लिटरेचर लव

बाइट्स प्लीज (उपन्यास, भाग-16)

33.

सुकेश और नीलेश को लेकर कंट्री लाइव में फुसफुसाहट होती रही। लोग एक दूसरे से इशारों में पूछते रहे कि क्या उनकी हमेशा के लिए छुट्टी कर दी गई, हालांकि कोई भी इस पर खुलकर चर्चा करने से बच रहा था। दूसरे दिन चंदन अपनी बगल की सीट पर नीलेश का काफी देर तक इंतजार करता रहा। कल दिन में वह जल्दी चला गया था, इसलिये उसे सुकेश और नीलेश पर हुई कार्रवाई के बारे में जानकारी नहीं थी।

“आज नीलेश और सुकेश सर नहीं आएंगे क्या? ”, चंदन ने सुजान से पूछा।

“आपको पता नहीं है, उनकी सात दिनों के लिए छुट्टी हो गई है। प्रोग्राम देर से गया था, इसलिये… ” सुजान ने कहा।

“और यहां जो खबरें देर से जा रही हैं उन्हें देखने वाला कोई नहीं है,” चंदन के शब्दों में चिड़चिड़ाहट थी। दो दिन पहले नरेंद्र श्रीवास्तव ने बगहा की एक खबर को लेकर उसके साथ डांट- डपट की थी। उसी दिन से उसके सिर पर झक सवार हो गया था और बार-बार यही कह रहा था कि अब वह यहां काम नहीं करेगा। उस दिन के बाद से उसने भी दफ्तर आना बंद कर दिया। एसाइनमेंट का काम देखने के लिए महेश सिंह ने मानषी को बैठा दिया था। मानषी का काम जिले के रिपोटरों की खबरों को एक रजिस्टर में नोट करना था ताकि महीने के अंत में यह हिसाब लगाने में सुविधा हो कि किस जिले के किस संवाददाता ने कितनी खबरें दी। मानषी के अलावा शिव को भी एसाइनमेंट पर लगा दिया गया था, साथ ही शिव स्क्रिप्ट का काम भी देख रहा था।

रंजन अपने आप को पूरी तरह से काम में लगाये रखने की कोशिश करता रहा, ताकि इधर –उधर की बातों से बचा रहे। दूसरी ओर महेश और भुंजग इस घटना के बाद से एक दूसरे के थोड़े करीब आ गये थे।

उधर फोन पर सुकेश की माहुल वीर से लगातार बात होते रही। माहुल वीर का कहना था कि इस मामले में सबसे बड़ी गलती रंजन ने की है। उसे इस तरह के लेटर लिखने के पहले कम से कम एक बार उससे बात कर लेनी चाहिये थी। माहुल वीर ने धीरे-धीरे नरेंद्र श्रीवास्तव को कांफिडेन्स में ले लिया और उन्हें यह समझाने में कामयाब रहा कि सुकेश और नीलेश के खिलाफ षडयंत्र किया गया है। रत्नेश्वर सिंह के कान में यह बात डाल दी गई कि भुजंग अच्छे लोगों को संस्थान में काम करने नहीं दे रहा है।

एक सप्ताह बाद सुकेश और नीलेश वापस दफ्तर आये तो ऊपर से सबकुछ नार्मल था। नरेंद्र श्रीवास्तव ने कहा, “ यह चैनल एक से दो महीने और चलेगा, तब तक काम कर लो। लाइसेंस को लेकर मामला फंसा हुआ है। ”

“इस चैनल पर मैंने एक रिपोर्ट तैयार किया है, पिछले सात दिन मैं यहां से दूर रहा तो मुझे यह रिपोर्ट बनाने का मौका मिल गया। मैं चाहता हूं कि यह रिपोर्ट एक बार आपको दे दूं, ” नीलेश ने नरेंद्र श्रीवास्तव से कहा।

“उसकी जरूरत नहीं है, एक से दो महीने में मामला बैठने वाला है। इसे लेकर ज्यादा मत सोचो, बस काम करो, पैसे मिलते हैं तो पैसे उठाओ, ” नरेंद्र श्रीवास्तव ने सहजता से कहा।

थोड़ी देर बाद दरबे में दाखिल होने पर रंजन ने खुश होकर नीलेश का स्वागत किया। एक बार फिर नीलेश, सुकेश और रंजन एक साथ बैठे थे।

“पिछले सात दिनों में मैंने इस चैनल के बारे में एक रिपोर्ट तैयार किया है। अब सवाल यह है कि यह रिपोर्ट मैं दू किसको, वैसे यह रिपोर्ट चैनल हेड के हाथ में जाना चाहिये, लेकिन उनकी इसमें कोई रुचि नहीं है,” कंप्यूटर को आन करते हुये नीलेश ने सुकेश की तरफ देखते हुये कहा।

“तो मुझे दे दो, मैं पढ़ लेता हूं। वैसे तुम जो भी करोगो,  बेकार के काम ही करोगे।,” सुकेश ने कहा।

“मेरे मेल पर है, अभी निकालता हूं, मैं जो कुछ भी करता हूं साइंटिफिक तरीके से करता हूं। आपके चैनल की शुरुआत कब से हुई, उस समय आप कहां खड़े थे, और इस वक्त आप कहां खड़े है कम से कम इसकी समीक्षा हो होनी चाहिये,” अपना मेल खोलते हुये नीलेश ने कहा। “ साथ में आपको यह भी तो साफतौर पर दिखना चाहिये कि आने वाले दिनों में किस दिशा में बढ़ना चाहते हैं, आप किस मोर्चे पर कमजोर हैं और किस मोर्चे पर मजबूत है इस बात की जानकारी भी आपको होनी चाहिये.”

“रिपोर्ट दो, बकवास मत करो,” सुकेश ने कहा।

“लो खुल गया, मेरे ही कंप्यूटर पर पढ़ लो इसे,”

यह कहते हुये नीलेश ने अपने मेल में कंट्री लाइव समीक्षा रिपोर्ट नामक एक फाइल पर क्लिक कर दिया और थोड़ी देर बाद फाइल खुल गया। सुकेश ध्यान से फाइल को पढ़ने लगा।

कंट्री लाइव समीक्षा रिपोर्ट

किसी भी संस्थान को सुचारू रूप से चलाने के लिए यह जरूरी होता है कि उस संस्थान से जुड़े तमाम पहलुओं की वैज्ञानिक समीक्षा क्रमवार होता रहे। विगत में कंट्री लाइव की दशा, दिशा और कार्यप्रणाली क्या रही इसे जानने-समझने के लिए इसके हर पहलू को पूरी तरह से वस्तुनिष्ठ तरीके से रखा जा रहा है, जो इस प्रकार है।

  1. प्रशासनिक व्यवस्था : प्रशासनिक स्तर पर कंट्री लाइव के पटना यूनिट में चैनल प्रमुख नरेंद्र श्रीवास्तव, स्टेट हेड भुजंग और ब्यूरो प्रमुख  महेश सिंह के ऊपर चैनल को बेहतर तरीके से चलाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। चैनल पर प्रसारित किये  जाने वाले कंटेट को लेकर शुरु से इन तीनों के बीच स्पष्ट रणनीती का अभाव दिखा। प्रशासनिक तालमेल की भी कमी थी।

उन कार्यक्रमों की सूची जिनपर सिर्फ तामझाम हुआ

  1. बुनियाद-
  2. चेहरा है या धूप खिला है
  3. बाजार भी कुछ कहता है
  4. मैं अश्लील नहीं हूं
  5. विरासत
  6. बात पते की
  7. अपना भी हो घोंसला
  8. स्टे हेल्दी
  9. वैकल्पिक चिकित्सा

कार्य- प्रकृति

ए. दो महीने तक भूजंग इन कार्यक्रमों पर अपने अधिनस्थ लोगों से कंसेप्ट बनवाते रहे। प्रोग्रामिंग की टीम में नीलेश, सुकेश बातौर प्रोड्यूसर और सीनियर प्रोड्यूसर के तौर पर काम करे थे। इसके अलावा सुमन, मानषी क्रमश: असिस्टेंट प्रोड्यूसर और ट्रेनी के रूप में टीम में थी । कार्यक्रमों को लेकर भुजंग की पूरी सोच धराशायी हो गई। ऊपर वर्णित सारे कार्यक्रम या तो बने ही नहीं ,यदि बने भी तो एक-दो किस्त से आगे नहीं बढ़ सके। इन कार्यक्रमों से जुड़े लोगों की डेली रिपोर्ट नीलेश की ओर से भुजंग को लगातार मेल किया जाता रहा। करीब दो महीने पूरी टीम अव्यवस्थित तरीके से इसी काम में लगी रही। (प्रोड्सर के रूप में मैंने पूरी तत्परता से सुमन, मानषी, सुकेश और तृष्णा को टाइपिंग सीखने के लिए प्रेरित किया, इसका सकारात्मक नतीजा निकला और आज ये लोग बेहतर तरीके से टाइपिंग करने में सक्षम हैं।)

इस दौरान बिहार चुनाव में अभी बाकी है फैसला जैसे कार्यक्रम बने। फिल्ड में तैनात रिपोटरों के अप्रशिक्षित होने की वजह से इस कार्यक्रम में भी वो धार नहीं आ सकी जो आनी चाहिये थी।  सटीक काम्युनिकेशन और फीड भेजने के स्तर पर रिपोर्टिंग लड़खड़ाती हुई नजर आई। चैनल की कार्य प्रणाली को लेकर सही समझ नहीं होने की वजह से नरेंद्र श्रीवास्तव, भुजंग और महेश सिंह इन कमियों का निवारण तो दूर पहचान तक कर पाने में पूरी तरह से अक्षम रहे। सबसे अधिक निराशा प्रोग्रामिंग को लेकर हुई। एक ओर भुजंग प्रोग्रामिंग के कार्यक्रमों को लेकर पूरी तरह से कंफ्यूज दिखे तो दूसरी ओर प्रोग्रामिंग से जुड़े नये लोगों को भी कुशल तरीके से प्रशिक्षित करने की ओर  से भी वे पूरी तरह से लापरवाह थे। कभी सुमन के ऊपर तो कभी मानषी के ऊपर स्वतंत्र रूप से कार्यक्रम बनाने की जिम्मेदारी सौंप देते थे। कुछ दिन तक ये दोनों  भुजंग के कहने पर इधर उधर भागदौड़ करती थी, लेकिन फिर लड़खड़ाकर थम जाती थी। एक असिस्टेंट प्रोड्यूसर और एक प्रशिक्षु पत्रकार से स्वतंत्र रूप से किसी प्रोग्राम को निकालने की बात सोचना भी भुजंग की काबिलियत पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।

बी. चैनल प्रमुख के तौर पर नरेंद्र श्रीवास्तव भी लगातार उदासीन बने रहे। जिसके कारण कंट्री लाइव में अराजक स्थितियां बनती गईं। महेश  सिंह और भुजंग इसे अपने अपने तरीके से हांकने की कोशिश करते रहे। दोनों की स्थिति एक रथ में जुड़े दो विपरित दिशाओं में जुते घोड़ों की तरह थी।  अपनी पूरी शक्ति से दोनों रथ को विपरित दिशाओं में खींचने का प्रयास कर रहे थे, जिसका नकारात्मक प्रभाव रथ पर पड़ा। अराजकता का चरमोत्कर्ष भुजंग को अनदेखी करते हुये महेश सिंह का प्रोग्रामिंग में भेजे जा रहे कार्यक्रमों को बाधित करना था। इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रशासनिक व्यवस्था में सामान्यतौर पर  प्रोग्रामिंग रिपोर्टिंग के अधीन नहीं होता। महेश सिंह ने इस सीमा का अतिक्रमण करके न सिर्फ प्रोग्रामिंग के कार्यक्रमों की दिशा को प्रभावित करने की कोशिश की, बल्कि प्रसारण के स्तर पर बने हुये एक कार्यक्रम को हो हल्ला मचाकर रोकने के लिए बाध्य किया। अराजकता की स्थिति यह थी कि संस्थान में काम करने वाले अहम अधिकारियों को खुद उन्हें अपनी सीमा तक का पता नहीं था।

अराजकता की स्थिति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि प्राइम स्पेशल कार्यक्रम के देर होने के लिए आउटपुट हेड रंजन के कहने पर मुझे खुद अपने खिलाफ कार्रवाई करने की अनुशंसा करनी पड़ी। (क्या यह नव वर्ष पर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के दुनिया की सबसे बड़ी कामेडी नहीं है?)  किसी भी संगठन में अनुशासन के लिए यह जरूरी है कि उस संगठन के लोग अनुशासन की सीमा और मर्यादा को समझे। प्रशासनिक अनुशासन के स्तर पर कंट्री लाइव में सारी सीमाएं और मर्यादाएं ध्वस्त होती गईं।

  1. मानव संसाधन का अकुशल इस्तेमाल.

यहां काम करने वाले लोगों के लिए एक बेहतर कार्यप्रणाली का निर्माण करने में कंट्री लाइव पूरी तरह से अक्षम साबित हुया है। रिपोटिंग, प्रोग्रामिंग और एसाइनमेंट के लोगों को छोटी सी जगह में  एक ही स्थान पर काम करने के लिए लगा दिया। जिसकी वजह से यहां काम करने वाले लोग अपने- अपने काम को लेकर एक दूसरे से लगातार क्लेश करते रहें। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। डेस्क पर रा मैटेरेलियल को डंप कराने के लिए सिर्फ एक कैमरा दिया गया था । फिल्ड से जब रिपोटर स्टोरी लेकर लौटते  थे तो इसी कैमरे से फीड डंप करते थे। जब तक फीड डंप होता रहता था तब तक प्रोग्रामिंग का काम रुक जाता था। प्रोग्रामिंग के वीओ और एंकरिंग को डंप कराने के लिए लगातार कैमरे की जरूरत होती ही थी। इसका साफ मतलब हुआ कि जब एक टीम काम करी होती थी तो दूसरी टीम को रुकना पड़ता था। कभी-कभी तो दो रिपोटर ही  पहले डंप को लेकर आपस में उलझ पड़ते थे। छोटे से जगह में एक साथ प्रोग्रामिंग की टीम और रिपोटरों के होने की वजह से मछली बाजार जैसी स्थिति हमेशा बनी रही। कैमरा मैन भी यहीं बैठकर जुगाली करते हुये अपना समय काटना ज्यादा बेहतर समझते थे। अराजकता की इस स्थिति की पहचान करने में भी यहां के  अधिकारी चूकते रहे। एक बेहतर वर्क संस्कृति को बनाने की दिशा में सोचा तक नहीं गया।

  1. संसाधनों की दयनीय स्थिति :  तकनीक की दुनिया में शूट सिर्फ दो चीजों से होती है…एक है बंदूक और दूसरा है कैमरा। गोलियों के बिना बंदूक बेकार है और स्टाक्स के बिना कैमरा। कंट्री लाइव में स्टाक्स की भारी कमी रही। यहां तक कि शूटिंग के लिए भी कैसेट्स नहीं मिलते थे। शूट करके लाने के बाद फुटेज को रखने के लिए कोई व्यवस्था नहीं रही, जबकि किसी भी इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए एक साइंटिफिक कैसेट लाइब्रेरी निहायत ही जरूरी है। एक लाइब्रेरी की जरूरत को महसूस तो  किया गया, लेकिन इस दिशा में कोई कदम उठाने की कोशिश नहीं हुई। जबकि असिस्टेंट प्रोड्यूसर शिव ने एक बेहतर कैसेट्स लाइब्रेरी के लिए पहल की थी। लाइब्रेरी की कमी की वजह से एक ही फुटेज को चार-चार कार्यक्रमों में चलाया गया। लाइब्रेरी की अनदेखी करके निहायत ही जरूरी आवश्यकता से मुंह मोड़ा गया।

इसके अतिरिक्त स्टूडियो की स्थिति भी ढुलमुल ही रही। कुर्सी और लाइट तो लग गये लेकिन स्क्रीप्ट को पढ़ने के लिए टेली प्राम्टर नहीं लगा। जिसका नकारात्मक प्रभाव प्रोग्रामिंग के कार्यक्रमों पर पड़ा। एक प्रोग्राम की एंकरिंग करवाने में निर्धारित समय से अधिक समय लगते रहे। तेज लाइट और कागज पर लिखे हुये अक्षरों को पढ़ने की वजह से एंकर की आंखों से लगातर पानी निकलते रहते थे, जो निश्चित रूप से न सिर्फ एक आदर्श कार्य संस्कृति के खिलाफ है बल्कि अमानवीय भी है। एंकर सुमित विपरित परिस्थिति में भी एंकरिंग करते रहे। किसी ने इस ओर ध्यान देने की जरूरत ही महसूस नहीं की।

कंट्री लाइव से इन खामियों को एक–एक करके दूर करने की जरूरत है। इसके अतिरिक्त कंट्री लाइव को पेशेवर और तीक्ष्ण बनाने के लिए कुछ प्रस्तावित सुझाव।

  1. रिपोटरों और कैमरामैन का एक दिन का वर्कशाप…..रिपोटिंग के तौर तरीके, सही तरीके से शाट्स और बाइट्स लेने के तरीके, स्पेशल स्टोरी की पहचान और उनको शूट करने के तरीके आदि बताये जायें।
  2. प्रोग्रामिंग से जुड़े लोगों के लिए सात दिन का प्रशिक्षण कार्यक्रम जिसमें प्रोग्राम डिजाइनिंग, स्क्रीप्ट लेखन, एडिटिंग आदि का प्रैक्टिकल करवाया जाये।
  3. बातचीत की संस्कृति में भी सुधार की जाये, ताकि धीरे-धीरे हम अंतरराष्ट्रीय तौर-तरीकों को अपना कर बिहार में एक मजबूत मीडिया हाउस के रुप में उभर सके।
  4. अगले तीन महीने का लक्ष्य निर्धारण करके स्पष्ट रणनीती बनायी जाये ताकि पूरी टीम एक म्युजिक के साथ थिरकते हुये आगे बढ़े।

रांची मुख्यालय के साथ को-आर्डिनेशन….

पटना और रांची के बीच को-आर्डिनेशन का भी जबरदस्त अभाव देखा गया। कम से कम प्रोग्रामिंग के संबंध में तो दिखा ही। कई प्रोग्राम पटना से भेजे जाने के बावजूद नहीं चले। रांची से अलग-अलग लोगों द्वारा अलग अलग जवाब मिलते रहे। रांची के साथ को-आर्डिनेशन को पूरी तरह से दुरुस्त करने की जरूरत है।

  1. एक रीसर्च विंग की जरूरत है। प्रोग्रामिंग से कुछ लोगों को रीसर्च के काम लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है।

  1. इन्वेस्टिगेटिव प्रोग्राम की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जबकि इलेक्ट्रानिक मीडिया की धमक इसी से बढ़ती है। संस्थान के अंदर ही एक इनवेस्टिगेटिव टीम का गठन किया जाये। और इस टीम के सारे कार्य कलापों को पूरी तरह से गुप्त रखने की पुख्ता व्यवस्था की जाये। इसका नेतृत्व संस्थान के अंदर ही किसी योग्य व्यक्ति को दी जाये।

रिपोर्ट- नीलेश, प्रोड्यूसर, कंट्री लाइव चैनल

इस रिपोर्ट का कोई मतलब नहीं है, और ये किसको दोगे, और कौन इस पर कार्रवाई करेगा, पूरी रिपोर्ट को पढ़ने के बाद सुकेश ने कहा. “मुझे लगता है कि नरेंद्र सिंह ने पहले ही इस रिपोर्ट को देखने से मना करके ठीक ही किया, और तुमने इसमें उनके खिलाफ भी बातें लिख डाली है। ”

“ जो मुझे दिखाई दिया वो मैंने लिखा, ” नीलेश ने कहा।

“उन लोगों को की नजरों में हम नकारें हैं, इसलिये हमें सात दिन के लिए बैठा दिया। यहां सवाल सच और झूठ का नहीं है। तुम लिखते-लिखते मर जाओ लेकिन उसे कोई सुनने और समझने वाला नहीं है। वो मानसिकता ही नहीं है इनकी। और ऊंचे ओहदे पर ये लोग ही बैठे हुये हैं, तो फिर खुद ही समझ लो कि इस तरह के रिपोर्ट बनाने और देने का क्या औचित्य है, ” लोकेश ने कहा।

“तो मैं क्या करूं?”

“कुछ नहीं, मीडिया में जो लोग कुछ नहीं करते हैं समझो वही लोग मीडिया को हांकते हैं,” सुकेश ने मुस्काराते हुये। “इसलिये मैं शुरु से ही यहां कुछ नहीं कर रहा हूं। अच्छे –अच्छे पत्रकार जूता घिसते ही रह जाते हैं। ”

to be continue————

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also
Close
Back to top button