सरकारी “बैरोमीटर” बने हुये हैं अन्ना हजारे
अन्ना हजारे सरकार के साथ चूहे बिल्ली का खेल खेल रहे हैं या फिर सरकार मदारी बनकर उन्हें अपनी डुगडुगी पर नचा रही है? इसके पहले सरकार बाबा रामदेव को भी अपने तरीके से नचा चुकी है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि बाबा रामदेव एक बेहतर सरकारी एजेंट साबित हुये हैं। सबसे पहले सरकार के इशारों पर उन्होंने राजीव दीक्षित के स्वाभिमान भारत आंदोलन को हाईजैक किया, फिर परिवर्तन की एक नई सोंच रखने वालों को सूचीबद्ध करवाया और वह सूची सरकार को सौंप दी और सूची सौंपने के पहले रहस्यम तरीके से राजीव दीक्षित दुनिया से कूच कर गये। यानि की सरकार ने बाबा रामदेव का इस्तेमाल न सिर्फ एक नवजात आंदोलन की हत्या करने के लिए किया बल्कि बाबा रामदेव के जरिये उन सभी लोगों की सूची भी हासिल कर ली जो भविष्य में इस तरह के आंदोलन को आगे बढ़ाने का माद्दा रखते हैं। अब बाबा रामदेव फिलहाल कुछ समय के लिए नेपथ्य में चले गये हैं, क्योंकि उन्होंने अपना सरकारी काम पूरा कर दिया है। एक बेहतर सरकारी एजेंट की भूमिका उन्होंने बखूबी निभाई है। अब पूरे राष्ट्र की नजर अन्ना हजारे पर टिकी है। या यूं कहा जाये कि अब अन्ना हजारे केंद्र में आ गये हैं। सारा तमाशा इन्हीं के इर्दगिर्द हो रहा है।
अंग्रेजों की एक खास नीति थी, सेफ्टी वाल्व की। इसके माध्यम से वे न सिर्फ राष्ट्र में व्याप्त असंतोष को मापते थे बल्कि उस असंतोष को शांतिपूर्ण तरीके से निकालने की युक्ति भी लगाते थे। मोहन दास करमचंद गांधी का इस्तेमाल अंग्रेजों ने लंबे समय तक सेफ्टी वाल्व के तौर पर ही किया। लोगों पर मोहनदास करमचंद गंधी की पकड़ को बनाये रखने के लिए उनके साथ बातचीत और जेल का फार्मूला अपनाया जाता था। अंग्रेज यह नहीं चाहते थे कि नेतृत्व मोहनदास करमचंद गांधी के हाथों से झिटके, यही वजह थी उनके साथ बातचीत का सिलसिला चलता रहता था, साथ ही यह लोगों के बीच यह भ्रम भी फैलाया जाता था कि मोहनदास करमचंद गांधी अंग्रेजों के सबसे बड़े दुश्मन है ताकि ब्रिटानियां हुकूमत का विरोध करने वाले तमाम लोग गांधी के ही इर्दगिर्द जमा रहे। जिसे भारत के तमाम इतिहासकार आजादी की लड़ाई कहते हैं वह कमोबेश इसी पैटर्न पर बढ़ता रहा है। भारत की आजादी में द्वितीय विश्वयुद्ध में नाजीवादी शक्तियों द्वारा ब्रिटिश हुकुमत पर ताबड़तोड़ हमला मुख्य कारण है। वर्तमान में सरकार की चमड़ी का रंग भले ही बदल गया हो लेकिन नीतियां आज भी वहीं हैं। ऐसे में अन्ना हजारे जिस तरह से लोकपाल बिल को लेकर जूझते नजर आ रहे हैं उसकी तफ्तीश जरूरी है।
एक मजबूत लोकपाल बिल की वकालत लंबे समय से हो रही है। अन्ना हजारे की लॉबी, जिसमें किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण, शांति भूषण जैसे लोग शामिल है, सिविल सोसाइटी के नाम पर सारे देश की इच्छा की नुमाइंदगी हासिल करने का दावा कर रहे हैं। भ्रष्टाचार को लेकर सारा देश त्रस्त है, इसमें दो राय नहीं है। पूरा देश इस पर काबू पाना चाहता है। यदि यह कहा जाये कि पूरा देश इस मुद्दे को लेकर बहुत दिनों से अंदर ही अंदर कुढ़ रहा है तो कुछ गलत नहीं होगा। इस कुढ़न को अन्ना हजारे और उनकी लॉबी ने लोकपाल बिल पर लाकर टिका दिया है, और पूरे देश की नुमाइंदगी का दावा करते हुये सरकार के साथ दो-दो हाथ करने का भ्रम पैदा कर रहे हैं। अब सवाल उठता है कि नुमांदगी इन्हीं लोगों के हाथों में क्यों? अन्ना हजारे की टीम में शामिल लोगों को देखा जाये तो साफ हो जाता है कि ये लोग गरीबी रेखा से बहुत ही ऊपर की चीज हैं, कानून के जानकार हैं, मौलिक सुख सुविधाओं के लिए इन्हें स्ट्रगल नहीं करना पड़ रहा है इसलिये इनका मुद्दा भी आम इनसानी जरूरतों से दूर है। लेकिन यह मुद्दा कम से कम शहरी लोगों को एक सूत्र में बांधने का काम जरूर कर रहा है। इस लिहाज से अन्ना हजारे का आंदोलन पूरी तरह से शहरी आबादी का आंदोलन साबित हो रहा है, और सरकार भी यही चाह रही है। शहरी आबादी के गुस्से को एक सूत्र में पिरोकर शांतिपूर्ण तरीके से उसे निकाल दिया जाये।
एक तरह से सरकार अन्ना हजारे का इस्तेमाल बैरोमीटर के तौर पर कर रही है। पहले राउंड के आंदोलन में अन्ना को शहरी आबादी का जोरदार समर्थन मिला था, और अन्ना हजारे हर लिहाज से आम जनता के बीच में भ्रम पैदा करते हुये अंदरखाते सरकार के समर्थन में ही खड़े नजर आ रहे थे, ठीक वैसे ही जैसे कभी मोहन दास करमचंद गांधी हुआ करते थे। लोकपाल बिल के मुद्दे पर अन्ना को मजबूत करने में सरकार अपनी मजबूती देख रही है, यही वजह है कि बार-बार सरकार की ओर से अन्ना हजारे को परेशान करने और जाल में फंसाने का भ्रम पैदा किया जा रहा है। लोकपाल बिल भारत के लिए कोई जिन्न का चिराग साबित होने नहीं जा रहा है, तमाम कानूनों से इतर भारत में एक अलग तरह की राजनीतिक संस्कृति बन गई है, जिसकी जड़े खानदानवाद में है। इस चक्रव्यू को तोड़ पाना मुश्किल है। आने वाले समय में तमाम कठिनाइयों को दर्शाते हुये अन्ना हजारे की चंद बातें मान ली जाये तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये। हां ऐसा करते हुये यह भ्रम जरूर पैदा कर दिया जाएगा कि जीत एक बार फिर लोकतंत्र की हुई है, सरकार लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए अन्ना हजारे के सामने झुकी है और अन्ना हजारे के आंदोलन की नियति भी यही है।
अन्ना हजारे को मीडिया जगत ने दूसरा गांधी तो साबित कर ही दिया है। अन्ना हजारे खुद दूसरी आजादी की बात कर रहे हैं, जैसे कभी मोहन दास करमचंद पहली आजादी की बात करते थे। एक बार फिर भारत के लोगों के अक्ल के ऊपर भ्रम का नकाब डालने की पूरी तैयारी हो चुकी है। 16 अगस्त से दिल्ली के जयप्रकाश नारायण पार्क में तथाकथित दूसरी आजादी का शो शुरु होने वाला है, जिसकी स्क्रिपटिंग पहले ही हो चुकी है। लेकिन इसके क्लाइमेक्स की जानकारी नहीं दी गई है, बस किसी कुशल फिल्म प्रोमोटर की तरह अभी सिर्फ इसका प्रोमो ही चलाया जा रहा है। ऐसे में पूरे शो पर देश की नजर का टिके रहना लाजिमी है। देश के मीडिया घरानों को भी बिकाऊ फूटेज मिलेंगे, अन्ना हजारे और सरकार की नूराकुश्ती को कवर करने के लिए मीडिया घरानों के इंटरेस्ट को ध्यान में रखकर अभी से तमाम बड़े ओहदेदारों के बीच मिटिंगे चल रही हैं। 16 अगस्त से मीडिया वालों के चश्में से इस नूराकुश्ती की पल पल की खबर देखने को मिलेगी, और लोग अक्ल का घोड़ा दौड़ाना छोड़कर पूरी तरह मीडिया की जुबान में ही सड़कों, नुक्कड़ों, काफी हाउसों, कालेजों, कैंटिनों, दफ्तरों आदि में बहस करते नजर आएंगे, और इस बहस के साथ ही उनके चेतन और अचेतन मन में वर्षों से व्याप्त गुस्सा काफुर हो जाएगा, मनोविज्ञान नियम तो यही कहता है। इसके साथ ही अन्ना हजारे भले की एक महान योद्दा के रुप में स्थापित हो जाये, लेकिन सरकार की तरफ से चेक वाल्व की भूमिका बखूबी निभाते हुये निकल जाएंगे।
गाँधी जी की कुछ अधिक ही खिंचाई हो रही है! अन्ना की बात बहुत हद तक मानी जाएगी और लोकतंत्र जीतेगा। यह तो होगा ही। क्योंकि सरकारें और शासक इतने बेवकूफ़ नहीं होते। जो सोच रहे हैं कि अगले चुनाव में कांग्रेस हारेगी, मुझे तो इसमें 80 प्रतिशत संदेह है। यह बात आप कह के कुछ अलग ध्यान दिला रहे हैं कि सरकार अन्ना को मजबूत कर रही है। सही है। अन्ना को या किसी को मशहूर करने में सरकार का ही हाथ तो है। और इन गदहे लोगों और कुछ बुद्धिमानों को यह आम आदमी का अन्दोलन लगता है। बार-बार मैं कह रहा हूँ कि जिस आन्दोलन में किसान और मजदूर खुलेआम नहीं जुटे, वह आन्दोलन नहीं सिर्फ़ मनोरंजन है। गाँधी इतने दोषी भी नहीं थे जितना आपने कहा है।