क्या संचार माध्यमों के क्षेत्र में होने वाली तकनीकी क्रांति दुनिया को अराजकता की ओर धकेल रही है या फिर यह दुनिया भर के मुख्तलफ हिस्सों में चलने वाले जन आंदोलनों को उभारने में अहम भूमिका निभा रही है? इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ समय से दुनिया के मुख्तलफ मुल्कों में लोगों के गुस्से को भड़काने में सोशल साइटों की अहम भूमिका रही है। यूरोप, एशिया और अफ्रीका के कई मुल्क अव्यस्थित हिंसा के दौर से गुजर चुके हैं और कई अभी भी गुजर रहे हैं। सार्वजनिक मसलों को लेकर लोगों को एकजुट करके सड़कों पर उतारने में सोशल मीडिया का व्यापक इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन इसके साथ ही इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इन सोशल साइटों के माध्यम से खड़ा किये गये जन आंदोलन अंतत: अव्यवस्थित हिंसा में तब्दील होते रहे हैं। कहा जा सकता है कि जन आंदोलनों के संदर्भ में सोशल साइट दोधारी तलवार साबित हो रही है। क्रूर तानाशाहों को उखाड़ने का सशक्त माध्यम तो बन ही रही है, लेकिन साथ में सार्वजनिक संपत्ति और नागरिक जीवन को भी बुरी तरह से तहस-नहस करने के लिए लोगों को प्रेरित कर रही है। बेलगाम हो चुकी सोशल मीडिया की दानवी शक्ति को नियंत्रण में करना दुनियाभर की चुनी हुई सरकारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है। यह न सिर्फ स्थापित संस्थाओं पर क्रूरता से प्रहार कर रही है बल्कि नैतिक मूल्यों और धार्मिक मान्यताओं को भी तार-तार कर रही है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि सोशल मीडिया को किस हद तक स्वतंत्रता प्रदान की जा सकती है?
सोशल मीडिया की अपार शक्ति
विवेक रहित अधिकतम स्वतंत्रता अंतत: किसी समाज को अराजकता की ओर ही ले जाती है।
सोशल मीडिया की अपार शक्ति का अहसास दुनिया को पहली बार वर्ष 2011 की शुरुआत में अरब देशों में तानाशाही हुकूमतों के खिलाफ होने वाली जन क्रांतियों से हुई। मिस्र में जन आंदोलनों के दौरान फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब और वेब-ब्लॉग्स का जिस तरह से इस्तेमाल किया गया, उसने विशेषज्ञों को अब तक के स्थापित संचार सिद्धांतों पर नये सिरे से विचार करने के लिए प्रेरित किया है। मिस्र में प्रदर्शनों की जानकारी देने के लिए व्यापाक पैमाने पर फेसबुक, प्रदर्शनकारी नेताओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिए ट्विटर और पूरी दुनिया को मिस्र की घटनाओं से रूबरू कराने के लिए यू-ट्यूब का इस्तेमाल किया गया। अब तो यहां तक कहा जाने लगा है कि यदि आप किसी समाज को उदारवादी बनाना चाहते हैं तो उसे इंटरनेट मुहैया करा दें। इंटरनेट तानाशाहों के खिलाफ मजलूमों और वंचितों के हाथों में एक असरकारक हथियार साबित हो रहा है। एक तरफ सरकार खड़ी है तो दूसरी तरफ सोशल साइटों से लैस विभिन्न उम्र के लोग, जो खुद को तो अभिव्यक्त कर ही रहे हैं, साथ में तीखे अंदाज में सरकार की ज्यादतियों को भी उकेर रहे हैं। ऐसे में यह सुनिश्चित करना मुश्किल हो गया है कि आलोचना की उनकी सीमा क्या है, क्योंकि कभी-कभी ये आलोचनाएं लोगों को सीधे तौर पर हिंसा के लिए उकसाती है, जो अंतत: समाज को अराजकता के कगार पर ला खड़ा करता है।
युवाओं की भागीदारी
किसी भी जन आंदोलन को व्यापाक तौर पर चलाने के लिए युवाओं की जरूरत होती है। दुनिया भर में सोशल मीडिया का सबसे अधिक इस्तेमाल युवा ही कर रहे हैं। जिस तरह से सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके इन युवाओं को लामबंद किया जा रहा है, वह किसी भी सरकार के लिए चिंता का विषय हो सकता है। अरब क्रांति में सबसे अधिक भागीदारी युवाओं की ही रही है। यहां तक कि भारत में भी अन्ना आंदोलन के दौरान दिल्ली की सड़कों पर उतरने वालों में युवाओं की संख्या अधिक थी। अन्ना के प्रभाव के कारण यहां पर युवा हिंसक नहीं हो सके लेकिन अरब क्रांति में युवाओं का हिंसक रूप खुलकर देखने को मिला। मध्यपूर्व और उत्तरी अफ्रीका में सोशल मीडिया के माध्यम से कम्युनिकेट करके बड़ी संख्या में युवा सड़कों पर हिंसक मूड में उतरे थे। यू-ट्यूब के विभिन्न क्लीपिंग्स में चेहरे पर नकाब लगा कर व्यापक पैमाने पर हिंसा करते हुये उन्हें आज भी सहजता से देखा जा सकता है। वे सारे क्लीपिंंग्स आज भी यू-ट्यूब पर पड़े हुये हैं। हाल में तुर्की और ब्राजील में भी हुये हिंसक प्रदर्शनों में इन युवाओं की जबरदस्त भागीदारी रही है, जो सोशल साइटों का इस्तेमाल करके ही नियोजित तरीके से सड़कों पर उतरे थे। किसी भी सरकार के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती युवाओं को नियंत्रण में रखने की है। दिल्ली में सामूहिक रेप कांड के बाद सड़कों पर उतर कर हजारों की संख्या में युवा लगातार कई दिनों तक प्रदर्शन करते रहे थे। इन प्रदर्शनों को आयोजित करने में भी सोशल साइटों ने अहम भूमिका निभाई थी।
स्थापित मीडिया समूह को चुनौती
सोशल मीडिया स्थापित मीडिया समूहों को भी गंभीर चुनौती दे रहा है। इस पर खबरों का प्रवाह चारों तरफ से हो रहा है। सोशल मीडिया पर न सिर्फ हर तरह की खबरें प्रेषित की जा रही हैं बल्कि इन खबरों को लेकर जोरदार बहसें भी हो रही हैं, जो अब तक की स्थापित मीडिया में संभव नहीं था। यही वजह है कि लोग पारंपरिक मीडिया को छोड़कर खबरों को जानने और समझने के साथ-साथ अपनी बात को मजबूती से रखने के लिए सोशल मीडिया की ओर रुख कर रहे हैं। ‘अरब सोशल मीडिया रिपोर्ट’ के मुताबिक अरब क्रांति के दौरान ट्यूनीशिया में 94 फीसदी लोग खबरों के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे थे। इसी तरह मिस्र में 88 फीसदी लोग खबरों के लिए सोशल मीडिया को तरजीह दे रहे थे। इस दौरान पारंपरिक मीडिया और सरकार द्वारा प्रसारित खबरों से लोगों ने पूरी तरह से दरकिनार कर लिया था। खबरों तक अपनी पहुंच बनाने के लिए लोग फेसबुक और ट्विटर पर सैर कर रहे थे, जबकि किसी घटना की व्यापक संदर्भों को समझने के लिए ब्लॉग्स का सहारा ले रहे थे। मजे की बात है कि अब भारत में भी फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग्स का चलन जोरों पर हैं। जिस तरह से फेसबुक, ट्विटर और विभिन्न ब्लॉग्स पर केंद्र सरकारी की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, उससे सरकार के नुमाइंदों को पसीने आ रहे हैं। यहां तक कि सोशल मीडिया पर माओवादी हिंसा को भी सही ठहराने वालों की कमी नहीं है। सरकारी नुमाइंदों का एक तबका तो इन पर तत्काल नियंत्रण की वकालत कर रहा है।
सीमाओं के बंधन से मुक्त
सोशल मीडिया की सबसे बड़ी खासियत है कि यह किसी मुल्क की सीमा में बंधा हुआ नहीं है। यदि किसी मुल्क में कोई जनआंदोलन खड़ा होता है तो दूसरों मुल्कों में रहने वाले लोग भी उससे तुरंत जुड़ जाते हैं। यहां तक कि तक बाहर के मुल्कों से आंदोलनकारियों को हर तरह की मदद भी मिलने लगते हैं। एक जमाना था जब कार्ल मार्क्स की ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ की विचाधारा को अछूत घोषित कर जर्मनी में उसके प्रेस को बंद कर दिया गया था। अपनी बात को लोगों तक पहुंचाने के लिए मार्क्स को जर्मनी छोड़ कर पेरिस में शरण लेनी पड़ी थी। अब सोशल मीडिया इस तरह की बंदिशों से एक हद तक आजाद हो चुका है। लोग अपनी बात को बेबाक तरीके से इस पर रख रहे हैं और तमाम मुल्कों की सरकारें चाहकर भी उन्हें नहीं रोक पा रही हैं, हालांकि चीन जैसा देश इसके लिए एड़ी-चोटी का जोर जरूर लगा रहा है। सोशल मीडिया ने ‘अछूत विचारधारा’ की अवधारणा को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है। ग्लोबल विलेज की परिकल्पना को सही मायने में आकार देने में सोशल मीडिया अहम भूमिका निभा रहा है। दुनिया एक नये सांचे में तेजी से ढल रही है। खुलापन का दायरा बढ़ेगा तो वैचारिक संघर्ष और तीखे होंगे। ऐसे में स्थापित मान्यताओं और हुकूमतों पर चोट होना स्वाभाविक है। इस बदलते दौर में अहम सवाल यह है कि अभिव्यक्ति की सीमा की हद क्या है और इसका निर्धारण कौन करेगा? सोशल मीडिया ने जहां अभिव्यक्ति के फलक को विस्तार दिया है, वहीं ‘उत्तर-आधुनिकवाद में स्थापित मूल्यों’ को भी ललकार रहा है। कहीं ऐसा न हो कि यह समाज और व्यवस्था के लिए दोधारी तलवार साबित हो। एक के बाद एक कई तानाशाह हुक्मरानों का पतन और व्यापाक हिंसा इसी बात की तस्दीक कर रही है।