पेट भरने के लिए बन रहे हैं मिथिला पेंटिंग्स
(संजय मिश्र मिथिला पेंटिंग्स पर लगातार लिख रहे हैं और बारीकी से लिख रहे हैं। इस पेंटिंग शैली की हर पहलु को तो वो टच कर रही रहे हैं साथ ही इसके विकास के तौर-तरीकों को भी मानवीय व्यहार के आधार पर फार्मेट में बहुत ही जिवंतता के साथ ला रहे हैं। कुल मिलाकर मिथिला पेंटिंग्स आपके लिए रुचिकर हो जाता है, चाहे आप इसके बारे में एबीसीडी भी नहीं जानते हों। मिथिला पेंटिंग्स की जमीनी हकीकत को को बयां करने के दौरान इसके फैलाव और विस्तार की चर्चा वो जिस अंदाज में करते हैं वो दिमागी मांसपेशियों को थोड़ा तनाव भी देता और राहत भी और यही इनके लेखन की खूबी है.)
संजय मिश्र
जातीय और धार्मिक एक्सक्लूसिव्नेश के बावजूद मिथिला के लोगों में मेल-मिलाप बड़ा ही लोचपूर्ण है। जानकार इस तरह की जीवन्तता के अनेक कारण बताएँगे। समझ ये भी है कि यहाँ की समस्याएँ लोगों में सामूहिकता के भाव की वजह बनती है, आखिर विपत्ति बिना भेद-भाव के कष्ट जो देती है। मसलन बाढ़ का पानी जब तांडव मचाता है तो जीवन बचा लेने की आस में सभी एक हो जाते हैं। साठ के दशक का अकाल ऐसी ही नौबत लेकर आया। सूनी आँखों में चमक लाने के लिए केंद्र की हेंडीक्राफ्ट बोर्ड ने मिथिला की लोक चित्रकला को बाज़ार की रौशनी देने का फैसला लिया।
ये प्रयास मधुबनी की गांवों से शुरू हुए। बोर्ड की तरफ से मिथिला चित्रकला लिखने के लिए ख़ास किस्म के कागज़ आने लगे। हर कलाकार को दस रूपये प्रति चित्र की दर से भुगतान होता। ब्राह्मण और कायस्थ महिलायें तो कागज़ पर चित्र बनाने लगी लेकिन वंचित समाज की स्त्रियाँ ऐसा नहीं करतीं। उन्हें मिथिला चित्रकला को कागज़ पर उतारना दुरूह लगता। लिहाजा वे बोर्ड की तरफ से मिले कागजों को अपनी सवर्ण बहनों के हाथ औसतन पांच रूपये में बेच लेतीं। मिथिला चित्रकला को बढ़ावा देने में लगे सोशल एक्टिविस्ट इससे निराश हुए। इन्होने ऐसी महिलाओं को प्रेरित किया कि वे अपने घरों की भीत पर लिखे गए पारंपरिक आकृतियों को ही कागज़ पर उतार लें।
मेहनत रंग लाई और इनके चित्रों का दर्प धीरे-धीरे कला जगत को लुभाने लगा। ये महिलायें अपने-अपने जातिगत संस्कार और परिवेश की विविधता को आकार देने लगी। कला समीक्षकों में –“थीम के इस प्रस्फुटन “– को नया नाम देने की होड़ मच गई। कोई इसे मिथिला चित्रकला की ‘हरिजन शैली ‘ कहता तो किसी को ‘गोबर पेंटिंग ‘ कहना अच्छा लगता। ये कथा सातवें दशक के शुरूआत की है। महिलाओं को प्रोत्साहन देने के सिलसिले में इसी दौरान कुछ एक्टिविस्टों ने इन्हें ‘गोदना ‘ को ही कागज़ पर उतारने की सलाह दी। कृति में तात्विक अंतर उभरा लेकिन ये कारगर साबित हुआ।
दरअसल, दलित आकांक्षा की इस चेतना को रौदी पासवान की सक्रियता से बल मिला। बाद में शिवम् पासवान ने बीड़ा उठाया। ये लोग भाष्कर कुलकर्णी की जिजीविषा से बेहद प्रभावित थे। उधर गोदना को अभिव्यक्ति देने की मुहिम में कृष्ण कुमार कश्यप बढ़-चढ़ कर लगे। लेकिन इस उत्साह को बरकरार रखने के लिए गोदना पैटर्न को जमा करने की जरूरत थी। कश्यप उस समय जितवारपुर में ही रह रहे थे। गोदना पैटर्न को संकलित करने के लिए उन्होंने सालों तक यात्रा की। भारतीय और नेपाली मिथिला क्षेत्र के अलावा वे देश के कई राज्यों में गए। पर मुश्किलें मुंह बाए खड़ी थी। आखिर कोई स्त्री अपनी काया को निर्वस्त्र कर उन्हें गोदना पैटर्न कैसे दिखाए? बाद में इस मुहिम में शशिबाला, अनीता और उत्पल जैसे सहयोगी भी उनसे जुड़े।
गोदना की परंपरा वैसे तो हर जाति की स्त्रियों में देखा गया है लेकिन हाशिये पर खड़े समाज में इसकी अधिकता है। मिथिला चित्रकला जहां भीत को सुशोभित करती रही वहीं गोदना शरीर का श्रृंगार हुई। जब मामला शरीर का हो तो स्त्री के भाव को समझा जा सकता है
उतरहि राज सं आयले एक नटिनीयां रे जान
रे जान , बसि गेलै चानन बिरिछिया रे जान
घर सं बहार भेली सुनरी पुतौह रे जान
रे जान, हमुर सांवर गोदना गोदायब रे जान
ऐसे ही मनोभावों को याद कर महिलाएं जब कागज़ पर गोदना लिखने के लिए उत्साहित हुई, तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
लेकिन कला की अपनी ड़ेनामिक्स’ होती है। वो महज मनोभावों पर निर्भर कहाँ होती। वो कैसे माने कि करोडी जाति की महिलाएं जो गोदना पैटर्न गृहश्थ स्त्री के अंगों पर बनाती उसे हू-ब-हू चित्र में उतार लिया जाए? जानकार बताते हैं कि गोदना परिचय का प्रतीक है….वंश – कुल की पहचान के रूप में ये चला आ रहा है। पूर्वी भारत में मान्यता है कि गोदना गुदवाने से स्त्रियों की मनोकामना कामख्या देवी पूरा करतीं हैं। कामख्या तंत्र का केंद्र रहा है। तंत्र में चौंसठ योगिनी की चर्चा है,जिसमें नैना योगिन भी एक हुई। मिथिला की विवाह पद्धति में नैना योगिन भी एक विधि है। माना जाता है कि इस विधि से नव-दंपत्ति के कुशल-क्षेम की रक्षा होती है।
मेन-स्ट्रीम मिथिला चित्रकला जहां प्रतीकात्मक और सांकेतिक ज्यादा है वहीं तंत्र के असर से लबरेज गोदना को कला की बारीकियों के हिसाब से ढालना कश्यप के लिए परीक्षा के सामान थी। अब तक उनका सरंजाम बरहेता(उनका पैतृक गांव) आ चुका था। बरहेता मिथिला चित्रकला के बड़े केंद्र के रूप मेन उभर रहा है। यहाँ गोदना को शैली देने की कोशिशें साकार हुई। यहाँ बनने वाले चित्र में मेनस्ट्रीम मिथिला चित्र भंगिमा, गोबर शैली और गोदना शैली का ‘ फ्यूजन’ नई पहचान बना रहा है।
प्रयोग स्वांत-सुखाय हो तो कोई बात नहीं, पर कला की दुनिया में कबूले जाने तक की यात्रा कठिन होती है। प्रचलित मान्यता एक तरफ और थीम का विकल्प दूसरी तरफ। अब जैसे मुसहर जाती की स्त्रियों का उदाहरण लें। इनके लिए शादी तब तक अधूरी, जब तक गोदना न कराया गया हो। दुराग्रह ये कि गोदना नहीं तो ससुराल में रसोई घर जाना वर्जित यानि गोदना होने तक वे अपवित्र मानी जाती। इनके गोदना पैटर्न को कला जगत की जरूरत के हिसाब से सिक्वेंस देना दिलचस्प चुनौती।
थोड़ी बात रंग की कर लें। पहले स्त्री के वक्ष से निकले दूध, दीप की ज्वाला से निकली कालिख और पीपल की टहनियों से निचोड़े दूध को मिला कर रंग बनाया जाता था। मुसलमान-कालीन भारत में इसमें बदलाव हुए। अब करोडी जाति की स्त्रियाँ प्रचलित तरीके से बने रंग में सूअर की चर्बी का रस मिलाने लगीं। मकसद ये कि मुसलमान फ़ौज गोदना करवाई महिलाओं को उठा ले जाने से परहेज करें। आज-कल तो करोडी बाजारू रंग का इस्तेमाल भी करने लगे हैं। पहले सुई से गोदना गोदा जाता….उसकी जगह आज ब्लाक (ठाप्पा) का चलन हो गया है। गोदना प्रक्रिया में होते रहे बदलाव के बीच इनके पैटर्न में सोच की निरंतरता के सूत्र को खोजना और समझना कलाकार के लिए जरूरी हो जाता है।
मिथिला चित्रकला की गोदना शैली में पिंक( ईट जैसा रंग) और हरे रंग को महत्त्व मिल रहा है। दूसरे रंग भी सीमित मात्रा में इस्तेमाल हो रहे हैं। तंत्र में बोर्डर को दिक्पाल माना जाता, जबकि गोदना शैली के बोर्डर में ये भाव भी झांकता है कि स्त्री की कामना का परिवेश कितना बंधा हुआ है? इस तरह के प्रयोग माटि की गंध देने वाले हैं। ये अलग स्वाद देने का आह्लाद है। लेकिन कहावत है ‘ सुखक श्रृंगार, दुखक अहार’। यानि मिथिला पेंटिंग्स पेट भरने के लिए बन रहे हैं। ये सौन्दर्य-बोध की कौन सी समा बांधेगा? क्या मिथिला चित्रकला का प्रकम्पन आम प्रयोग-धर्मी महसूस करवाने में समर्थ हो रहे हैं?
author wrote very sensitive article,we save own traditional culture.