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बच्चों के लिए ‘स्कूल चले हम’ से पहले ‘पंचायत चले हम’ का नारा जरूरी

गांवों के बच्चे बड़ी संख्या में मजदूर बनते जा रहे हैं. अगर बच्चों की संख्या स्कूलों की बजाय काम की जगहों पर ज्यादा मिल रही है तो उनके लिए स्कूल चले हमसे पहले पंचायत चले हमका नारा देना जरूरी लगता है.

 चाहे गांवों के विकास का हवाला हो या गांवों के लगातार टूटे जाने का मौजूदा हाल हो, बच्चों के मुद्दों को बहुत पीछे रखा जा रहा है. खास तौर से गांवों के लगातार टूटे जाने के मौजूदा संदर्भ में बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं. इसे देखते हुए नीतिगत प्रक्रियाओं में बच्चों को केन्द्रीय स्थान देने की जरुरत है. लेकिन विकराल स्वरूप लेते जाने के बावजूद बाल मजदूरी जैसी समस्या जहां मुख्यत: राजनैतिक तौर से नजरअंदाज बनी हुई है, वहीं स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक बच्चों से जुड़े तमाम सवालों को भी बहुत हल्के ढ़ंग से लिए जाने की मानसिकता घर बना चुकी है.

 खुशहाल, स्वस्थ्य और रचनात्मक बचपन का सूत्र गांवों के भविष्य का आधार है, लेकिन बच्चों के मुद्दों को पंचायत की नीतियों से भी अलग-थलग करने या वरीयता की सूची में निचले पायदान पर रखे जाने से ग्रामीण बच्चों की तस्वीर दिन-ब-दिन बदसूरत देखी जा रही है. जाहिर है कि ग्राम पंचायतों में पंच-सरपंचों और सचिवों से सकारात्मक रुख की अपेक्षा किए बगैर यह तस्वीर नहीं सुधरने वाली है. ऐसे में स्थानीय समुदायों का महत्व बढ़ जाता है जो बाल अधिकारों और संरक्षणों को लेकर अपने-अपने जन-प्रतिनिधियों के साथ लगातार बैठकों को आयोजित करके उन्हें संवेदनशील बना सकते हैं. इसके लिए स्थानीय स्तर पर खास तौर से वंचित समूह के बच्चों की समस्याओं, उनकी जरूरतों और ताकतों की पहचान करके, स्थानीय स्तर पर संचालित विभिन्न योजनाओं के भीतर उन्हें और उनके परिजनों के लिए विकल्प तलाशे जा सकते हैं. इसके दूसरे सिरे के रूप में निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों को अपनी प्रशासन अकादमियों से संपर्क बढ़ाने की जरुरत है जिसके जरिए जरूरी जानकारियों को लेते हुए कार्रवाई करने में सहूलियत हो सके.

 ग्रामीण इलाकों में बच्चों के लिए काम करने के दौरान बाल अधिकारों से जुड़े मुद्दों को केवल ग्रामीण परिवेश में ही देखने से काम नहीं चलेगा बल्कि उससे जुड़ी कुछ बुनियादी घटनाओं, नीतियों और पहलुओं को भी समझना जरूरी होगा, ताकि सभी बच्चों के अधिकारों को सुनिश्चित किया जाना संभव हो सके. उदाहरण के लिए 2 सितम्बर, 1990 को सयुंक्त राष्ट्र के बाल अधिकार समझौता पर विश्व के दो देशों (अमेरिका एवं सोमालिया) को छोडक़र सभी ने हस्ताक्षर किए तथा बच्चों के अधिकारों और संरक्षणों को लेकर पहल की. भारत ने 11 दिसम्बर, 1992 को इस समझौते पर हस्ताक्षर किए. बाल अधिकार समझौते में 18 साल की आयु तक के बच्चों के अधिकारों और संरक्षणों की बात कही गई है. जबकि भारत में 0 से 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को ही बच्चा मानकर उनके अधिकारो के संरक्षण के लिये कानूनी प्रावधान किये गये हैं. यही नहीं अलग-अलग अधिनियमों के मुताबिक बच्चों की उम्र भी बदलती जाती है. जैसे किशोर-न्याय अधिनियम, 2000 में 18 साल, बाल-श्रम अधिनियम, 1886 में 14 साल, बाल-विवाह अधिनियम में लड़के के लिए 21 साल और लड़की के लिए 18 साल की उम्र तय की गई है. खदानों में काम करने की उम्र 15 और वोट देने की उम्र 18 साल है. इसी तरह शिक्षा के अधिकार कानून में बच्चों की उम्र 6 से 14 साल रखी गई है. इससे 6 से कम और 14 से अधिक उम्र वालों के लिए शिक्षा का बुनियादी हक नहीं मिल सकेगा. इसी तरह भारत में बच्चों की उम्र को लेकर भी अलग-अलग परिभाषाएं हैं. इसी तरह विभिन्न विभागों और कार्यक्रमों में भी बच्चों की उम्र को लेकर उदासीनता दिखाई देती है. 14 साल तक के बच्चे युवा-कल्याणमंत्रालय के अधीन रहते हैं. लेकिन 14 से 18 साल वाले बच्चे की सुरक्षा और विकास के सवाल पर चुप्पी साध ली जाती है. बच्चों के अधिकारों में प्रमुख रूप से चार अधिकार- जीने का अधिकार, विकास का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार और विचारों की सहभागिता का अधिकार आते हैं.

 बच्चों को सुरक्षित माहौल देने के लिए ग्राम सभा की बैठकों में बच्चों के साथ बाल अधिकारों के बारे में अलग से चर्चा का सिलसिला शुरू किया जा सकता है. बच्चों को सुरक्षित माहौल देने के संबंध में उनका शोषण रोकने, उन्हें बाल मजदूरी से मुक्त रखने और हिंसा से बचाव करने जैसे मामले प्रमुख हैं. हर बच्चा स्कूल जाये, उसे अच्छा खाना मिले, बच्चा अपराधी न बने इसके लिये समुदायों द्वारा चाइल्ड लाईन भी अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं. इस दिशा में मध्य-प्रदेश के भोपाल में चाइल्ड लाईन 1098 को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है. जिसके जरिए बीते 1 दशक में तकरीबन 1 लाख बच्चों की मदद की जा सकी है. इस तरह समुदायों के आपसी सहयोग से संचालित बाल अधिकारों के हनन की सूचना चाइल्ड लाईन पर दी जा सकती है. कानून में बच्चों को प्रताड़ित करने वालों में से किसी को भी नहीं छोड़ा गया है और परिवारजनों सहित सभी लोगों के लिए सजा का प्रावधान रखा गया है.

 पंचायतों में गठित समितियों को सशक्त बनाकर बाल अधिकारों का संरक्षण किया जा सकता है. इसके तहत कई महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देने की जरुरत है, जैसे बच्चे के पैदा होते ही उसके जन्म पंजीयन का अधिकार है जिसे गांवों में ग्राम पंचायतें पूरा करती हैं. विकलांग एवं परिवारविहीन बच्चों के भी अपने अधिकार हैं जिसे जिला स्तर पर गठित बाल कल्याण कमेटी के माध्यम से पूरा कराया जा सकता हैं वगैरह.

 सभी बच्चों खास तौर से बालिकाओं को शिक्षा दिलाने के लिए ग्रामीण परिवेश में भी जागरूकता लाने की जरूरत है. गैरबराबरी को बच्चियों की कमी नही बल्कि उनके खिलाफ मौजूद स्थितियों के तौर पर देखा जाना चाहिए. अगर लड़की है तो उसे ऐसा ही होने चाहिए, इस प्रकार की बातें उसके सुधार की राह में बाधाएं बनती हैं. इसके चलते समाज में कन्या भ्रूण हत्या, बाल दुर्व्यवहार और बाल विवाह जैसी समस्याएं पलती-बढ़तीं हैं. सामाजिक धारणा को समझने के साथ-साथ बच्चियों को बहन, बेटी, पत्नी या मां के दायरों से बाहर निकालने और उन्हें सामाजिक भागीदारिता के लिए प्रोत्साहित करने में मदद के तौर पर जाना जाए. समाज में जागरूकता आने के बावजूद अब भी लोग बेटी नहीं बेटे चाहते हैं जबकि क्राई के अध्ययनों में यह साफ् हुआ है कि लडकियां व्यक्तिगत और सामूहिक रूप में समाज की पुरानी परंपराओं को तोड़कर आगे बढ़ रही हैं और भेदभाव को स्वीकार नहीं कर रही हैं. वे मंजिल हासिल करने की दिशा में बढ़ने लगी हैं.

शिरीष खरे

माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्‍वविद्यालय, भोपाल से निकलने के बाद जनता से जुड़े मुद्दे उठाना पत्रकारीय शगल रहा है। शुरुआत के चार साल विभिन्न डाक्यूमेंट्री फिल्म आरगेनाइजेशन में शोध और लेखन के साथ-साथ मीडिया फेलोसिप। उसके बाद के दो साल "नर्मदा बचाओ आन्दोलन, बडवानी" से जुड़े रहे। सामाजिक मुद्दों को सीखने और जीने का सिलसिला जारी है। फिलहाल ''चाइल्ड राईट्स एंड यू, मुंबई'' के ''संचार विभाग'' से जुड़कर सामाजिक मुद्दों को जीने और समझने का सिलसिला जारी है।

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