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यदुवंश ही न रहा तो यादव कहाँ से आये?

डॉ० मत्स्येन्द्र प्रभाकर,स्वतंत्र पत्रकार
( लेख में लेखक के निजी विचार हैं )
लगता है, जातिवाद में बिहार अब पीछे छूट जाएगा! उत्तर प्रदेश इस समय ‘जातीय चकरघिन्नी’ में बुरी तरह से फँसता दिख रहा है, और यहाँ ‘जातिवाद का भूत’ नये सिरे से कुलाँचें ले रहा है। ताजा विवाद इटावा जिले में एक यादव कथावाचक के द्वारा किसी ब्राह्मण यजमान को अपनी जाति छुपाते हुए कथा सुनाये जाने के बाद उभरा है। आरोप है कि ऐसा करते हुए उसने न केवल अपनी जाति छुपायी; वरन, स्वयं को ब्राह्मण बताया था। सचाई क्या है यह तो सही तरीके से निष्पक्ष जाँच के बाद ही पता चल सकती है जो अमूमन कभी होती नहीं। बहरहाल, इस सम्बन्ध में मूल प्रश्न है कि ‘जब यदुवंशी कहे जाने वाले श्री कृष्ण के जीवन में ही यादव वंश का विनाश हो गया था तो आज के ‘यादव’ कहे जाने वाले लोग कहाँ से आये?’
*गान्धारी का श्राप*
प्राचीनकाल में यदुवंश के नाश का उल्लेख मुख्यतया ‘श्रीमद्भागवत महापुराण’ (स्कन्ध 11, अध्याय 30) में मिलता है। उल्लेख्य है कि श्रीमद्भागवत देश-विदेश में प्रचलित सभी कथाओं का मूल आधार है। इसमें 18 हजार श्लोक हैं। यह अलग बात है कि वर्तमान में बहुत सारे कथावाचकों को यह संख्या भले याद हो, उन्होंने शायद ही सभी श्लोकों को कभी पढ़ा, और उन पर मनन किया हो? श्रीमद्भागवत में यादवों के नष्ट होने के सम्बन्ध में लिखा है कि:-
“एवं तद्भगवता प्रोक्तं तथेति प्रतिपूज्य ते।
प्रययु: प्रभासं सर्वे यदव: शापमोहिता:॥”
अर्थात:- “भगवान श्रीकृष्ण द्वारा ऐसा कहे जाने पर, शाप और मोह के कारण सभी यादव प्रभास क्षेत्र को (जहाँ से वापस नहीं आया जा सकता) चले गये।” इसके बाद, आपसी कलह और ऋषियों के श्राप से यदुवंश का विनाश हो गया।
दरअसल, श्रीकृष्ण ने गान्धारी एवं ऋषियों के श्राप के कारण यदुवंश के नाश के समय अपने कुल वालों से कहा था कि “माता गान्धारी के श्राप को टालना मेरे लिए भी सम्भव नहीं है, इसलिए अब यदुवंश का विनाश निश्चित है।” कथानुसार, उन्होंने स्वयं यादवों की मति फेर दी ताकि वे आपस में लड़कर नष्ट हो जाएँ। श्रीकृष्ण ने कहा था— “जैसे बाँसों की रगड़ से उत्पन्न होकर दावानल बाँसों को ही भस्म कर देता है, वैसे ही ब्रह्मशाप से ग्रस्त और मेरी माया से मोहित यदुवंशी आपस में ही नष्ट हो जाएँगे।”
(स्रोत: श्रीमद्भागवत महापुराण, भारतकोश)
यदुवंश के नष्ट होने का उल्लेख ‘महाभारत’ के अलावा ‘भागवत पुराण’ में भी मिलता है। जहाँ ‘महाभारत’ के अनुसार, इस महायुद्ध में अपने पुत्रों के मारे जाने से कुपित गान्धारी के अतिरिक्त अन्य ऋषियों के भी श्राप के चलते श्रीकृष्ण के जीवनकाल में ही यदुवंश का विनाश हो गया; वहीं, भागवत पुराण (अध्याय 31) में भी इसका विस्तार से वर्णन है कि श्रीकृष्ण की मृत्यु के बाद यदुवंश समाप्त हो गया था। 📖
*यादवों का श्री कृष्ण से सम्बन्ध*
हालाँकि विडम्बना है कि आज के कथित “यादव” या “यदुवंशी” समुदाय के लोगों को प्राचीन यदुवंश (कृष्ण का वंश) से जोड़ा जाता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि आधुनिक यादव समुदाय का सम्बन्ध सीधे-सीधे प्राचीन यदुवंश से जोड़ना पूरी तरह ऐतिहासिक या वंशावली-आधारित नहीं है। आज के यादव समुदाय में विभिन्न पृष्ठभूमि के लोग शामिल हैं, जिन्हें सामाजिक-राजनीतिक कारणों से इस वर्गीकरण में रखा गया है।
*प्रतीकात्मक पहचान*
ऐतिहासिक दस्तावेज़ों और शोध के अनुसार, प्राचीन यदुवंश का वास्तविक वंशज होने का दावा अक्सर प्रतीकात्मक या सामूहिक पहचान के रूप में किया जाता है। यह अलग बात है कि आज के यादव समुदाय की राजनीतिक या सामाजिक भूमिका विभिन्न कारणों से प्रायः बहुत सशक्त दिखती है।
अध्ययनों के अनुसार आज के यादवों के पूर्वज ‘अढोर’ समुदाय के थे जो गोपालन और गायों की सेवा का कार्य करते थे? जानकार यह भी कहते हैं कि यह वर्ग प्राचीन काल में यदुवंश के गोपालन का कार्य करता था। श्रीकृष्ण के नाना उग्रसेन और उग्रसेन के दामाद वसुदेव के यहाँ ये लोग गोसेवा और ढोर (पशुओं) को चराने आदि का काम करते थे।
*आभीर या अहीर*
आज के यादव समुदाय के पूर्वजों को अक्सर आभीर (अहीर) समुदाय से जोड़ा जाता है, जो प्राचीन काल में गोपालन और गायों की सेवा (ग्वाला) का कार्य करते थे। यह सम्बन्ध ‘महाभारत’ और ‘हरिवंश पुराण’ जैसे ग्रन्थों में भी दर्ज है, जहाँ यादव, अहीर, गोप और ग्वाला शब्दों का उल्लेख एक-दूसरे के पर्यायवाची के रूप में किया गया है। विशेष पुस्तकों में, ‘हरिवंश पुराण’ में इस तथ्य की पुष्टि होती है कि अहीर (आभीर) और यादव एक ही वंश के थे और गोपालन का कार्य करते थे। इसके अलावा, हाल ही में “यदुवंश संहिता” और “यदुवंश समुद्भवा” जैसी रचनाओं में भी यादव, अहीर और गोपालन समुदाय के बीच के सम्बन्ध पर विस्तार से चर्चा की गयी है।
*पौराणिक उल्लेख*
महाभारत और हरिवंश पुराण में स्पष्ट उल्लेख है कि अहीर (आभीर), गोप, गोपाल और यादव सभी एक ही वंश के पर्यायवाची थे। महाभारत में, अहीर और यादव को एक ही समूह माना गया है जो गोपालन (गायों की सेवा) का कार्य करते थे। हरिवंश पुराण में भी कहा गया है कि गोप और यादव एक ही वंश के हैं। साथ ही, ‘अमरकोश’ में भी गोपा, गोपाल, अभिर जैसे शब्दों का उल्लेख एक-दूसरे के समानार्थी के रूप में हुआ है। संक्षेप में इसे इस तरह समझा जा सकता है:-
1. ‘महाभारत’: अहीर = गोप = यादव, गोपालन कार्य।
2. ‘हरिवंश पुराण’: गोप और यादव एक ही वंश।
3. अमरकोश: अभिर, गोपा, गोपाल समानार्थी। 📚
जैसे कि (1.) ‘महाभारत’, (सभा पर्व, अध्याय 14, श्लोक 29) में “आभीर” शब्द का उल्लेख है:
> “आभीराः शूद्रजातयश्च सर्वे गोपालकास्तथा।
ये चान्ये वृत्तिनिर्दिष्टाः शूद्रधर्मरताश्च ये॥”
महाभारत के इस श्लोक का अर्थ है:-
“आभीर और शूद्र जातियाँ, सभी गोपालक (गायों के रक्षक) हैं। और वे अन्य लोग भी, जो आजीविका के अनुसार शूद्र धर्म में लगे हैं।”
(2.) ‘हरिवंश पुराण’, (विष्णुपर्व, अध्याय 19, श्लोक 30) में लिखा है:
> “आभीर्यदवः सर्वे गोपाला गोपसंश्रयाः।
गोप्यश्चैव सदा सर्वा यदुवंशसमुद्भवाः॥”
हरिवंश पुराण के श्लोक का अर्थ है:-
“सभी आभीर, यादव और गोपाल, गोपालन (गायों की सेवा) में लगे हैं। और सभी गोपियाँ भी हमेशा यदुवंश से उत्पन्न हैं।”
(3.) ‘अमरकोश’ :
> “अभीरः गोपः पालकः।” अमरकोश के इस उल्लेख से स्पष्ट है कि:-
“आभीर, गोप और पालक—ये तीनों एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।” ये श्लोक स्पष्ट रूप से आभीर, गोप, यादव और गोपालक के सम्बन्ध को दर्शाते हैं।
*सवाल आधिकारिता का*
उपर्युक्त बातें तो विवाद जिस विषय को लेकर है उसे स्पष्ट करने के लिए की गयी हैं लेकिन लोगों के जेहन में इससे अलग प्रश्न कथा कहने की आधिकारिता को लेकर है। यादव समाज के कतिपय कथवाचक तो आज यह कह रहे हैं कि अखिल ब्रह्माण्ड के।नायक, यदुवंशी श्री कृष्ण की कथा कहने का मूल अधिकार वस्तुत उन्हें ही है क्योंकि वे यादवों के पूर्वज थे, या कि सारे यादव उन्हीं से हैं। इससे ‘कथावाचक विवाद’ गहराने लगा है। यह जिस इटावा जिले से पैदा हुआ उसे यादव बहुल ही नहीं, राजनीतिक और सामाजिक तौर पर भी अग्रणी माना जाता है। इससे गूँज की तरंग देश तक को झकझोरती लग रही है!
मामला कथित तौर पर कथावाचक के द्वारा अपनी मूल जाति (यादव) को छुपाते हुए कथा कहने से उभरा जो कथा आयोजक (सुनने वाले) के वर्ग (या जाति) से अलग (उनकी नजर में) एक अपात्र वर्ग (जाति) से थे। उल्लेख आवश्यक है कि धार्मिक कथावाचन सदियों से मुख्यत: ब्राह्मण समुदाय का मुख्य कार्य रहा है। समाज इसी से विद्वान ब्राह्मणों का सम्मान करता आया है। यह अवश्य है कि इस क्षेत्र में दूसरे वर्गों के भी वेद और संस्कृत का अध्ययन करने वाले लोगों ने अपने जलवे बिखेरे हैं।
*पेशा बना कथावाचन*
वास्तव में पिछले कुछ सालों से देशभर में ‘सनातन लहर’ का उफान सा है। इससे विभिन्न सामाजिक वर्गों के लोग कथावाचन को कथा कहने और शान्ति की खोज का उपाय कम, किसी व्यावसायिक अवसर की तरह अधिक लेने लग गये हैं। इस पर मुलम्मा यह कि समाजवादी पार्टी के मुखिया ने अपने ताजा बयान में कहा है कि “कथावाचक एक कथा के लिए 50 लाख रुपये लेते हैं।” हाल-फिलहाल यह तो है कि अब किसी सामान्य आदमी के लिए श्रीमद्भागवत कथा तो दूर, दो चार दिन की राम कथा का आयोजन करवाना भी बहुत कठिन हो गया है।
*कथा की अहमियत या जाति की*
इटावा से उभरे विवाद के सम्बन्ध में अब सबसे अहम सवाल यह उठाया जा रहा है कि कथा श्रोता (आयोजक) ने पहले ही कथावाचक के बारे में पूरी जाँच-पड़ताल के बिना उसे कथावाचन के लिए क्यों बुला लिया? बाद में उन्हें जब सचाई पता चली तो वे आयोजन रद या स्थगित कर सकते थे! कथावाचक से मारपीट क्यों की, उनका अपमान किया जबकि कथा तो फिर भी नहीं हो सकी? इस बारे में दूसरे पक्ष से बहुत सारे प्रश्न उठाये जा रहे हैं और पूरा मामला एक जबरदस्त राजनीतिक रंग लेता लग रहा है।
*विद्वान सर्वत्र पूज्यते*
बहरहाल, सनातन धर्म के अनुयायियों में किसी भी मामले में सदा से ज्ञान, विद्या, विद्वता और विद्वान को मान्यता दी गयी है। इस बारे में ‘चाणक्य नीति’ में एक श्लोक इस प्रकार है:-
“स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥”
इसी तरह ज्ञान की महत्ता के सम्बन्ध में बहुत सी बातें कही गयी हैं। ‘हितोपदेश’ और ‘सुभाषित’ संग्रहों में एक श्लोक मिलता है:-
“विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्
न चोरहार्यं न च राजहार्यम्।
न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि
व्यये कृते वर्धत एव नित्यं॥”
अर्थ यह कि “विद्या का धन सबसे श्रेष्ठ है; इसे न चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाइयों में बँट सकता है, न ही यह बोझ है। खर्च करने पर यह और बढ़ता है।” पर चर्चित विवाद के सन्दर्भ में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या इस बारे में वास्तव में विवाद बढ़ा रहे लोगों को सचमुच ज्ञान है और उनका अभीष्ट पवित्र है? दूसरी ओर राजनीतिक दलों का उद्देश्य तो सियासी समीकरणों के हिसाब से ही बन रहा है।
*राजनीतिक मौकों की तलाश*
उत्तर प्रदेश में पञ्चायतों के चुनाव की रणभेरी एक तरह से बज चुकी है। सुभासपा के नेता और मंत्री ओमप्रकाश राजभर ने एक अलग ही राग भरी है यह कह कर कि “यादव ब्राह्मणों का हक हड़प रहे हैं।” उधर सपा मुखिया ने उस कथावाचक को लखनऊ बुलाकर सम्मानित किया है जिसकी जाति का खुलासा होने के बाद उनकी पिटाई हुई थी और उन्हें अन्य तरीकों से अपमानित किया गया था। भाजपा इस मामले में नफा नुकसान का आकलन कर के ही आगे की रणनीति तय करना चाहती है।
*जाति क्यों छुपाना?*
अपना मत है कि कथा कहने की पात्रता ज्ञानी को है। सनातन समाज ने इस अथवा अन्य धार्मिक कार्यों में इक्का दुक्का अपवादों को छोड़कर सदैव मानवता को सर्वोपरि रखा है। कबीर, रहीम, रैदास, मीरा ही नहीं, प्राचीन समय से हमारे ऋषि, मुनि, सन्त, महात्मा इनके उल्लेखनीय उदाहरण रहे हैं। सदियों से इसी मूल्य का सबका मान किया है। आज जबकि आरक्षण के लाभ के लिए सभी लोग और सम्बन्धित जातियों के लोग बढ़ चढ़ कर आगे रहते हैं, उन्हें कथा का वक्ता या प्रवक्ता बनते हुए भी गर्व के साथ अपनी जाति का उल्लेख करना चाहिए।

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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