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अन्ना, रामदेव और पीसी में जूता (भाग1)

राजनीतिक परंपरा के लिहाज से राम-लीला मैदान में हुई बर्बर कार्रवाई को
समेटे 4-5 जून काला दिन कहलाने का अधिकारी है । इसमें संभव है किसी को
आपत्ति हो जाए। लेकिन 6 जून को कांग्रेस पीसी में जो कुछ हुआ वो
पत्रकारिता के लिए काला दिन कहलाए , इसमें किसी संजीदा पत्रकार को
शक-सुबहां नहीं होना चाहिए। इसलिए नहीं कि कथित पत्रकार ने जनार्दन
द्विवेदी को जूता दिखाया, बल्कि इसलिए कि वहां मौजूद पत्रकारों ने
राजस्थान के उस अभागे पत्रकार की बेरहमी से धुनाई कर दी। कांग्रेस बीट
संभालने वाले दिल्ली के ये पत्रकार यहीं नहीं रुके। इस घटना के बाद वो
दिग्विजय सिंह के सामने निर्लज्जता से अपनी बहादुरी का बखान कर रहे थे।
टीवी चैनलों के पत्रकार फ़टाफ़ट फ़ो-नो देने लगे। ई टीवी से एनडीटीवी ज्वाइन
करने वाले एक पत्रकार ने अपने फ़ो-नो के दौरान पत्रकारिता में तटस्थ रहने
की दुहाई दी। जबकि कई एंकर और पत्रकार जनार्दन, दिग्विजय और राजीव से
कांग्रेस ऑफिस में सुरक्षा बढाने के लिए मनुहार करते नजर आए।
 इस हंगामे के बीच बार-बार इस की खोज हो रही थी कि जूता दिखाने वाला
पत्रकार कहीं एक ख़ास विचारधारा से प्रभावित तो नहीं। हैरानी कि बात तो
ये कि इस पड़ताल में कांग्रेस बीट के पत्रकार भी शामिल थे। क्या वे
—तटस्थ भाव—से व्यवहार कर रहे थे। एक अदना सा दर्शक भी इस वाकये को
देख कर महसूस कर रहा था कि उस वक्त कांग्रेसी बीट वाले पत्रकारों से
ज्यादा संयम वहां मौजूद कांग्रेसी कार्यकर्ता दिखा रहा था।
इस वाकये के बाद मीडिया में सवाल उठने लगे हैं कि क्या पत्रकारों के ऐसे
रवैये के लिए महज –चमचा– शब्द काफी है? लोब्बीबाज, दलाल और चमचा के बाद
अब कौन सा विशेषण तलाशा जाए? दिल्ली के ये पत्रकार ( खास-कर मशहूर टीवी
चैनलों के ) किस मनोदशा में जी रहे हैं? वे चाहते क्या हैं? इसे समझने के
लिए थोड़े तफसील में जाना होगा।
अन्ना हजारे के आन्दोलन से लेकर रामदेव के राम-लीला प्रकरण के बीच के समय
पर ही गौर करें। इस दौरान देश ने कई ऐसे सवालों का सामना किया जो मन को
मथने वाला है। यहाँ कुछ ही सवालों जिक्र किया जा रहा है। कहा गया है कि
क्या –कोई– भी समर्थकों के साथ दिल्ली आकर अपनी मांग मनवा लेगा? ये
सवाल कांग्रेसी कर रहे पर इसे सबसे ज्यादा मुखर होकर दिल्ली के ये
स्व-नाम-धन्य पत्रकार उठा रहे हैं। ये पत्रकार अपने आकाओं को खुश करने के
लिए चीख-चीख कर पूछ रहे हैं कि साधू-संत ऐसा कब से करने लगे?
बेशक साधू-संत समाज और सत्ता से दूर रहते। लेकिन विषम समय आने पर वे
हस्तक्षेप और मार्ग-दर्शन करते हैं। देशों की जीवन-यात्रा में ऐसे मौके
कम ही आते हैं। ऐसा तब और जरूरी हो जाता है जब समाज में विद्वत परंपरा को
अनुर्वर बना दिया जाता है। इस सन्दर्भ में चाणक्य के महा-प्रयास और
अंग्रेजों के खिलाफ सन्यासी विद्रोह को बखूबी याद किया जा सकता है। नन्द
वंश के समय भारत में बिखराव था। सत्ता की निष्ठुरता पराकाष्ठा पर थी और
देश की पश्चिमी सीमा खतरे में थी। ऐसे में सन्यासी की तरह रहने वाले
विद्वान चाणक्य ने कैसी भूमिका निभाई इसे इतिहास के पन्नो में खोज सकते
हैं ये पत्रकार। इससे भी मन न भरे तो सन्यासी विद्रोह के समय पर मंथन कर
लें । लेकिन इस विद्रोह की जानकारी लेने में इन्हें मिहनत करनी पड़ेगी।
दिल्ली के ब्रांड बन चुके इन पत्रकारों में पढ़ने के लिए आस्था कहाँ बची
है। नामी पत्रकार विनोद दुआ जब कोई किताब पढ़ते हैं तो कैमरे के सामने
आकर देश को बताना नहीं भूलते कि देखो मैंने कोई किताब पढ़ ली है। देश
हैरान रह जाता है जब इस पढ़ाई के बल पर विनोद दुआ मनमोहन की तुलना महात्मा
गांधी से कर बैठते हैं। किताब दिखा कर कैमरे के सामने बोलने की इस अदा की
नक़ल कुछ अन्य पत्रकार भी करते नजर आ जाते हैं। ऐसे पत्रकारों के लिए
सन्यासी विद्रोह की थोड़ी बानगी बताना लाजिमी है.
 1757  में पलासी का संग्राम हुआ। इसके बाद पूर्वी भारत में भ्रम की
स्थिति बनी। बंगाल और बिहार के उत्तरी हिस्सों में अंग्रेजों की नीति और
शोषण ने किसानों की कमर तोड़ दी।  1769 के अकाल ने इस आपदा को और बढ़ा
दिया। हाउस ऑफ़ लोर्ड्स में इस शोषण और दमन का वर्णन करते हुए एड्मोंड
बुर्के दुःख से बेहोश हो गए। समझा जा सकता कि लोगों के लिए कोई आस नहीं
थी। पर आशा की किरण फूटी। सन्यासियों के समूह ने अंग्रेजों और उसके
पिठुओं के खिलाफ हथियार उठा लिया। उत्तरी बंगाल के इलाके इस संघर्ष का
गवाह बने। जाहिर था साधनविहीन सन्यासी परस्त हुए लेकिन इनकी देश-भक्ति और
दिलेरी ने लोगों का दिल जीता। आजादी के इन गुमनाम सिपाहियों को सरकारी
किताबों में अहमियत नहीं मिली। तभी तो अल्प ज्ञान वाले पत्रकार सवाल करते
कि साधू-संत का राजनीति से कैसा वास्ता?
जारी है……

संजय मिश्रा

लगभग दो दशक से प्रिंट और टीवी मीडिया में सक्रिय...देश के विभिन्न राज्यों में पत्रकारिता को नजदीक से देखने का मौका ...जनहितैषी पत्रकारिता की ललक...फिलहाल दिल्ली में एक आर्थिक पत्रिका से संबंध।

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3 Comments

  1. यह सच नहीं लगता कि एक अंग्रेज अधिकारी दु:ख से बेहोश हो जाए। अगर इतने दिलदार और अच्छे लोग थे तो इसके बाद भी 170-80 सालों तक अत्याचार क्यों होता रहा? यह इतिहास नहीं किसी अंग्रेजी भक्त इतिहासकार की लिखी हुई किताब में हो सकती। क्योंकि जब इतना बड़ा अधिकारी भारत में दमन और शोषण के चलते इतना दु:खी हो रहा हो तो कार्ल मार्क्स को ये नहीं लिखनी पड़ती कि अंग्रेज अत्यन्त क्रूर, बर्बर आदि हैं।

  2. dear chandan,
    itihas ke panno ko ultenge to apko koi saq nahin rahega(sarkari kitab nahin)……sabhee angrej adhikari kroor nahin the….
    sanjay mishra

  3. एड्मोंड बुर्के कोई सांसद या विधायक किस्म का नेता या छोटा अधिकारी नहीं रहा होगा। इसलिए उसकी बातों का असर तो अंग्रेजों पर होना ही चाहिए था। वैसे अब मैं इस अधिकारी के बारे में थोड़ा छानबीन कर लूंगा। वैसे भी किसी किताब को सच माना जाय या नहीं, यह भी तो विवादास्पद ही है। हाउस आफ लार्ड्स में बोलने वाला अधिकारी बहुत बड़े स्तर का अधिकारी रहा होगा। दु:ख से बेहोश जाने जैसी बात भी सबको नहीं पच सकती क्योंकि विवेकानन्द, गाँधी जी समेत किसी के पास इतना बड़ा दिल नहीं था कि वे दु:ख से बेहोश हुए। लेकिन यह अंग्रेज किसी फिल्मी कहानी की माँ जैसा लगता है।

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