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भाषण कला में कमजोर पड़ते राहुल
अब तक दुनिया में जितने में भी बेहतरीन लीडर हुये हैं, उनकी एक खास विशेषता रही है भाषण कला में निपुणता। प्राचीन यूनानी सभ्यता में तो राजनीति में हाथ आजमाने के इच्छुक युवाओं के लिए विधिवत भाषण कला सीखने की व्यवस्था की गई थी। भाषण कला को राजनीतिक जीवन का एक अहम हिस्सा माना जाता था और व्यावहारिक रूप पर आज भी यह अहम हिस्सा बना हुआ है। बेहतर भाषण की बदौलत लीडर लोगों के दिलों पर राज करते हैं। तभी तो भाषण की अहमियत को स्वीकार करते हुये माओत्से तुंग कहा करता था, ‘भाषण मानव मस्तिष्क पर शासन करने की कला है।’ अपनी जादुई भाषण के लिए विख्यात एडोल्फ हिटलर भी भाषण के महत्व को अच्छी तरह से समझता था। इसके चमत्कारिक असर पर प्रकाश डालते हुये उसने अपनी आत्मकथा ‘मीन कैंफ’ में लिखा है, ‘दुनिया की बड़ी-बड़ी क्रांतियां लिखने से नहीं हुई हैं, सिर्फ और सिर्फ भाषण से हुई है। हिम की तरह जमे हुये लोगों के दिमाग को पिघलाने की क्षमता सिर्फ और सिर्फ भाषण में ही है।’ भारत में इन दिनों भावी प्रधानमंत्री पद के दो दावेदारों नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के भाषणों की खूब तुलना हो रही है और इस तुलना में नरेंद्र मोदी राहुल गांधी पर कई गुणा ज्यादा भारी पड़ रहे हैं। वैसे अभी तक कांग्रेस की ओर से विधिवत राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया गया है, इसके बावजूद जिस तरह से कांग्रेस में उन्हें आगे किया गया है और गाहे-बगाहे कांग्रेस के बड़े नेताओं ने उनके प्रधानमंत्री बनने के पक्ष में बयानबाजी की है, उससे जनमानस में यही बात बैठी है कि कांग्रेस की जीत के बाद राहुल गांधी ही देश की बागडोर संभालेंगे। ऐसे में एक लीडर के तौर पर राहुल गांधी का मूल्यांकन लाजिमी है।
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उत्तराधिकार में मिली समृद्ध विरासत
बिना संगठन के लीडर की कल्पना नहीं की जा सकती है। राहुल गांधी इस मामले में भाग्यशाली हैं कि उन्हें एक समृद्ध इतिहास और संस्कृति वाला संगठन उत्तराधिकार में मिल गया है। कांग्रेस भारत के इतिहास को समेटे हुये है। यदि यह कहा जाये कि आज भारत जैसा भी है, जिस स्थिति में है, वह कांग्रेस की ही देन है तो कुछ गलत नहीं होगा। मुल्क की आजादी के पूर्व के इतिहास पर कांग्रेस का जबरदस्त प्रभाव है। कहा जा सकता है कि मुल्क की तकदीर को गढ़ने में कांग्रेस ने अहम भूमिका अदा की है। कांग्रेस के झंडे तले ए ओ ह्यूम, गोखले, तिलक, गांधी, सुभाष चंद्र बोस, पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे लोगों ने विकट स्थिति में ब्रितानिया हुकूमत से जूझते रहे और अपनी बेहतरीन भाषण क्षमता से देशवासियों को लामबंद करते रहे। इन लीडरों की जनसभाओं में लोगों का हुजूम उमड़ता था। आजादी के बाद नेहरू के नेतृत्व में मुल्क ने आगे कदम बढ़ाया और साथ ही कांग्रेस भी मुखलतफ विचारधाओं के लोगों को साथ लेकर एक बगीचे की तरह फलती-फूलती रही। कई बार इस पर संकट भी आये लेकिन श्रीमती इंदिरा गांधी के तौर पर बेहतर रहनुमा की वजह से तमाम संकटों से उबरने में भी यह कामयाब रही। इंदिरा गांधी भी सीधे आम जनता से रू-ब-रू होने में यकीन करती थीं और उनकी ओजस्वी वाणी से लोग सहज तरीके से उनके सांचे में ढलते चले जाते थे। अब कांग्रेस की जिम्मेदारी राहुल गांधी के कंधों पर है। एक समृद्ध विरासत वाली पार्टी को चलाने की क्षमता उनके अंदर है या नहीं, इसे लेकर आम लोगों के बीच नापतौल जारी है।
गरीबी का कांग्रेसी फलसफा
भले गरीबी भारत के लिए अभिशाप है लेकिन यह कांग्रेस के लिए हमेशा वरदान साबित हुई है। खासकर नेहरू युग की समाप्ति के तकरीबन एक दशक बाद जब कांग्रेस बुरी तरह से लड़खड़ा गई थी, तब उसे गरीबी ने ही संभाला था। कांग्रेस में विभाजन के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी ने ओजस्वी अंदाज में ‘गरीबी हटाओ’ नारा दिया था, तो पूरा मुल्क उनके इर्दगिर्द सिमट गया था। श्रीमती इंदिरा गांधी ने कठिन संघर्ष के बाद दोबारा पूरे आत्मविश्वास के साथ गरीबी के खिलाफ जेहाद छेड़ने की बात की और भारी मतों से उनकी वापसी हो गई। 1971 के इंतखाब में श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का गरीबी हटाओ के नारे का जादू चल गया। तकरीबन तीन दशक के लंबे अंतराल के बाद एक बार फिर राहुल गांधी मुल्क से गुरबत दूर करने की बात कर रहे हैं, वह भी काफी कमजोरी शैली में। उन्होंने नारा दिया है ‘पूरी रोटी खाएंगे, कांग्रेस को लाएंगे।’ ऐसे में लोग यह सवाल खुद से पूछ रहे हैं कि जब गरीबी हटाने के नाम पर एक बार मुल्क ने श्रीमती इंदिरा गांधी को सत्ता सौंप दी थी, तो फिर आज भी गरीबी क्यों है? इसके पहले राहुल गांधी ने यह कह कर कि गरीबी एक मानसिकता है, कांग्रेस की गरीबी के परंपरागत फलसफे में ही उलटफेर कर दी थी। अब सार्वजनिक मंचों से राहुल गांधी खुद को कंट्राडिक्ट करते हुये नजर आ रहे हैं। उनकी बातों से साफ झलकता है कि न तो उन्हें गरीबी की समझ है, और न ही मुल्क की मानसिकता की। कांग्रेस की परंपरागत फलसफे को भी वह ठीक से कैरी नहीं कर पा रहे हैं।
गरीबी और भूख से कोसों दूर राहुल
पंडित जवाहरलाल नेहरू कहा करते थे कि भूखे लोगों के लिए डेमोक्रेसी का कोई मतलब नहीं होता है। सबसे पहले लोगों को भर पेट भोजन मिलनी चाहिए तभी वे डेमोक्रेसी, स्वतंत्रता और विकास के मतलब समझ सकेंगे। अब राहुल गांधी कह रहे हैं कि देश का सबसे बड़ा सपना देश के सबसे गरीब को देखना चाहिए, हम चाहते हैं कि मजदूर का बेटा हवाई जहाज में चढ़ने का सपना देखें। राहुल गांधी को अभी भूख का अहसास नहीं है। और इसी अहसास की कमी की वजह से उनके भाषण महज हवा में उड़ कर रह जाते हैं, लोगों के दिलों तक नहीं पहुंचते हैं। उन्हें नहीं पता है कि जब पेट में भूख की आग भड़की हो तो आंखों में नींद आती है और अब तो वैज्ञानिकों ने अपने शोध से यह साबित कर दिया है कि गरीबी और भूख की वजह से लोगों के दिमाग की क्षमता कम हो जाती है। यह सच है कि सार्वजनिक सभाओं में कुछ कांग्रेस संगठन के कार्यकर्ताओं की वजह से और कुछ राहुल गांधी को देखने की ललक की वजह से लोगों की भीड़ जुट जाती है, लेकिन मंच से कहे गये उनकी बातों को लोग गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। इसका अंदाजा सोशल मीडिया पर राहुल गांधी को ‘पप्पू’ कह कर उड़ाये जाने वाले उपहासों से हो जाता है। अब यह सुनने को मिल रहा है कि राहुल गांंधी को दिमागी खुराक देने के लिए विदेशों में पढ़े-लिखे कुछ विद्वानों को लाया गया है और राहुल गांधी उनके साथ लगातार बैठकें कर रहे हैं। विरासत में मिले नेतृत्व का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि जनता से सीधे राब्ता कायम करने, उनके दुख-दर्द करीब रह कर जानने समझने और महसूस करने का मौका नहीं मिल पाता है। ऐसे में विद्वानों के जरिये गरीबी पर अधिक से अधिक सूचना तो हासिल की जा सकती है लेकिन जमीनी स्तर पर इनसानी दिलो दिमाग पर गरीबी के असर को महसूस नहीं जा सकता है।