मैं उसका हो नहीं पाया(कविता)
– धर्मवीर कुमार, बरौनी,
मुहब्बत की तो थी मैंने, निभाना ही नहीं आया.
वो जब तक थी, रही मेरी, मैं उसका हो नहीं पाया.
भला मांझी मैं कैसा था? मुहब्बत की उस कश्ती का.
भँवर में डूबी जब कश्ती, मैं कुछ भी कर नहीं पाया.
भले ही नाव मुहब्बत की, डुबोयी खुद नहीं हमने.
मगर कैसी ये कोशिश थी कि साहिल मिल नहीं पाया.
मेरे सुख में, मेरे दुःख में, खड़ी थी साथ वो हरदम.
मगर मेरी जब बारी थी, मैं उसके काम ना आया.
मुहब्बत की ही भाषा में, वफ़ादारी को समझें तो.
नहीं था बेवफ़ा गर मैं, वफाई भी न कर पाया.
बुझी थी लौ मुहब्बत की, मेरी आँखों के ही आगे.
दवा भी थी, दुआएँ भी, मगर कुछ हाथ न आया.
मुहब्बत के उन लम्हों की, बड़ी लंबी कहानी है.
कोशिश की भुलाने की, मगर मैं भूल न पाया.
वो जब तक थी, रही मेरी, मैं उसका हो नहीं पाया
मुहब्बत की तो थी मैंने, निभाना ही नहीं आया.
वो जब तक थी ………