास करता था कि आज कौन सी फिल्म दिखाई जाएगी। कभी-कभी बच्चों का पाला रिक्शेवाले से नहीं पड़ता था तो शाम होते-होते पूरा गैंग आर ब्लौक की तरफ कूच कर जाता था। एक-दूसरे को छेड़ते और गालियां देते हुये गैंग के सभी सदस्य ब्लैक बोर्ड पर फिल्म का नाम देखकर लौट आते थे।

आर ब्लौक में फिल्म देखने का दौर लगातार चलता रहा, और इसका स्पष्ट प्रभाव बच्चों के दिमाग पर भी पड़ रहा था। बल्लू नाम का एक लड़का तो उसी समय फिल्म के लिए एक स्टोरी लिखने की योजना बनाने लगा था। कहीं से उसे पता चला था कि देव आनंद नई-नई कहानियों की तलाश में रहते हैं। बल्लू नई-नई कहानियों की तलाश में रहता था, और उसे एक साथ सभी कहानियों को जोड़-जाड़ कर उसे तीन घंटे की फिल्म बनाने की जुगत रहता था। उस दौर की फिल्में सामान्यतौर पर बदला की भावना से प्रेरित होती थी, और बल्लू भी कुछ इसी तरह की कहानी बनाता था, मसलन उसके हीरो के बाप को खलनायक मार देता है, फिर वह बड़ा होता है तो अपने बाप का बदला खलनायक से लेता है। इस बात को लेकर सभी लड़के बल्लू को खूब चिढ़ाते थे, लेकिन कहानी बनाते रहने की आदत से वह बाज नहीं आता था।        

दुर्गा पूजा शुरु होते ही आर ब्लौक का वह ओपोने थियेटर बंद हो जाता था, लेकिन इसके साथ ही अन्य स्थानों पर जहां पर दुर्गा मां की मूर्ति रखी जाती थी फिल्में दिखाने की प्रक्रिया शुरु हो जाती थी। लेकिन इसके लिए रात-रात भर टोह लेना होता था। बच्चों का गैंग दूर-दूर के इलाकों को यह पता लगाने के लिए कि कहां फिल्में दिखाई जा रही हैं छान मारता था। कुत्ते की तरह कान खड़ा करके एक गली से दूसरी गली में चक्कर लगाते हुये पूरा गैंग उस स्थान तक पहुंच ही जाता था जहां फिल्में दिखाई जा रही होती थी।

 जारी……( अगला अंक अगले शनिवार को)

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5 Comments

  1. Alok,
    I really enjoyed to read this.The way you write,it’s simple and humrous.It was a journey down memory lane.Best wishes !!

  2. आपने लिखा है – ‘जारी……( अगला अंक अगले शनिवार को)’
    रूक क्यों गये। कहीं फिर पटना को दूर से तो नहीं देखने लगे।
    आगे भी लिखा करें साहब!

  3. चंदन जी, वक्त की थोड़ी कमी हो गई है, फिर भी मैं कोशिश करुंगा कि इसे आगे भी लिखूं…..पुराने जमाने के दूरदर्शन के शब्दों में असुविधा के लिए खेद है।

  4. संस्मरण तो मुझे अच्छे लगते हैं।
    समय जो आपके वेबसाइट पर दिखता है साढे पांच घंटा पीछे है। भारतीय समय के लिए इसमें साढे पांच घंता जोड़ लें। आपके वेबसाइट पर 17 तारीख 16 तारीख की रात को 12 बजे दिखने के बजाय 17 तारीख को 5:30 बजे दिखता है।

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