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बारूद पर ढेर है भारत का भविष्य

एक बच्चा पटाखा बनाए और दूसरा उसे जलाकर दीपावली मनाए. ऎसी विडम्बना तमिलनाडु के शिवकाशी में आसानी से देखी जा सकती है. जहां एक ओर देश के हरेक कोने का बचपन रोशनी के पर्व को मनाने में जुटा है, वहीं शिवकाशी जो आतिशबाजी उद्योग के लिए प्रसिद्ध है, जहां करीबन 40 हजार बाल मजदूर उनकी खुशियों में चार चांद लगाने के लिए पटाखे बनाने में सक्रिय हैं.

 शिवकाशी वह क्षेत्र है जिसे देश की आतिशबाजी राजधानी के रूप में जाना जाता है. यहां लगभग एक हजार छोटी-बड़ी इकाइयां बारूद व माचिस बनाने में बनाने में जुटी हैं जिनका सालाना कारोबार 1000 करोड़ रूपए है. इस उद्योग के चलते एक लाख लोगों की रोजी चलती हैं जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं व बच्चे भी शामिल हैं.

 बाल श्रम नाम के अभिशाप की जहां बात चल ही गई है तो यह स्पष्ट कर दें कि शिवकाशी में इसका प्रमाण आसानी से देखा जा सकता है. मसलन, पंद्रह वर्षीय पोन्नुसामी जो यहां एक पटाखा निर्माणी इकाई में कार्यरत है, पांच साल पटाखे बना रहा है. जब उसने यह पेशा चुना तो उसकी समझ का स्तर क्या रहा होगा यह विचारणीय मसला है. उसके अनुसार वह छठी कक्षा का छात्र था जब उसे जबरन इस काम में उतार दिया गया. काम कराने की मंशा भी उनके माता-पिता की ही थी.प्रतिदिन नौ घंटे की कड़ी मेहनत के बाद वह 60 रूपए पाता है. यह बेगारी उसे वयस्क श्रमिकों को मिलने वाली मजदूरी का केवल चालीस फीसदी है. ऎसे कई उदाहरण हैं जिनसे यह स्पष्ट है कि शिवकाशी इलाके के किशोर-किशोरियों की पढ़ाई-लिखाई में गाज गिरने की आशंका रहती है. छोटी उम्र में ही ऎसे खतरनाक काम में झोंकने के मां-बाप के फैसले के पीछे उनकी गरीबी ही मूल कारण है.

 कारखानों में हादसे सामान्यत: होते रहते हैं. ऎसे में मासूमों को घातक काम पर लगाने का सवाल जब उठता है तो श्रमिक संगठनों का जवाब होता है कि मृतकों में कोई भी किशोर नहीं है,जबकि दास्तां कुछ अलग ही है. जुलाई 2009 में हुई एक दुर्घटना में तीन बच्चे मर गए.

 अगस्त 2010 में तो सरकारी अधिकारियों पर ही गाज गिरी जो अनाधिकृत पटाखा इकाइयों की जांच पर गए थे. बताया गया है कि 8 राजस्व और पुलिस अधिकारियों को इस तहकीकात के दौरान जान से हाथ धोना पड़ा. जब पोन्नुसामी से काम के जानलेवा होने के बारे में पूछा गया तो उसका जवाब यही था कि अगर मैं भाग्यशाली हूं तो कभी हादसा नहीं होगा.

 बच्चों के अधिकारों के क्षेत्र में काम करने वाली गैर सरकारी संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) के अधिकारी जॉन आर की मानें तो शिवकाशी में करीबन 1050 कारखाने हैं जिनमें से 500 बिना किसी लाइसेंस के चल रहे हैं. पटाखों के अलावा 3989 कारखानों में दियासलाई बनती है. वे मानते हैं देश-विदेश में हो रहे प्रयासों के नतीजतन बाल श्रम पर कुछ अंकुश लगा है. हादसों में इजाफा और बच्चों के काम पर लगाने की नौबत गैर लाइसेंसशुदा कारखानों की वजह से आती है जिनका संचालन घरों की असुरक्षित चारदीवारी में होता है.

 इन लोगों को लाइसेंस वाली कंपनियां पटाखे बनाने का आदेश दे देती है. अधिक फायदे के लालच व शिक्षा के अभाव में ये लोग आसानी से कानून की दहलीज को लांघ जाते हैं. नाम न छापने की शर्त पर शिवकाशी की ही एक एनजीओ के कार्यकर्ता के अनुसार इस समस्या के बारे में समझ अभी अधूरी है. हम अभिभावकों को जाग्रत करने का प्रयास कर रहे हैं. उन्हें यह समझाया जा रहा है कि वे सीमित आमदनी में गुजर-बसर करते हुए बच्चों के स्वास्थ्य व शिक्षा पर ध्यान दें.

 कहावत है कि ताली एक हाथ से नहीं बजती और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. इसी तर्ज पर सरकार, प्रशासन व एनजीओ का प्रयास भी तब तक सफल नहीं हो जाता जब तक कि अन्य पक्षकार जिनमें आतिशबाजी निर्माण इकाइयों के मालिक व अभिभावक शामिल हैं, स्वेच्छा से पहल न करें. अन्यथा उनकी दीपावली कभी भी प्रकाशमान नहीं हो पाएगी.

शिरीष खरे

माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्‍वविद्यालय, भोपाल से निकलने के बाद जनता से जुड़े मुद्दे उठाना पत्रकारीय शगल रहा है। शुरुआत के चार साल विभिन्न डाक्यूमेंट्री फिल्म आरगेनाइजेशन में शोध और लेखन के साथ-साथ मीडिया फेलोसिप। उसके बाद के दो साल "नर्मदा बचाओ आन्दोलन, बडवानी" से जुड़े रहे। सामाजिक मुद्दों को सीखने और जीने का सिलसिला जारी है। फिलहाल ''चाइल्ड राईट्स एंड यू, मुंबई'' के ''संचार विभाग'' से जुड़कर सामाजिक मुद्दों को जीने और समझने का सिलसिला जारी है।

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