‘ये कहाँ आ गए हम’: भारतीय सिनेमा के 100 साल
“ये कहाँ आ गए हम… ” लता जी की मीठी आवाज़ में गया ये गाना आज भारतीय सिनेमा के १०० साल की यात्रा पर बिल्कुल फिट बैठता है क्योंकि अपने उदगम से लेकर आज तक भारतीय सिनेमा में इतने ज्यादा बदलाव आये हैं कि कोई भी अब ये नहीं कह सकता कि आज के दौर में बनने वाली फिल्में उसी भारतीय सिनेमा का अंग हैं जो हमेशा भारतीय समाज में चेतना को जाग्रत करने का कार्य करता आया है। कहा जाता है कि किसी भी समाज को सही राह दिखाने के लिए सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा है, क्योंकि सिनेमा दृश्य और श्रव्य दोनों का मिला जुला रूप है और ये सीधे मनुष्य के दिल पर प्रभाव डालता है ।
हमारे भारतीय सिनेमा ने अपने गौरवमयी 100 साल पूरे कर लिये है, पर इन 100 सालों की यात्रा में भारतीय सिनेमा कहां से कहां पंहुचा यह सोचनीय विषय है या फिर यूँ कहा जाए इन 100 सालों की यात्रा में भारतीय सिनेमा ने समाज को क्या दिया? ये सच है कि फिल्में समाज का आइना है और समाज के सशक्त निर्माण में फिल्मों की अहम् भूमिका होती है और इसीलिए 80 के दशक की फिल्में जमींदारी, स्त्री शोषण सहित उन सभी मुद्दों पर आधारित होती थी जो समाज को प्रभावित करते थे। तब जो फिल्में बनती थीं उनका उद्देश्य व्यावसयिक न होकर सामजिक कल्याण होता था। पर 90 के दशक में फिल्मों में व्यापक बदलाव आये।
ये वो दौर था जब भारत में उदारीकरण की प्रक्रिया को अपनाया गया, भारत ने भी वैश्विक गांव में शामिल होने की दिशा में कदम बढ़ाए और दुनिया भर के देशों में वीजा नियमों में ढील देने की प्रक्रिया शुरू हुई। तब इन भौतिक बदलावों से प्रेरित होकर प्रवासी भारतीयों का स्वदेश प्रेम मुखर हुआ। इसके दर्शन हर क्षेत्र में होने लगे। एक तरह से उन्होंने अपने देश की घटनाओं में आक्रामक हस्तक्षेप शुरू किया। बिल्कुल उसी समय भारत में एक बड़ा मध्यवर्ग जन्म ले रहा था, जिसकी रूचियां काफी हद तक विदेशों में बस गए भारतीयों की तरह बन रही थीं। इसका श्रेय उपभोक्ता उत्पाद बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत आने और स्थानीय जरूरत के हिसाब से खुद को बदलने की प्रक्रिया को दिया जा सकता है। नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में वैश्विक गांव बनने की प्रक्रिया का पहला चरण पूरा हो चुका था। भारत का मध्यवर्ग और विदेश में बसा प्रवासी भारतीय खान-पान, पहनावे, रहन-सहन आदि में समान स्तर पर आ चुका था।
दोनों जगह एक ही कोक-पेप्सी पी जाने लगी, पिज्जा और बर्गर खाया जाने लगा और ली-लेवाइस की जीन्स पहनी जाने लगी। भारत की मुख्यधारा के फिल्मकार इस बदलाव को बहुत करीब से देख रहे थे। इसलिए उन्होंने अपनी सोच को इस आधार पर बदला। मशहूर फिल्मकार यश चोपड़ा के बेटे आदित्य चोपड़ा ने स्वीकार भी किया कि वे घरेलू और विदेशी दोनों जगह के भारतीयों के पसंद की फिल्म बनाते हैं। यहां घरेलू भारतीय दर्शक का मतलब भारतीय मध्यवर्ग से लगाया जा सकता है। भारतीय फिल्मकारों की इस सोच में आए बदलाव ने फिल्मों की कथा-पटकथा को पूरी तरह से बदल दिया, खास कर बड़े फिल्मकारों की। उन्होंने ऐसे विषय चुनने शुरू कर दिए, जो बहुत ही सीमित वर्ग की पसंद के थे, लेकिन बदले में उन्हें चूंकि डॉलर में कमाई होने वाली थी इसलिए व्यावसायिक हितों को कोई नुकसान नहीं होने वाला था। और ये वही दौर था जब फिल्में समाज हित से हटकर पूरी तरह से व्यावासिक हित में रम गयी। फिल्में बनाने वाले निदेशकों और निर्माताओं का उदेश्य फिल्म में वास्तविकता डालने की बजाये उन चीजों को डालने का होता जो दर्शक को मनोरंजन कराये जिसका आज समाज पर नकरात्मक प्रभाव पड़ने लगा। आज भारतीय समाज जो आधुनिकता की नंगी दौड़ में दौड़ रहा उसका श्रेय बहुत हद आज के दौर निर्मित होने वाली फिल्मों को ही जाता है अगर उदाहरण से समझना हो तो नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में बनी फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ से शुरू करके ‘नील और निक्की’ तक की कहानी में इस बदलाव को देखा जा सकता है। इस बदलाव को दो रूपों में देखने की जरूरत है। एक रूप है भारत के घरेलू फिल्मकारों का और दूसरा प्रवासी भारतीय फिल्मकारों का। दोनों की फिल्मों का कथानक आश्चर्यजनक रूप से एक जैसा है। इनमें से जो लोग पारिवारिक ड्रामा नहीं बना रहे हैं वे या तो औसत दर्जे की सस्पेंस थ्रिलर और अपराध कथा पर फिल्म बना रहे हैं या संपन्न घरों के युवाओं व महानगरों के युवाओं के जीवन में उपभोक्तावादी संस्कृति की अनिवार्य खामी के रूप में आए तनावों पर फिल्म बना रहे हैं। घरेलू फिल्मकारों में यश चोपड़ा, आदित्य चोपड़ा, करण जौहर, राकेश रोशन, रामगोपाल वर्मा, फरहान अख्तर जैसे सफल फिल्मकारों के नाम लिए जा सकते हैं और दूसरी श्रेणी में गुरिन्दर चङ्ढा (बेंड इट लाइक बेकहम), नागेश कुकुनूर (हैदराबाद ब्लूज), विवेक रंजन बाल्ड (म्यूटिनी: एशियन स्टार्म म्यूजिक), बेनी मैथ्यू (ह्नेयर द पार्टी यार), निशा पाहूजा (बालीवुड बाउंड), महेश दत्तानी (मैंगो सौफल), मीरा नायर (मानसून वेडिंग), शेखर कपूर (द गुरू), दीपा मेहता आदि के नाम लिए जा सकते हैं, जो अनिवार्य रूप से प्रवासियों के लिए फिल्में बनाते हैं।
वास्तव में यही वो कारण है जिनके कारण आज भारतीय सिनेमा के कथानक में गिरावट आती जा रही है जिसका सीधा असर आज समाज पर रहा है। ये कहना गलत न होगा कि इन 100 सालों की यात्रा में भारतीय सिनेमा ने जितने मुकाम हासिल किये उतना ही इसने समाज को गलत दिशा भी दी। आज हमारी बॉलीवुड की फिल्में सेक्स, थ्रिल, धोखे के काकटेल पर बन रही हैं ऐसी फिल्में हिट भी हो रही है लेकिन यही फिल्में जब अस्कार जैसे प्रतिष्ठित आवार्ड के लिए जाती है तो औंधेमुह गिर पड़ती है। इसके विपरीत स्लमडाग जैसी फिल्में जो कि सामजिक मुद्दों पर बनती हैं वो आस्कर जैसे आवार्ड को ला पाने में सफल होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि विदेशों में भी अब ऐसी ही फिल्मों को पसंद किया जा रहा है जो किसी सामाजिक सरोकारों से जुडी हो। आज ये वक़्त की जरुरत है कि फिल्में सेक्स, थ्रिल, धोखे के काकटेल से बाहर निकले और और ऐसे मुद्दों पर बने जो समाजिक मुद्दों से जुडी हो। हो सकता है कि ऐसी फिल्में बाक्स ऑफिस पर हिट न हो पर लगातार अगर सामाजिक मुद्दों पर फिल्में बनना शुरू होंगी तो कुछ दिन बाद ऐसी फिल्में बॉक्स आफिस पर हिट होना शुरू हो जायेंगी क्योकि सिनेमा समाज को जो देता है समाज उसी को लेता है और इसका सीधा से उद्धरण 80 के दशक की फिल्में हैं जो उस दौर में काफी पसंद की गयी। वैसे भी जब इंसान किसी विषय से सालों दूर होता है तो निश्चित तौर पर उस विषय से उसकी दूरी बन जाती है पर अगर उसी विषय पर उसको वापस लाया जाये तो देर जरुर होती है पर अंततः रूचि जागृत होती है। इसलिए भारतीय सिनेमा के गौरवमयी इतिहास को बचाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि फिल्में सामाजिक सरोकार से जुड़ी हो न की सेक्स, थ्रिल, धोखे जैसे मुद्दे से जिसका समाज पर नकारात्मक प्रभाव ही पड़ता है।
अनुराग मिश्र
स्वतंत्र पत्रकार
लखनऊ
मो-9389990111
बहुत अच्छा लिखा है अनुराग…