लिटरेचर लव

———- हाँ मम्मी

भरत तिवारी

छोटा शहर
– अपना

आवाज़ आयी
मेरा नाम लेकर , माँ बुला रही है
शाम गर्मी की
अपनी रौशनी
खिड़की की झीरी से
अंदर धकेले जा रही थी
सफ़ेद चादर का दोहराया कोना
रोके हुये था उसे
वो मेरी नींद को छू नहीं पा रही थी …

कितनी आवाजें होती हैं
जो आती हमसे मिलने हैं…
कुछ शहद सरीखी घुल जायें
कुछ गर्म सा लोहा हो जायें…
बाकी का नाम नहीं होता
हाँ एक आवाज़ वो होती है …
जो नींद से मिलती जुलती है
जो माँ के जैसी होती है
माँ की आवाज़ वो होती है ..

मैंने नींद में ही हुँकारी भरी
कमरा ऊपर था
आवाज़ नीचे आँगन से
खिड़की बंद…
आवाज़ फिर आयी
फिर हुँकारी भरी
अबकी तेज़ थी –
नींद ने बता दिया था
कि तुम ऊपर कमरे में हो –
हाँ मम्मी !

तीसरी आवाज़ पर नींद चली गई
अँधेरे से कमरे में आँख खुली
कमरा – मेरा कमरा ना था !
छत पर भी नहीं
फिर ये …

अगली आवाज़
और खबर हुई कि बच्चे खेल रहे हैं
एक कोई दूसरे दोस्त को बुला रहा है

मेरा नाम तो था ही नहीं !

कमरा मेरा ही था – दिल्ली में
लाईट जलायी
माँ की तस्वीर को देखा
चढ़े हुये माले को देखा
आवाज़ फिर से आ रही थी,

याद आया
सोने से पहले
आपको ही याद कर रहा था
माँ !

भरत तिवारी, 9/3/2012, नई दिल्ली

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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