मनमोहन सिंह “मदर इंडिया” जरूर देखे होंगे, पूरी फिल्म ब्राइट है
महबूब खान की मदर इंडिया पर आज भी आंखे ठहर जाती है, पूरी फिल्म ब्राइट है, और लोकेशन के लिहाज से आउटडोर। कहानी किसान, किसानी, महाजन, सूदखोरी से गुजरते हुये एक महिला की जिजिविषा को उकेरती है और उसके ही हाथों उसके अपने पुत्र की हत्या की ट्रेजेडी को बयां करती है। बेहतरीन भारतीय फिल्मों की सूची में निसंदेह यह पहले पायदान पर है, हर लिहाज से। सामान्यतौर पर भारतीय फिल्मों के गीत और संगीत कहानी को आंशिक और कभी-कभी पूर्णत: बाधित करने वाली होती है, लेकिन मदर इंडिया के गीत और संगीत कहानी के थीम को ही विस्तार देता है, विभिन्न बेहतरीन दृश्यों को कई मजबूत फ्रेमों में समेटते हुये। ।
जिस समय यह फिल्म बनी थी, कहा जाता है उस समय भारत किसानों का देश था, और लगभग सभी पाठ पुस्तकों में यही पढ़ाया जाता था कि इस देश की नब्बे फीसदी आबादी कृषक है, भारत गावों में बसता है। अब तो भारत के कई रूप दिखाई देते हैं, ग्रामीण आबादी को लीलने वाले चमचमाते शहर, हवाओं में उड़ते हुये बड़े ब्रांडेड एरोप्लेन, उनकी सेवाओं वाली होर्डिंगों से पटी शहरी सड़के, गगनचुंभी इमारतों से रिफ्लेक्ट करते सड़कों पर जलते भैपर…यकीन नये भारत का आभास इन्हीं आबजेक्टिव पर्दाथों से होता है, या फिर होने का गुमान कराया जाता है।
पता नहीं पिछले 50-60 वर्षों में भारत ने कितनी तरक्की की है, लेकिन मदर इंडिया वाले हालात कमोबेश आज भी बरकरार है। देश भर में किसानों के आत्महत्या करने की बाते पिछले कई वर्षों से लगातार सुनी जा रही हैं, कभी-कभी तो सामुहिक रूप से भी किसानों ने आत्महत्या किये हैं। आंकड़ों के मुताबिक पिछले एक दशक में करीब 25 हजार किसान गरीब और कर्ज से तंग आकर खुद को मौत के हवाले कर चुके हैं। पिपली लाइव इसी तथ्य को कुछ कामेडी टच देते हुये कहता है, और वर्तमान भारत के उठा-पटक फिल्मों से उब चुके जेनरेशन को कहीं गहरा टच करता है। इसे मदर इंडिया का ही विस्तार माना जाना चाहिये, कम से कम थीम के लिहाज तो है ही।
मदर इंडिया में एक साधारण किसान एक लाला से मात्र 500 रुपये लेता है, और उसकी चालाकी में फंसकर हर वर्ष अपने फसल का तीन तिहाई हमेशा के लिए गवां देता है, मूलधन जस का तस बरकरार रहता है। एक बंजर भूमि को उपजाऊ बनने की कोशिश में पहले तो वह अपने एक बैल से हाथ धो बैठता है फिर उसी बंजर खेत में एक दुर्घटना में अपनी दोनों हाथ गवां बैठता है। फिर लाला के तानों से छलनी होकर वह घर छोड़कर कहीं गुम हो जाता है। उसकी आत्महत्या को इंगित करने वाला कोई शाट तो नहीं दिखाई देता, लेकिन लोगों को लगता है कि वह वाकई में मौत के सफर पर निकल गया है। बहरहाल जो हो, उसकी दुर्दशा का कारण लाला सुखी लाल से लिया गया 500 रुपये का कर्ज है। लाला सुखी राम के रुप में कन्हैयालाल का अभिनय देखते ही बनता है। घईंचट और सूदखोर लाला को उन्होंने पर्दे पर जीवित कर दिया है, दर्शकों को लाला को देखकर उबकाई आती है, और साथ ही एक अजीब सी कसमसाहट भी महसूस करते हैं।
मदर इंडिया राजकुमार की बेहतरीन अदाकारी वाली फिल्मों में शुमार है, और नरगिस की तो यह अमर कृति है ही। किसान शामू की भूमिका में राजकुमार है और उसकी पत्नी राधा की भूमिका में नरगिस।
शामू के लापता हो जाने के बाद उसकी पत्नी राधा अपने बच्चों के जीवन के लिए भूख से जंग करती है, गरीबी से जंग करती है, हालात से जंग करती है, जबकि लाला उसका एक-एक निवाला छिनने पर तुला है। लाला के लालागिरी के कारण एक जमीन जोतने वाले किसान के बच्चों को एक-एक दाने के लिए मुहताज हो जाना पड़ता है।
चमकते हुये शहरों से इतर जाने पर आज भी भारत के किसानो की कमोबेश यही स्थिति है, भूख से जुझते हुये उन्हें देखा जा सकता है, भले ही उसके कारण कुछ और हो। वैस सूदखोरी भी मजबूत कारणों में से एक है, यह दूसरी बात है कि लाला के जगह पर अब कई तरह के बैंकों के नमूने आ चुके हैं। आजादी के बाद से देश में किसान धड़ाधड़ मरे हैं, या फिर मारे गये हैं, या फिर सूदखोरी की चक्की में उनकी हड्डियां पिस रही है। मदर इंडिया के पूरे बैकग्राउंड में किसानी है।
भूखमरी से जुझते हुये राधा अपने दो बच्चों- बिरजू (सुनील दत्त), और रामू (राजेंद्र कुमार) –को पालती पोसती है। छोटा बेटा बिरजू शुरु से ही लाला सुखीराम के अत्याचारों को समझते हुये उसके खिलाफ बोलता है, और बड़ा होने पर अनाज मंडी में तीन तिहाई फसल पर मुंह मारने आये लाला से हिसाब पूछता है। पहले तो बंदूक के जोर पर लाला उसे दबाने की कोशिश करता है, लेकिन जब वह हाथ में आग लेकर अड़ जाता है कि यदि उस फसल पर उसका अधिकार नहीं है तो वह इसे जला देगा तो लाला सुखी राम उसे हिसाब की पोटली पकड़ाता है और कहता है कि लो खुद ही पढ़ लो। वह पूरी तरह से अनपढ़ है। वहां मौजूद सभी लोगों से वह कहता है कि कोई उसे पढ़ कर बताये कि इन पोथियों में क्या लिखा है, लेकिन सभी यही कहते हैं कि उन्हें पढ़ना नहीं आता। क्या आज भी भारत के किसान निरक्षर नहीं है?? निरक्षरता आज भी भारतीय किसानों की मुख्य पहचान है, और इस संदर्भ में पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि किसानों का एक बहुत बड़ा तबका के लिए आज भी काला अक्षर भैंस बराबर है, जबकि पूरे आन बान और शान से कहा जा रहा है कि भारत हाईटेक हो गया है। कल करखानों और पूल के नक्शे अब कंप्यूटर पर बनने लगे हैं, कैश निकालने के लिए जगह-जगह एटीएम लगी हुई है, लोग मोबाइल फोन से दिल की बातों से लेकर तरह-तरह के एकाउंट डिल कर रहे हैं। ऐसे में किसानों का एक तबका निरक्षर है तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, इंडिया तो शाइनिंग कर ही रहा है।
मदर इंडिया 14 फरवरी 1957 को रिलीज हुई थी। यानि देश को आजाद हुये दस साल गुजर गये थे। सोवियत संघ से ली गई उधार की पंचवर्षीय योजना के आधार पर भारत के तकदीर को संवारने की कोशिश की जा रही थी। ऐसे में महबूब खान ने जिस भारत को पर्दे पर उकारा था वह भारत आज भी कुछ उसी अंदाज में एड़िया रगड़ रहा है, जबकि पंचवर्षीय योजना के बाद राजीव गांधी के नेतृत्व में प्रारंभ हुआ कंप्युटर रिवोल्यूशन आज अपने शबाब पर है, और अब तो राजीव गांधी के बेटे राहुल गांधी भी सर्वोच पद की ओर मजबूती से अपना कदम बढ़ाने की कोशिश करते हुये स्कूलों-कालेजों के साथ-साथ गांव की दलित बस्तियों से लेकर विभिन्न स्थानों का चक्कर लगा रहे हैं।
मदर इंडिया के प्रोड्यूसर और निर्देशक महबूब खान थे, कहानी भी उन्हीं की थी। इसका डायलाग लिखा था वजाहत मिर्जा और एस अली राजा ने व संगीत से दिया था नौशाद ने। दुनिया में हम आयें हैं तो जीना ही पड़ेगा, जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा जैसे गीत आज भी जीवन की कठिन परिस्थितियों में डटकर खड़े होने को प्रेरित करते हैं। 1958 में यह फिल्म एकेडमी अर्वाड फोर बेस्ट फोरेन लैंग्वेज फिल्म के लिए नामित हुआ था, और मात्र एक मत से फेडेरिको फेलिनी की फिल्म नाइट्स आफ कैबिरिया से पिछड़ गया था।
लाला सुखी राम के अत्याचारों से तंग आकर अनपढ़ और गंवार बिरजू डाकू बन जाता है, और अंत में लाला के घर पर ही ठीक उसकी बेटी की शादी के दिन पूरे गिरोह के साथ धावा बोलता है और लाला से कहता है, तूम भी डाकू और मैं भी डाकू। पुलिस मुझे नहीं छोड़ेगी और मैं तुम्हें नहीं छोड़ूंगा। वह लाला के तमाम खातों को जलाने के बाद उसकी हत्या कर देता है। कई दशक बाद सूदखोरी की जंजीरों में जकड़े हुये किसानों की मुक्ति के लिए इसी तरह के समाधान की वकालत निर्देशक जेपी दत्ता ने अपनी फिल्म गुलामी में की थी। राजस्थान की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में भी सूदखोरी के मैकेनिज्म को मजबूती से उकेरा गया था। मक्सिम गोर्की की पुस्तक मां से प्रभावित फिल्म का नायक रंजीते (धमेंद्र) फिल्म के अंत में सूदखोर ठाकुर (ओम शिवपुरी) सहित उस इलाके के तमाम सूदखोरों के खाते-बही को सामूहिक रूप से आग के हवाले कर देता है और अंत में खुद भी पुलिस की गोलियों का शिकार हो जाता है। मदर इंडिया का बिरजू एक कदम और आगे बढ़कर लाला सुखीराम की बेटी को भी ले भागने की कोशिश करता है, और उसकी मां राधा उसे गोली मार देती है। इस तरह से एक नैतिक शक्ति को मां के ममत्व पर तरजीह दिया गया था, जो समाज के व्यवहार को निर्धारित करने के लिए जरूरी है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, आमिर खान और उनकी टीम के साथ बैठकर पीपली लाइव देख रहे हैं। उम्र के जिस पड़ाव पर मनमोहन सिंह खड़े हैं उसे देखते हुये पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि उन्होंने मदर इंडिया भी जरूर देखी होगी। उनका बायोडाटा तो यही बताता है कि वह दुनिया के सबसे ज्यादा पढ़े लिखे राजनेताओं में अव्वल हैं। अब उनके आर्थिक सुधारों के द्वितीय चरण में भारत के किसान खुद अपनी हस्ती मिटाते जा रहे हैं, तो दोष किसका है ? यदि बड़ी-बड़ी डिग्रियां, और व्यवहारिक स्तर का सूझबूझ भारतीय किसानों को राहत नहीं दे पा रही तो सब बेकार है। भारत आज भी किसानों का देश है, मरते हुये किसानों का। मदर इंडिया से पीपली लाइव तक के सफर में कोई खास बदलाव भारत में नहीं हुआ है, भले ही तमाम तरह के आंकड़ों के साथ बड़े-बड़े उलझाऊ शब्दों का प्रयोग करते हुये विकास के नई ईबादत की बात की जाये। आज भी दो जून रोटी को तरस रहा है अपनी हाथों से फसल उगाने वाला भारतीय किसान, मदर इंडिया से पीपली लाइव तक फिल्मी सफर यही कह रहा है।
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