सिस्टम में लाचार थी रूपम, न्याय की गुहार बेकार गई
आदर्शवाद की लम्बी-चौड़ी बातें बखानना किसी के लिए भी सरल है, पर जब उसे अपने जीवनक्रम में उतारना पड़े तो बहुत कठिन हो जाता है । आज बिहार की धरती पर एक हिला देने वाली घटना को अंजाम देकर रूपम पाठक ने कहीं कुछ ऐसा कर दिया है कि, इस तरह के मामलों से जुडे कई लोगों के आदर्शवाद की बखिया उधेड़ कर रख देगा । आज के राजनीतिक परिवेश मे यौन-शोषण एक बहुत ही सामान्य बात हो चुकी है । अंतर बस इतना है कि इस पर इतना कठोर आवरण चढ़ा होता है कि इसे सामान्य लोगों की नजर खोज नहीं पाती है । रूपम पाठक ने तो एक तरह से अपना बलिदान दिया है ताकि भविष्य में इस तरह की घटना होने से पहले घटना को अंजाम देने वाले को एक डर का अहसास जरूर हो । मैं तो स्पष्ट तौर पर ये मानता हूं कि बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है।
चूंकि ये एक ऐसा मामला है जिसमें कईयों के हाथ जलने की संभावना है अत: इस मामले को रफा-दफा करने की पुरजोर कोशिश की जा रही है, जहां तक अभी ये मामला फंसा हुआ नजर आता है उससे तो ये ऐसा ही जान पड़ता है । आज हर जगह नारी-सशक्तिकरण की बातें करके समाज के सफेदपोश पिल्लू अपने उल्लू सीधा किया करते है , और उसी की ओट में नारी को भोग की वस्तु भी बना कर रख देते है । स्वार्थ, अंहकार और लापरवाही की मात्रा आज के पुरूष प्रधान समाज में इस कदर हावी है कि बड़े से बड़े कुकर्म करते हुए भी ऐसे लोगों को कभी भी किसी भय का अहसास नहीं होता है । ये सोचने वाली बात है कि एक नारी किस हद तक मानसिक रूप से प्रताड़ित रही होगी कि उसके मन में किसी को जान से मार देने की इच्छा ने जन्म ले लिया होगा ।
परिस्थितियों की गुलाम बनी रूपम आखिर में टूट जाती है और उसके हाथों कत्ल जैसा संगीन जुर्म हो जाता है ,मगर इसके पहले वो चीखती है, वो चिल्लाती कि कोई उसे न्याय दिलवाने में मदद करे, मगर वह लाचार है इस सिस्टम से । वो ये भली-भांति जान चुकी है कि अब इन परिस्थितियों से निपटने में उसके गुहार काम नहीं आयेंगे । हम आखिर कब तक ये नहीं मानेंगे कि नारी अपनी परिस्थितियों की गुलाम नहीं, अपने भाग्य की निर्माता और विधाता है। गुहार जब काम नहीं आया तभी तो हथियार का ख्याल आया होगा । शायद रूपम को आभास हो चुका था कि इस संसार में कमजोर रहना ही सबसे बड़ा अपराध है। अपनी इस कमजोरी से अगर उसे छुटकारा नहीं मिलता तो शायद उसे अपनी बेटी को भी समाज के कुछ सफेद नर-पिशाचों के आगे रखना पड़ता ।
मां चाहे वो कितनी ही लाचार क्यूं न हो जाये अपने बच्चों को वो दुनिया के किसी भी परेशानी से बचाने का प्रयास हर संभव तरीके से करती है । हिंसा कहीं न कहीं भय से ही उपजती है और भय भी अगर अपने कोखजने के लिये हो तो वह और भी ज्यादा भयावह रूप ले सकती है । एक बड़ी प्रसिद्ध बात है कि माँ का जीवन बलिदान का, त्याग का जीवन है। उसका बदला कभी भी कोई संतान नहीं चुका सकता चाहे वह भूमंडल का स्वामी ही क्यों न हो। अब एक मां जिसे इस बात का आभास हो चला था कि उसके शोषण के बाद अब उसके बच्चे भी इस चपेट मे आने वाले है तो क्या उसके लिए अब भी चुप बैठना संभव हो पाता ? अगर ऐसा संभव हो जाता तो कहीं न कहीं भगवान ने जो मां का रूप धारण किया है उसमें भी एक संदेह की लकीर खींच जाती ।
आज की स्थिति में कोई भी अभी इस मामले को लेकर ये नहीं कह सकता कि रूपम को सजा मिलेगी या समुचित न्याय ? मगर इस मामले को लेकर राज्य सरकार ने अगर उच्च न्यायिक जांच की व्यवस्था करवायी तो यकीनन कई ऐसे पहलूओं का भी खुलासा होने की उम्मीद है जिससे उन परिस्थितियों को जाना जा सकेगा जब एक नारी, एक पत्नी, एक शिक्षिका और इन सब से बड़ी एक मां को अपना आपा खोने पर विवश होना पड़ा । किसी भी नारी के लिए ये बिलकुल भी आसान कार्य नहीं है कि वो एकदम से किसी को मारने के लिए उतारू हो जाये । और यहां जब एक नारी किसी की हत्या सरेआम कर रही है तो इसे एक सामान्य बात कतई न माना जाये ।
आज की भ्रष्ट राजनीति में जो भी हराम की कमाई खाने वाले, भष्ट्राचारी, बेईमान और चारित्रिक पतन वाले लोग हैं उनके विरुद्ध इतनी तीव्र प्रतिक्रिया उठानी होगी जिसके कारण उन्हें सड़क पर चलना और मुँह दिखाना कठिन हो जाये। जिधर से वे निकलें उधर से धिक्कार की आवाजें ही उन्हें सुननी पड़े। समाज में उनका उठना-बैठना बन्द हो जाये और नाई, धोबी, दर्जी कोई उनके साथ किसी प्रकार का सहयोग करने के लिए तैयार न हों । साहस ही एकमात्र ऐसा साथी है, जिसको साथ लेकर मनुष्य एकाकी भी दुर्गम दीखने वाले पथ पर चल पड़ते हैं एवं लक्ष्य तक जा पहुँचने में समर्थ भी हो जाते है। रूपम के लिए भी तो एक साहस ही था, जिसने उससे ऐसा करवाया । आज खुल कर कोई न भी बोले मगर एक बात तो सबके मन मे जरूर उठ रहा है कि इस तरह का दंड अगर समाज में मिलना शुरू हो जाये, तो निश्चित ही एक दिन ऐसा आयेगा जब समाज सफेदपोश पिल्लूओं और कीड़े-मकौड़ों से मुक्त हो जायेगा ।
आज रूपम ने भी उस नियम के खिलाफ जाकर कुछ करने की कोशिश की है जहां नारी को भोग-उपभोग के अलावा, और कुछ समझने की जहमत हमारा समाज नहीं उठाना चाहता है । जटायु जो रावण से लड़कर विजयी तो न हो सका और न लड़ते समय जीतने की ही आशा की थी, फिर भी अनीति को आँखो से देखते रहने और संकट में न पड़ने के भय से चुप रहने की बात उसके गले न उतरी, और कायरता और मृत्यु में से एक को चुनने का प्रसंग सामने रहने पर युद्ध में ही मर मिटने की नीति को ही स्वीकार किया । रूपम भी उस जटायु की तरह जान पड़ती है, और उन्होने पूरे समाज को एक नव्य संदेश देने का जोरदार प्रयास किया हैं । अंतत: एक शक्ति मंत्र हम सभी को ध्यान रखने की जरूरत है—: या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।