बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मकड़जाल( भाग-1)
प्रस्तुतकर्ता : चंदन कुमार मिश्र
इन विदेशी कम्पनियों ने देश में कम्पन पैदा कर दिया है। पूरे देश में लाखों-करोड़ों लोगों के अस्वस्थ बनाने, रोजगार छीन लेने, भारत को कमजोर बनाने, पूरे देश को जकड़ कर जोंक की तरह पकड़ कर रखने में इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने कोई प्रयास नहीं छोड़ रखा है। इसी विषय पर आइए एक शानदार किताब पढ़ते हैं जो कुछ कड़ियों में आपके सामने प्रस्तुत की जायेगी जिसका नाम है- ‘बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मकड़जाल’। इसके लेखक हैं राजीव दीक्षित। इस किताब में निम्न अध्यायों को पढ़ेंगे।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मकड़जाल
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का इतिहास
युद्ध की राजनीति और हथियारों का व्यवसाय
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आपसी विलय
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का भारत में प्रवेश
विदेशी पूँजी का धोखा
भुगतान सन्तुलन और निर्यात का भ्रम
कर्ज और आर्थिक सहायता की राजनीति
उच्च विदेशी तकनीक का झूठ
घटते रोजगार और बढ़ती बेरोजगारी
दवाओं के नाम पर लूट
गुलाम होती खेती
आधुनिक विकास या प्रकृति विनाश
संस्कृति पर हमला
राजनैतिक हस्तक्षेप
विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और भारत
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का असली चेहरा
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मकड़जाल
-राजीव दीक्षित
आमुख
मानव समाज के लम्बे इतिहास में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का उदय एक ऐसी घटना है जिसने मनुष्य की जीवन शैली और अनुभव से परखे टिकाऊ मूल्यों को झकझोर दिया है। नवजात शिशु के भरपूर पोषण के लिए प्रकृति प्रदत्त माँ के स्तनपान की चिरकाल से चली आयी स्वास्थ्य परम्परा के स्थान पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा ’बेबी फूड’ को स्थापित करवा देना इसका एक उदाहरण मात्र है। राज्य, राष्ट्रीयता, धर्म, ईमान इन सब से ऊपर उठकर मुनाफा और आर्थिक साम्राज्य की हवस ने इन कम्पनियों को ’सुपरस्टेट’ बना डाला है जो प्रकृति और मनुष्य दोनों के शोषण पर टिकी है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में – रोजमर्रा के उपभोक्ता सामान से लेकर युद्ध के विकराल हथियार बनाने तक – इनकी घुसपैठ है। विश्व के पर्यावरण को, विभिन्न क्षेत्रों में उद्भूत संस्कृतियों को इन कम्पनियों ने रोड रोलर की तरह रौंद डाला है।
यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति ने पश्चिम के देशों को अपने उपनिवेश बनाने में बड़ी मदद दी। इस उपनिवेशीकरण ने पश्चिम के देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को तीसरी दुनिया के देशों में अपना व्यापार जाल फैलाने का भरपूर अवसर दिया। उपनिवेशी ताकतों की छत्र छाया में इन्होंने लातीनी अमरीका, अफ्रीका और एशिया के देशों से सस्ता कच्चा काल बटोरा और अपने महंगे ’बने बनाए’ माल से उनके बाजारों को पाट दिया। नतीजतन इन देशों की टिकाऊ अर्थव्यवस्था टूट गयी और सम्पन्न देश अविकसित देशों की श्रेणी में धकेले दिये गये। द्वितीय महायुद्ध के बाद उपनिवेशीकरण का जाल टूटा, पर विकास के नाम पर ये कम्पनियाँ तीसरी दुनिया में अपनी घुसपैठ बनाए रहीं। उपनिवेशकाल में जो काम पुलिस-फौज के हथियार करते थे, उत्तर उपनिवेशकाल में वह काम विश्व बैंक और मुद्राकोष की सहायता से ऋण के हथियार द्वारा किया गया। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को तीसरी दुनिया में निर्बाध रूप से अपने पाँव पसारने का कानूनी हक गैट के यूरूग्वे चक्र की समाप्ति पर बने विश्व व्यापार संगठन ने दे दिया जिसके तहत ये कम्पनियाँ इन देशों से ‘राष्ट्रीय व्यवहार’ पाने की हकदार बन गयी है।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने तीसरी दुनिया के देशों की आर्थिक स्वायत्तता को नष्ट कर दिया है तथा व्यापक पैमाने पर गैर-बराबरी, और उपभोक्तावादी अपसंस्कृति फैलाई है। अब तो विकसित देश भी इनके कारण बेरोजगारी और उसके फलस्वरूप फैलते सामाजिक तनाव के शिकार हो रहे हैं।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बढता मकडजाल न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनियां में मानवीय संस्कृति और सभ्यता के लिए खतरे की घंटी बन चुका है। इसलिए इनके खिलाफ चलने वाले इस अभियान में हम सभी एकजुट होकर आवाज उठायेंगे तो निश्चित रूप से भारतीय संस्कृति और सभ्यता की रक्षा कर सकेंगे।
राजीव दीक्षित
सेवाग्राम, वर्धा
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मकड़जाल
मानव सभ्यता के विकास के इतिहास में किसी भी नयी खोज ने इतने मनोवेग, गहरे-संदेह, तीखी आलोचना व सनसनी को जन्म नहीं दिया, जितना कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने। जासूसी उपन्यासों का सा रोमांच पैदा करने वाली इनकी रहस्यपूर्ण गतिविधियों की जब कलई खुलती है तो अन्तर्राष्ट्रीय प्रेस जगत भी भौंचक्का रह जाता है जो कि स्वयं इस तरह की कारगुजारियों का भंडाफोड़ करने का आदी है। रोशनी की एक नीली सी लकीर अन्तर्राष्ट्रीय जगत के उन पुरोधाओं को भी चकाचौंध से आँखें भींचने पर मजबूर कर देती है, जो इस मुगालत में रहते है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति उनके इशारों पर संचालित होती है।
आज ऐसे किसी भी बड़े अन्तर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय विवादों को ढूँढ़ पाना कठिन है जिनके पीछे कहीं न कहीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के स्वार्थ न जुड़ें हों। किसी आर्केस्ट्रा के संचालक की भाँति ये कम्पनियाँ यह निर्धारित करती है। कि देश के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों एवं नेताओं को किस प्रकार के स्वर निकालने चाहिए। ये कम्पनियाँ उनके प्रति विशेष रूप से निर्मम होती हैं जो उनकी बात नहीं मानते। ऐसे लोगों को सीधे-सीधे उनके पदों से हटा दिया जाता है या उनकी हत्या करवा दी जाती है। इसलिए इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ’सुपर स्टेट’ भी कहा जाता है। जिन देशों की ये कंपनियों होती हैं उन देशों की सरकारें भी इनसे भयभीत रहती है क्योंकि ये राज्य के ऊपर एक अधिराज्य के रूप में काम करती हैं। अब ‘राज्य की नीति’, ‘राज्य की शक्ति’, ‘राज्य की सम्प्रभुता’, आदि शब्द अर्थहीन हो गये है। इन कंपनियों की नीतियों से ही अब राज्य की नीतियां निर्धारित होती है। किन्तु विकसित देश इनको बर्दास्त करते हैं और इनका पोषण भी करते है क्योंकि ये कम्पनियां उनके लिए विकासशील व अविकसित देशों का दोहन करती हैं और नये साम्राज्यवाद को बनाये रखती है।
इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का आपस में अनिष्टकारी गठजोड़ वास्तव में नयी सम्प्रभु शक्ति है। ये कंपनियाँ विशाल राजनैतिक शक्ति वाले अधिकाधिक स्वाधीन केन्द्र बनते जा रहे है जिन्होंने दुनिया के सभी देशों में राज्य के अन्दर राज्य जैसा कुछ बना लिया है जिसने स्वतन्त्र शक्ति हासिल कर ली है। इन कम्पनियों की ताकत का अनुमान इस बात से ही आसानी से लगाया जा सकता है कि अमेरिका जैसा शक्तिशाली राज्य भी इन कम्पनियों की अवैध गतिविधियों पर रोक नहीं लगा सकता है। अमेरिका के ‘फडरल रिजर्व बोर्ड’ को इस बात की जानकारी नहीं होती है कि कितना ‘यूरो डालर’ कहां और किसके पास है ? और वह अमेरिका में कैसे प्रवेश कराया गया है ? (विदेशों में जमा तरल मुद्रा का भंडार ‘यूरो डालर’ कहलाता है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास करीब 3100 अरब डालर (78,000 अरब रूपये लगभग) की तरल परिसम्पतियाँ बताई जाती है जो विश्व की सभी सरकारों की तरल परिसम्पतियों का लगभग तीन गुना है। इनमें जरा सा भी परिवर्तन करने पर विश्व भर में भयंकर वित्तीय संकट उत्पन्न हो सकता है।
सन् 1988 में संसार के कुछ प्रमुख देशों की कम्पनियों ने 10,720 अरब डालर (20,2960 अरब रूपये लगभग) का व्यापार किया। देशों के अनुसार, कम्पनियों के व्यापार का आँकड़ा निम्न है:-
अमेरिका 4807 अरब डालर (36,526 अरब रू.)
जापान 2843 अरब डालर (51,174 अरब रू.)
पश्चिम जर्मनी 1201 अरब डालर (21,618 अरब रू.)
फ्रांस 947 अरब डालर (17046 अरब रू.)
इटली 828 अरब डालर (14,904 अरब रू.)
ब्रिटेन 813 अरब डालर (14,634 अरब रू.)
कनाडा 482 अरब डालर (8,676 अरब रू.)
(स्रोतः फारचून, जून 1990)
अब राजनैतिक रूप से किसी देश को गुलाम बनाना सम्भव नहीं है। अतः देशों को आर्थिक रूप से इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के जरिये गुलाम बनाया जाता है। ये कम्पनियाँ आर्थिक साम्राज्यवादी शोषण का एक प्रमुख हथियार है। किसी भी देश की राजनैतिक व्यवस्था को नियंत्रित किया जाता है, इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा। क्योंकि राजनीति अपने आप में कोई एक निरपेक्ष तत्व नहीं है। दूसरी ओर आर्थिक व्यवस्था भी अपने आप में अन्तिम सत्य नहीं है। यदि किसी देश की राजनैतिक व्यवस्था में किंचित परिवर्तन होता है तो आर्थिक होता है तो आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था एक बडे़ अनुपात में बदलती है और समाजीकरण का पूरा ढाँचा ही परिवर्तित हो जाता है। जिससे जीवन मूल्यों पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है और एक मिश्रित संस्कृति का आविर्भाव होता है जिसके पैर अपनी
ही जमीन से उखड़कर किसी दूसरी जमीन की तलाश में होते हैं।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का इतिहास
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की जड़ें मध्यकाल में वेनिस, अँग्रेज, डच व फ्रांसीसी व्यापारियों द्वारा स्थापित कंपनियों में मिलती हैं। प्राचीन सभ्यता में भी व्यापारियों द्वारा दूसरे देश में जाकर व्यापार करने के उदाहरण मिलते हैं। देश की सीमाओं को लांघ कर दूसरे देशों में व्यापार करने के प्रमाण ‘मेसोपोटामिया सभ्यता’ के समय के मौजूद हैं। लेकिन यह व्यापार मुख्यतः स्वतन्त्र व्यक्तियों द्वारा ही किया जाता था। व्यापारी समूह बनाकर एक देश से दूसरे देश में अपने माल की बिक्री के लिये जाते थे, और आवश्यकता की वस्तुयें वहां से खरीद कर लाते थे। भारत का रोम के साथ व्यापार, भारत का बर्मा, मलाया (अब मलेशिया), चीन आदि के साथ व्यापार इसी श्रेणी में आता था। रोमन साम्राज्य के समय
पार-राष्ट्रीय व्यापार खूब होता था, लेकिन व्यापारियों द्वारा साम्राज्य के पतन के बाद भारत का व्यापार चीन के साथ शुरू हुआ। मुख्यतः दक्षिण भारत का हिस्सा चीन के साथ व्यापारिक गतिविधियों में अधिक संलग्न था। व्यापार के इस स्वरूप में शोषण की कहीं कोई गुंजाइश नहीं थी और न ही मेजबान व मेहमान देशों के बीच इस व्यापार को लेकर कोई झगड़ा हुआ करता था।
आधुनिक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के चरित्र वाली दुनिया की सबसे पहली कम्पनी ’द मस्कोवी कम्पनी’ मानी जाती है जिसकी स्थापना सन् 1553 में हुयी थी। इस कम्पनी ने अपनी स्थापना के 3 वर्षो बाद ही दुनिया के महत्वपूर्ण शहरों में अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान स्थापित कर लिये थे। सन् 1553 से 1581 तक ‘मस्कोवी कम्पनी’ ने अकूत मुनाफा कमाया और सन् 1581 में कम्पनी के अलमबरदारों ने एक और विशालकाय कम्पनी ‘द टर्की कम्पनी’ को स्थापित कर लिया। इस ‘टर्की कम्पनी’ की विशेषता थी कि इसने स्थापना के समय ही दुनिया के महत्वपूर्ण नगरों में अपने पाँव पसारे। ऐसा नहीं था कि 1553 से सन् 1581 के बीच दुनिया में किसी अन्य कम्पनी का जन्म ही नहीं हुआ। अन्य कई छोटी कम्पनियाँ सामने आयी लेकिन अधिक दिन तक चल न सकी। अतः यह कहा जा सकता है कि सन् 1553 से सन् 1581 तक ‘मस्कोवी कम्पनी’ का व्यापारिक क्षेत्र में एकाधिकार रहा।
सन् 1600 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में व्यापार करने के लिये आयी। हालाँकि इस कम्पनी की स्थापना एलिजाबेथ प्रथम के समय में ही हो चुकी थी, लेकिन इस कम्पनी ने बहुराष्ट्रीय चरित्र सन् 1600 में ही ग्रहण किया। भारत आने से पूर्व इस कम्पनी ने दुनियाँ के अन्य हिस्सों में भी पैर जमाने की कोशिश की थी लेकिन वह सफल नहीं हो सकी। उस समय दक्षिण-पूर्व एशिया में अनेक छोटी-मोटी डच कम्पनियाँ अपना व्यापार कर रहीं थी। भारत में भी कुछ डच कम्पनियों को प्रवेश हो चुका था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सन् 1612 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने डच कम्पनियों के साथ अम्बोनिया (इन्डोनेशिया) में एक युद्ध लड़ा था। इस युद्ध में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने एक षड्यन्त्र के तहत डच कम्पनियों के अधिकारियों की सामूहिक हत्या करवा दी। सन् 1667 के आते-आते ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने डच कम्पनियों का नामो-निशान मिटा दिया। सूरत के बन्दरगाह पर कब्जा करने के लिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 1612 में स्वाली में भी एक युद्ध लड़ा जिसके बाद सूरत के बन्दरगाह पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का पूर्ण अधिकार हो गया। इसके बाद ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शिकंजा पूरे देश पर कसता चला गया।
ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति से पूर्व, सन् 1670 में स्थापित ‘द हडसन बे कम्पनी’ सन् 1672 में स्थापित ‘द रायल अफ्रीकन कम्पनी’ व 1711 में स्थापित ‘द साउथ सी कम्पनी’ आदि विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ दुनिया के तमाम हिस्सों में व्यापार कर रही थी।
सन् 1750 के बाद का दौर ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति का दौर था। जिसके दौरान उत्पादन की तकनीक में आमूल परिवर्तन आया। सन् 1600 से 1750 के बीच अंग्रेजी कम्पनी ने, जिसमें ईस्ट इण्डिया कम्पनी भी शामिल थी, अंग्रेजों को अकूत पूँजी का मालिक बना दिया। भारत व दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य देशों का शोषण करके अंग्रेजी बाजार में पैसे का प्रवाह अत्याधिक बढ़ गया। बाजार की ताकतें (बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ) बाजार में ताकतवर होती गयी। मुद्रा का दबाव लगातार बढ़ने का परिणाम औद्योगिक क्रान्ति के रूप में सामने आया।
औद्योगिक क्रान्ति ने व्यापारिक कम्पनियों को जमीन से जमीन से उठाकर आसमान पर बिठा दिया। अधिक उत्पादन व कम लागत के सिद्धान्त के चलते कम्पनियों के मुनाफे बहुत तेजी से बढ़ते गये। सन् 1765 से 1785 के बीच मात्र 20 वर्षों में एक तरफ तो कई नये आविष्कार हुये तथा दूसरी और कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का जन्म हुआ।
सन् 1770 के अकाल में भारत में जहां लाखों लोगों की मौत हो रही थी, वहीं अंग्रेजी जमीन पर वैभव का नंगा नाच हो रहा था। जिस अनुपात में लोग ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा रचाये गये अकाल में मर रहे थे उसी अनुपात में अंग्रेजी साम्राज्य में कम्पनियों तथा आविष्कारों से चमत्कार हो रहे थे। अंग्रेजी बैंकों में इतना अधिक धन जमा हो गया था कि उतना धन दुनिया के किसी भी हिस्से में यदि होता तो वहाँ भी औद्योगिक क्रान्ति हो गयी होती।
मात्र 50,000 पाउण्ड से भारत में व्यापार शुरू करने वाली ईस्ट इण्डिया कम्पनी सन् 1770 तक आते-आते भारत से 20,00000 पाउण्ड के बराबर का मुनाफा प्रतिवर्ष कमाती थी। सन् 1860 तक कुछ और विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, जो मूलतः ब्रिटेन की थी, दुनिया में अपनी पहचान बना चुकी थी। इसमें ऐनड्रयू यूल एण्ड कम्पनी, डंकन एण्ड ब्रदर्स कम्पनी, मेक्लाइट एण्ड कम्पनी, बर्न एण्ड कम्पनी, डंकन एण्ड ब्रदर्स कम्पनी,
आक्टेवियस स्टील एण्ड कम्पनी, गिलान्डर्स अर्बुथनाट एण्ड कम्पनी, शा वालेस कम्पनी ऐसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ थीं, जिनकी 50 से अधिक कम्पनियाँ दुनिया के विभिन्न हिस्सों
में कार्य कर रही थीं। इन ब्रिटिश कम्पनियों के बारे में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जिन-जिन देशों में ये कम्पनियाँ व्यापार करने के लिये गयी, उन देशों में अंग्रेजी साम्राज्य का झंडा लहराया गया। ब्रिटिश साम्राज्य की सीमायें बढ़ाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका वहां की कम्पनियों ने निभायी थी।
18 वीं शताब्दी के मध्य तक उत्तरी अमेरिका में ब्रिटेन की 13 कम्पनियाँ व्यापार कर रहीं थी। बाद में ये क्षेत्र, जिनमें ब्रिटिश कम्पनियाँ व्यापार के नाम पर शोषण कर रही थीं, ब्रिटिश उपनिवेश बने। इस उपनिवेशों के नाम भी उन्हीं कम्पनियों के नाम पर रखे गये जो इन क्षेत्रों की मालिक बन बैठी थी। उदाहरण के लिये मैसाचुसेट, बोस्टन, लेक्सिग्रंटन, वर्जीनिया, मैरीलैण्ड, जर्सी, पेनसिल्वेनिया आदि जगहों के नाम कम्पनियों के नाम पर रखे गये। जार्ज वाशिंगटन जैसे नेताओं के नेतृत्व में ब्रिटिश उपनिवेशों को मुक्त कराने का राष्ट्रीय आंदोलन अमेरिका में शुरू हुआ। आंदोलन का सबसे ताकतवर पक्ष था, अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार। लोगों ने अंग्रेजी कम्पनियों द्वारा बनायी गयी वस्तुओं को खरीदना बंद किया। कम्पनियों को अन्य प्रकार के सहयोग देना छोड़ा। ‘असहयोग’ और ‘बहिष्कार’ के नारों से अमेरिकी धरती गूंजी और इस गूंज का परिणाम सन् 1783 में
मिला, अंग्रेजी दासता से मुक्ति में। उन 13 अंग्रेजी कम्पनियों को अमेरिका की धरती से अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा।
ब्रिटिश कम्पनियों द्वारा जो बीज अमेरिका की धरती छोडे़ गये, वे अब पौधे बनने लगे थे। अमेरिका में भी छोटी-छोटी कम्पनियाँ अस्तित्व में आने लगीं थीं। सन् 1865 में अमेरिका का सिविल वार समाप्त हुआ जिसको अमेरिकी औद्योगिक क्रान्ति का नाम दिया जा सकता है। सिविल वार की समाप्ति के बाद अमेरिका उसी नक्शे कदम पर चलने लगा जिस पर कभी ब्रिटेन चला था।
अमेरिका की सबसे पहली बहुराष्ट्रीय कम्पनी ‘सिंगर’ थी, जो 1867 में स्थापित हुई। इस कम्पनी ने देश के बाहर अपनी पहली उत्पादन इकाई 1867 में ही ग्लासगो (स्काटलैण्ड) में स्थापित की। सन् 1867 में ‘बायर’ ने अपनी पहली उत्पादन इकाई कोलोन (फ्रांस) में स्थापित की थी जिसमें रासायनिक पदार्थ एनीलीन तैयार किया जाता था। इस कम्पनी के जनक प्रख्यात वैज्ञानिक फ्रेडरिक बायर थे जो जर्मनी के थे। सन् 1866 में विश्वविख्यात भौतिक शास्त्री अल्फ्रेड नोबुल ने डायनामाइट के उत्पादन के लिये
‘नोबुल इण्डस्ट्रीज’ नामक कम्पनी की स्थापना हेम्बर्ग में की। ये तीनों कम्पनियाँ बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ थीं, जो आज अपनी 450 से अधिक कम्पनियों के साथ आर्थिक जगत की बुलंदियों पर हैं। ज्ञात रहे कि दुनिया का प्रतिष्ठित नोबुल पुरस्कार, डायनामाइट व अन्य विस्फोटक पदार्थों का उत्पादन करने वाली कम्पनी नोबुल इण्डस्ट्रीज द्वारा ही दिया जाता है।
19 वीं शताब्दी की शुरूआत तक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आकार व समृद्धि में अत्यधिक वृद्धि होने लगी थी। अतः यूरोपीय देशों की सरकारों ने संरक्षणवाद की नीति को अपनाया था। जिसके तहत उन देशों की सरकारों ने अपने देश की कम्पनियों को संरक्षण दिया और दूसरे देश की कम्पनियों को अपने बाजार में घुसने पर कई पाबंदियां लगाई। सन् 1890 तक अमेरिका में 5000 कम्पनियाँ स्थापित हो चुकी थीं। यूरोपीय देशों में उनको घुसपैठ करना अब मुश्किल हो गया था। क्योंकि अधिकतर यूरोपीय देशों में कड़े आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिये गये थे। अब इन अमरीकी कम्पनियों ने आपसी प्रतियोगिता से बचने
के लिये आपस में ट्रस्ट बनाना शुरू कर दिया। 5000 कम्पनियों में आपस में गठजोड़ हुआ और प्रथम विश्व युद्ध तक आते-आत अमेरिका में 300 विशालकाय कम्पनियाँ देश की अर्थव्यवस्था पर कब्जा करके यूरोपीय दशों में भी घुस चुकी थीं। इन 5000 कम्पनियों के आपसी गठजोड़ ने आगे आने वाली कम्पनियों को आपस की प्रतियोगिता से बचने का, एक दूसरे के हितों का आपस में न टकराने का आसान रास्ता दिखाया। जब 5000 कम्पनियों ने आपस में मिलकर 300 विशालकाय कम्पनियाँ स्थापित की तो यूरोपीय देशों में कोहराम मच गया। देशों के आर्थिक प्रतिबन्ध ताक पर धरे रह गये। साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति अपनाकर इन कम्पनियों ने यूरोपीय देशों में घुसपैठ की तथा उन देशों की अर्थव्यवस्थाओं को अपने अनुरूप बदलकर रख दिया। खुले बाजार की अर्थव्यवस्था का नारा देकर उन देशों के पुश्तैनी रोजगार धंधों को चौपट किया। प्रथम विश्वयुद्ध के समय तक बाजी एक दम से पलट गयी थी। कल तक जो ब्रिटेन के हाथ थी अब बाजी अमेरिकी कम्पनियों के हाथ थी। सन् 1901 में ब्रिटेन में काम करने वाली कम्पनियों में सबसे बड़ी कम्पनी पूरे यूरोप की सबसे बड़ी कम्पनी हुआ करती थी। सन् 1914 तक पूरे यूरोप में जितनी कारें बनती थीं उनमें से एक-तिहाई कार अकेले अमरीका की फोर्ड कम्पनी बनाती थी। जबकि इस कम्पनी की स्थापना हेनरीफोर्ड ने सन् 1903 में की थी। प्रथम विश्वयुद्ध के शुरू होने तक अमरीकी कम्पनियों ने यूरोप को रौंद कर रख दिया। इन सन्दर्भ में एफ.ए, मैकेन्जी द्वारा 1902 में लिखित पुस्तक ‘द अमेरिकन इन्वेडर्स’ अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हैं। उनके स्वयं के शब्दों में- “अमेरिका ने यूरोप को रौंद दिया हे, अपनी फौजों से नहीं बल्कि कम्पनियों द्वारा तैयार उत्पादों से। इन कम्पनियों के कप्तान आज यूरोप के भाग्य विधाता बन बैठे हैं। जिन्होंने मैड्रिक से लेकर सेंट्स पीटरबर्ग तक लोगों के दैनिक जीवन को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। इन आततायी कम्पनियों के सामने अब कुछ भी सुरक्षित नहीं रह गया है। हमारे ड्राईवर अमरीकी गाड़ियों की गोद में बैठने को बेताब हैं। हमारे बच्चे अब अमरीकी भोजन पर पल रहे हैं और हमारे बुजुर्ग भी अब अमरीकी ताबूतों में दफनायें जा रहे हैं।” अमरीकी कम्पनियों द्वारा बने सामानों की बाढ़ में यूरोप डूब गया। सुई से लेकर बड़ी-बड़ी मोटर गाड़ियाँ तथा बच्चों को दूध पिलाने वाली बोतल से लेकर, मरने के बाद दफनाने के लिये ताबूत तक अमरीकी कम्पनियों द्वारा बनाये जा रहे थे। सन् 1914 तक कोयला, रेलवे, इस्पात, इन्जीनियरिंग, कार, पेट्रोलियम, एल्यूमिनियम, रसायन, कपड़ा आदि क्षेत्रों में अमरीकी कम्पनियों का प्रभुत्व स्थापित हो चुका था। सन् 1914 तक अमेरिका व यूरोप की कुल तरल परिसम्पत्ति का 90 प्रतिशत बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में लगा हुआ था।